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Bharatiya Itihas Kosh

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गयासुद्दीन तुगलक (अथवा तुगलक शाह)
दिल्ली का सुल्तान (१३२०-२५ ई.)। उसने तुगलक वंश की स्थापना की थी। उसका पिता सुल्तान बलबन (१२६६-८६) (दे.) का तुर्क गुलाम था। सुल्तान ने उसे गुलामी से मुक्त कर दिया था और उसने एक जाट स्त्री से विवाह किया। उसके लड़के गयासुद्दीन का आरंभिक नाम गाजी मलिक था, जो अपने गुणों और वीरता के कारण सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ((१२९६-१३१६ ई.) के द्वारा उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। उसने मंगोलों के आक्रमण से कई बार उत्तर-पश्चिमी सीमा की रक्षा की। खिलजी वंश के अंतिम शासक मुबारक को मारकर (१३२० ई.) गद्दी पर बैठनेवाले सरदार खुसरो को भी गयासुद्दीन ने पराजित किया। तदनन्तर अमीरों ने गयासुद्दीन को ही गद्दी पर बैठा दिया। उसने तुगलक वंश की स्थापना की। गद्दी पर बैठने के बाद उसने केवल ५ वर्ष शासन किया लेकिन अपने अल्पकालीन शासन में ही दिल्ली के सुल्तानों की सैनिक शक्ति को पुनर्गठित किया। वारंगल के काकतीय राजा प्रतापरुद्रदेव द्वितीय को पराजित किया, और बंगाल के विद्रोही हाकिम गयासुद्दीन बहादुर को हराया। इसके अलावा उसने गैरकानूनी भूमि अनुदानों को छीनकर, योग्य और ईमानदार हाकिमों को नियुक्त करके, लगान वसूली में मनमानी बंद करके, कृषि को प्रोत्साहित कर, सिंचाई के साधन प्रस्तुत कर, न्याय एवं पुलिस-व्यवस्था में सुधार करके, गरीबों के लिए सहायता की व्यवस्था करके तथा डाक व्यवस्था को विकसित करके राज्यव्यवस्था को आदर्श रूप दिया। उसने विद्वानों का भी संरक्षण किया, जिनमें अमीर खुसरो मुख्य था। एक दुर्घटना के कारण गयासुद्दीन के शासन का अंत हो गया, जिसके लिए कुछ इतिहासकारों ने उसके पुत्र जूना खाँ (दे.) को ही जिम्मेदार बताया है, जो बाद में मुहम्मद तुगलक के नाम से गद्दी पर बैठा।

गयासुद्दीन बलबन
देखिये, 'बलवन'।

गयासुद्दीन बहमनी
दक्षिण के बहमनी वंश का छठा सुल्तान, जिसने १३९७ ई. में कुछ महीने तक ही शासन किया। उसे अंधा करके गद्दी से उतार दिया गया।

गयासुद्दीन बहादुर
बंगाल के सूबेदार शम्सुद्दीन फीरोज़शाह के पाँच पुत्रों में से एक। वह १३१० ई. से पूर्वी बंगाल पर स्वतंत्र सुल्तान की भाँति शासन कर रहा था। १३१८ ई. में शम्सुद्दीन के मरने पर गयासुद्दीन बहादुर ने भी अपने को बंगाल की गद्दी का हकदार बताया किंतु वह पराजित हो गया। १३२४ ई. में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने उसे कैद कर लिया। गयासुद्दीन बहादुर की मृत्यु कैदखाने में हुई।

गयासुद्दीन महमूद शाह
हुसेनशाही वंश का अंतिम सुल्तान। इस वंश ने १४९३ से १५३८ ई. तक राज्य किया। गयासुद्दीन १५३३ ई. में बंगाल की गद्दी पर बैठा किन्तु वह केवल ५ वर्ष शासन कर सका, क्योंकि शेर खाँ सूरी (दे.) ने उसे बंगाल से खदेड़ दिया।

गवर्नर-जनरल
ब्रिटिश भारत का सर्वोच्च अधिकारी। १७७३ ई. के रेगुलेटिंग ऐक्ट (दे.) के अंतर्गत इस पद की सृष्टि की गयी थी। सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स इस पद पर नियुक्त हुआ। वह १७७४ से १७८६ ई. पद पर रहा। इस पद का पूरा नाम "बंगाल में फोर्ट विलियम का गवर्नर-जनरल" था जो १८३४ ई. तक रहा। १८३३ ई. के चार्टर ऐक्ट के अनुसार इस पद का नाम 'भारत का गवर्नर-जनरल' हो गया। १८५८ ई. में जब भारत का शासन कम्पनी के हाथ से ब्रिटेन की महारानी के हाथ में आ गया तब गवर्नर-जनरल को 'वाइसराय' (राज-प्रतिनिधि) भी कहा जाने लगा। जबतक भारत पर ब्रिटिश शासन रहा तबतक भारत में कोई भारतीय गवर्नर-जनरल या वाइसराय नहीं हुआ। १७७३ ई. के रेगुलेटिंग ऐक्ट में गवर्नर जनरल के अधिकारों और कर्त्तव्यों का विवरण दिया हुआ है। बाद में पिट के इंडिया ऐक्ट (१७८४) तथा पूरक ऐक्ट (१७८६) के अनुसार इन अधिकारों और कर्त्तव्यों को बढ़ाया गया। गवर्नर-जनरल अपनी कौंसिल (परिषद) की सलाह एवं सहायता से शासन करता था, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर वह परिषद् की राय की उपेक्षा भी कर सकता था। इस व्यवस्था से गवर्नर-जनरल व्यवहारतः भारत का भाग्य विधाता होता था। केवल सुदूर स्थित ब्रिटेन की संसद और भारतमंत्री ही उस पर नियंत्रण रख सकते थे। क्रमानुसार निम्नलिखित गवर्नर जनरल हुए :
वारेन हेस्टिंग्स, लार्ड कार्नवालिस, सर जान शोर, लार्ड वेलेस्ली, लार्ड कार्नवालिस, सर जान शोर, लार्ड वेलेस्ली, लार्ड कार्नवालिस (द्वितीय), लार्ड मिण्टो (प्रथम), लार्ड हेस्टिंग्स, लार्ड एमर्हस्ट, लार्ड विलियम बेंटिक, लार्ड आकलैंड, लार्ड एलेनबरो, लार्ड हार्डिंग (प्रथम), लार्ड डलहौजी, लार्ड केनिंग, लार्ड एलगिन (प्रथम), लार्ड लारेंस, लार्ड मेयो, लार्ड नार्थब्रुक, लार्ड लिटन (प्रथम), लार्ड रिपन, लार्ड डफरिन, लार्ड लैंसडाउन, लार्ड एलगिन (द्वितीय), लार्ड कर्जन, लार्ड मिण्टो (द्वितीय), हार्डिंग (द्वितीय), लार्ड चेम्सफोर्ड, लार्ड रीडिंग, लार्ड इरविन, लार्ड विलिंगटन, लार्ड लिनलिथगो, लार्ड वावेल तथा लार्ड माउण्टबैटन।
भारत के स्वाधीन होने पर श्री राजगोपालाचार्य गवर्नर जनरल के पद पर २५ जनवरी १९५० तक रहे। उसके बाद २६ जनवरी १९५० को भारत के गणतंत्र बन जाने पर गवर्नर-जनरल का पद समाप्त कर दिया गया। लार्ड विलियम बेंटिक बंगाल में फोर्ट विलियम का अंतिम गवर्नर जनरल था। वही फिर १८३३ ई. के चार्टर एक्ट के अनुसार भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल बना। लार्ड केनिंग १८५८ के भारतीय शासन-विधान के अनुसार प्रथम वाइसराय था तथा लार्ड लिनलिथगो अंतिम वाइसराय। लार्ड माउण्टबेटेन ब्रिटिश सम्राट् का अंतिम प्रतिनिधि था। (विस्तार के लिए उक्त नामों के अंतर्गत अन्यत्र देखिये। )

वारेन हेस्टिंग्स, लार्ड कार्नवालिस, सर जान शोर, लार्ड वेलेस्ली, लार्ड कार्नवालिस, सर जान शोर, लार्ड वेलेस्ली, लार्ड कार्नवालिस (द्वितीय), लार्ड मिण्टो (प्रथम), लार्ड हेस्टिंग्स, लार्ड एमर्हस्ट, लार्ड विलियम बेंटिक, लार्ड आकलैंड, लार्ड एलेनबरो, लार्ड हार्डिंग (प्रथम), लार्ड डलहौजी, लार्ड केनिंग, लार्ड एलगिन (प्रथम), लार्ड लारेंस, लार्ड मेयो, लार्ड नार्थब्रुक, लार्ड लिटन (प्रथम), लार्ड रिपन, लार्ड डफरिन, लार्ड लैंसडाउन, लार्ड एलगिन (द्वितीय), लार्ड कर्जन, लार्ड मिण्टो (द्वितीय), हार्डिंग (द्वितीय), लार्ड चेम्सफोर्ड, लार्ड रीडिंग, लार्ड इरविन, लार्ड विलिंगटन, लार्ड लिनलिथगो, लार्ड वावेल तथा लार्ड माउण्टबैटन।

भारत के स्वाधीन होने पर श्री राजगोपालाचार्य गवर्नर जनरल के पद पर २५ जनवरी १९५० तक रहे। उसके बाद २६ जनवरी १९५० को भारत के गणतंत्र बन जाने पर गवर्नर-जनरल का पद समाप्त कर दिया गया। लार्ड विलियम बेंटिक बंगाल में फोर्ट विलियम का अंतिम गवर्नर जनरल था। वही फिर १८३३ ई. के चार्टर एक्ट के अनुसार भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल बना। लार्ड केनिंग १८५८ के भारतीय शासन-विधान के अनुसार प्रथम वाइसराय था तथा लार्ड लिनलिथगो अंतिम वाइसराय। लार्ड माउण्टबेटेन ब्रिटिश सम्राट् का अंतिम प्रतिनिधि था। (विस्तार के लिए उक्त नामों के अंतर्गत अन्यत्र देखिये। )

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गवर्नर-जनरल के कानून
वे कानून जिन्हें गवर्नर-जनरल, भारतीय शासन-विधान (१९३५) के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों के अनुसार बना-बनाकर लागू करता था। ये कानून केवल ६ माह तक वैध माने जाते थे। गवर्नर-जनरल जिन कानूनों को बनाना जरूरी समझता था किन्तु जिन पर विधान-मंडल की स्वीकृति नहीं मिल पाती थी, उन्हें गवर्नर-जनरल कानून बना सकता था।

गवासपुर
अंग्रेजी शासन के समय आधुनिक उत्तर प्रदेश का एक छोटा-सा राज्य, जो १८१८ ई. में पिण्ढारी नेता करीम खां को अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण कर देने के बाद दे दिया गया था। उसके वंशज पिछले समय तक इस रियासत पर शासन करते रहे।

गांगेयदेव कलचूरि
यमुना और नर्मदा नदियों के बीच में स्थित चेदि (दे.) का राजा (लगभग १०१५-४० ई.)। वह योग्य और महत्त्वाकांक्षी शासक था, जिसने 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण करते हुए उत्तर भारत में सर्वशक्तिमान् सार्वभौम सम्राट् की स्थिति प्राप्त करने की कोशिश की। उसे इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली। १०१२९ ई. में उसने सुदूर तिरहुत (आधुनिक उत्तरी बिहार) पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की। उसने पश्चिमोत्तर के विदेशी हमलावरों और बंगाल के पाल राजाओं से प्रयाग और वाराणसी नगरों की रक्षा की। उसके बाद उसका पुत्र कर्ण या लक्ष्मीकर्ण (लगभग १०४०-७० ई.) गद्दी पर बैठा।

गांधी, मोहनदास करमचंद
महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध, जन्म २ अक्तूबर १८६९ ई. को पश्चिमी भारत के पोरबंदर नामक स्थान में। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले पोरबंदर रियासत के दीवान थे और बाद को क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई (कस्तूरबा) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधू की अवस्था लगभग समान थी। दोनों ने ६२ वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया। १९४४ ई. में पूना की ब्रिटिश जेल में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ। गांधीजी अठारह वर्ष की आयु में एक पुत्र के पिता हो गये थे और अगले वर्ष इंग्लैण्ड चले गये, जहाँ तीन वर्षों (१८८८-९१) तक रहकर उन्होंने 'बैरिस्टरी' पास की। भारत लौटने पर उन्होंने राजकोट और बम्बई में वकालत शुरू की, किन्तु इसमें उन्हें विशेष सफलता न मिली।
इसलिए सन् १८९२ में जब दक्षिण अफ्रीका में व्यापार करनेवाले एक भारतीय मुसलमान (मेमन) व्यापारी ने उनके सामने अपने मुकदमें देखने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और सन् १८९३ में वे दक्षिण अफ्रीका चले गये। वहाँ पहुँचते ही उन्हें दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ किये जानेवाले अपमानजनक व्यवहार के कटु अनभवें हुए। एक बार वे डरबन से प्रिटोरिया तक रेलवे द्वारा प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। रास्ते में मेरित्सबर्ग पर एक गोरा उनके डिब्बे में घुसा और उसने स्थानीय पुलिस की सहायता से उन्हें धक्का देकर डिब्बे से नीचे उतार दिया, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में किसी भी भारतीय को, चाहे वह कितना ही धनी और प्रतिष्ठित क्यों न हो, गोरों के साथ प्रथम श्रेणी में यात्रा करने की अनुमति नहीं थी। मेरित्सबर्ग-कांड ने गांधीजी की जीवनयात्रा को एक नयी दिशा दी। उन्होंने स्वयं इस घटनाका विवरण इस प्रकार लिखा है-- "मेरित्सबर्ग में एक पुलिस कांस्टेबुल ने मुझे धक्का देकर ट्रेन से बाहर निकाल दिया। ट्रेन चली गयी। मैं विश्रामकक्ष में जाकर बैठ गया। मैं ठंड से काँप रहा था। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा असबाब कहाँ पर है और न मैं किसी से कुछ पूछने की हिम्मत कर सकता था कि कहीं फिर बेइज्जती न हो। नींद का सवाल ही नहीं था। मेरे मन में ऊहापोह होने लगी। काफी रात गये मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि भारत वापस भाग जाना कायरता होगी। मैंने जो दायित्व अपने ऊपर लिया है, उसे पूरा करना चाहिए।" मेरित्सबर्ग-कांड के बाद उन्होंने अपने मन में दक्षिणी अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को अपमान की उस जिन्दगी से उबारने का संकल्प किया, जिसे वे लम्बे अरसे से झेलते चले आ रहे थे। इस संकल्प के बाद गांधीजी अगले बीस वर्षों (१८९३-१९१४) तक दक्षिणी अफ्रीका में रहे और शीघ्र ही वहाँ इनके नेतृत्व में उत्पीड़ित भारतीयों पर लगे सारे प्रतिबंधों को हटाने के लिए एक आंदोलन छिड़ गया। इस आंदोलन को सफल बनाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत छोड़ दी और ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर अपने परिवार और मित्रों के साथ टालस्टाय आश्रम की स्थापना करके वहीं रहने लगे। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता की तो उन्होंने टीका भी की। उन्हें इन ग्रंथों के अध्ययन से विश्वास हो गया कि परमार्थका जीवन ही सच्चा जीवन है, मनुष्य को खुद मेहनत करके अपनी रोजी कमानी चाहिए और जहाँतक हो सके मशीनों पर कम से कम आश्रित होना चाहिए। उन्होंने सन् १८९४ में नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और दक्षिण अफ्रीका के लम्बे आंदोलन के दौरान उन्होंने, उनकी पत्नी ने और उनके साथियों ने कई बार जेलयात्रा की। एक अवसर पर कुछ गोरों ने, जो दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी की मौजूदगी नापसंद करते थे, उनपर हमला कर दिया। एक अन्य अवसर पर कुछ पठानों ने उनपर हमला कर दिया क्योंकि उन्होंने दक्षिणी अफ्रीकी नेता जनरल स्मट्स के साथ एक समझौते का समर्थन किया था। बाद में जनरल स्मट्स ने अपना वचन भंग कर दिया। सन् १८९९-१९०२ के दक्षिण अफ्रीकी-युद्ध और १९०६ के जुलू-विद्रोह के दौरान गांधीजी ने घायल ब्रिटिश सैनिकों की शुश्रूषा के लिए, भारतीयों की एक एम्बुलेंस कोर का गठन किया। गांधीजी संकट की घड़ी में ब्रिटिश साम्राज्य की सहायता करना भारतीयों का कर्त्तव्य समझते थे, किन्तु ब्रिटिश साम्राज्यवादी इससे प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने उल्टे कई दमनात्मक कानूनों के ऊपर एक नया कानून बना दिया कि ट्रांसवाल में रहनेवाले प्रत्येक भारतीय को परिवार के प्रत्येक सदस्य के साथ अपना नाम पंजीकृत कराना होगा और उसे अपने साथ हर वक्त निजी परिचयपत्र रखना होगा। इस अपमानजनक कानून के विरुद्ध गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के बीच एक सशक्ता आंदोलन का संचालन किया जो अहिंसक सविनय अवज्ञा पर आधारित था। उनके नेतृत्व में अनेक भारतीयों ने अपना नाम पंजीकृत कराने से इनकार कर दिया और बार-बार कानून का उल्लंघन करते हुए ट्रांसवाल सीमा को पार किया। गांधीजी के नेतृत्व में लगभग दो हजार भारतीयों ने इस सिलसिले में अपने को गिरफ्तार कराया। इस विरोध के फलस्वरूप दक्षिणी अफ्रीकी सरकार को सन् १९१४ में अधिकाश काले कानूनों को रद्द करना पड़ा और गांधीजी एवं उनके अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन को यह पहली महान सफलता प्राप्त हुई।
सन् १९१४ में गांधीजी भारत वापस लौट आये। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें 'महात्मा' पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा स्वयं को व उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका अनुगमन करना चाहते थे। इस दौरान गांधीजी मूक पर्यवेक्षक नहीं रहे। सन् १९१७ में वे उत्तरी बिहार के चम्पारन जिले में गये और वहाँ सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से उन्होंने उत्पीड़ित किसानों के मन में नया साहस और विश्वास भरा तथा निलहे गोरों के हाथों अरसे से हो रहा किसानों का शोषण समाप्त किया। इसके शीघ्र बाद गांधीजी ने अहमदाबाद के मिल मजदूरों का नेतृत्व किया। इन मजूदरों को बहुत कम वेतन मिलता था। उन्होंने उनकी हड़ताल संगठित की जो २१ दिनों तक चली और अंततः मालिक-मजदूरों, दोनों को ही पंच-निर्णय का सिद्धांत स्वीकार करना पड़ा। मार्च सन् १९१९ में केन्द्रीय विधानमंडल द्वारा सभी भारतीय सदस्यों के संयुक्त विरोध के बावजूद रौलट बिल (दे.) पास कर दिये जाने और अप्रैल १९१९ में जालियांवाला बाग हत्याकांड (दे.) के बाद गांधीजी ने भारत में ब्रिटिश सरकार को 'शैतान' की संज्ञा दी और भारतीयों से अपील की कि वे सभी सरकारी पदों से इस्तीफा दे दें, ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल और कालेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह अपंग बना दें। गांधीजी के इस आह्वान पर रौलट कानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी प्रमुख नगरों में ३० मार्च १९१९ को और गाँवों में ६ अप्रैल १९१९ को हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया, व्यापार बंद रहा और अंग्रेज अफसर असहाय-से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी। सन् १९२० में गांधीजी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्देश और उनकी प्रेरणा से हजारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हजारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूंस दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये। ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गांधीजी को अच्छा न लगा। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने "हिमालय जैसी भूल" की है और यह सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप जिस 'स्वराज्य' को गांधीजी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था वह नहीं आ सका, फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते थे, क्योंकि असलियत में देखा जाय तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों का खौफ निकालकर उन्हें निडर बनाया, जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी अभी संघर्ष कठिन और लंबा था। सन् १९२२ में गांधीजी को राजद्रोह के अभियोग में गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर मुकदमा चलाया गया और एक मधुरभाषी ब्रिटिश जज ने उन्हें ६ वर्ष कैद की सजा दे दी। सन् १९२४ में एपेण्डेसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया।
गांधीजी का विश्वास था कि भारत की भावी राजनीतिक प्रगति हिन्दू-मुस्लिम एकता पर निर्भर करती है। वे इस एकता की स्थापना के लिए सन् १९१८ से बराबर प्रयत्नशील रहे। उन्होंने इस्लामी देशों की एकता के प्रतीक-स्वरूप तुर्की की खिलाफत के सवाल पर भारतीय मुसलमानों की माँगों का समर्थन किया किन्तु हिन्दू-मुसलिम एकता के उनके इन प्रयासों का कोई स्थायी असर न हुआ। सितम्बर सन् १९२४ में उन्होंने दिल्ली में मुस्लिम नेता मुहम्मद अली के निवास पर तीन हफ्ते का अनशन किया। उन्हें आशा थी कि यह उपवास हिन्दू और मुसलमानों में पूर्ण सौहार्द्र और सद्भवता स्थापित कर देगा। कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा भी कि उनके इस कठिन व्रत ने अपना लक्ष्‍य प्राप्त कर लिया, किन्तु पारस्परिक अविश्वास और हितों के संघर्ष से, जिसे भारत की अंग्रेज सरकार बराबर उभाड़ती और बढ़ावा देती रही, दोनों सम्प्रदाय जल्दी ही फिर एकता के पथ से भटक गये। गंधीजी ने हिन्दुओं से अपील की कि वे मुसलमानों द्वारा गोवध से उत्तेजित न हों और नमाज़ के समय मस्जिदों के सामने से बाजा बजाते हुए जुलूस आदि न निकालें। किन्तु गांधीजी के इन उपदेशों और अपीलों से मुसलमान संतृष्ट नहीं हुए क्योंकि हिन्दुओं के साथ उनके मतभेद गोवध और मस्जिदों के सामने बाजे के प्रश्न तक ही सीमित नहीं थे। इन मतभेदों की जड़ें गहरी थीं। मुसलमानों को भय था कि अंग्रेजों द्वारा सत्ता भारतीयों को हस्तांतरित किये जाने पर अल्पसंख्यक मुसलमानों पर हिन्दुओं का शासन स्थापित हो जायेगा, जो बहुत बड़ी संख्या में हैं। मुसलमानों के इस भय को अंग्रेज शासकों ने और अधिक भड़काया। सन् १९०९ और १९१९ के भारतीय शासन, विधानों के अंतर्गत केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत लागू करके उनके इस भय को साकार रूप दे दिया गया था। गांधीजी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के इस भय का निवारण न हो सका और न ही ऐसा कोई उपाय निकाला जा सका जिससे अल्पसंख्यक मुसलमानों को देश के प्रशासन में समान अधिकारों के लिए आश्वस्त किया जा सकता हो। बस, यहीं से पाकिस्तान की उत्पत्ति का बीज अंकुरित हुआ।
सन् १९२५ में जब अधिकांश कांग्रेसजनों ने १९१९ के भारतीय शासन-विधान द्वारा स्थापित कौंसिलों में प्रवेश करने की इच्छा प्रकट की, तो गांधीजी ने कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और उन्होंने अपने आगामी तीन वर्ष ग्रामोत्थान कार्य में लगाये। उन्होंने गाँवों की भयंकर निर्धनता को दूर करने के लिए चरखे पर सूत कातने का प्रचार किया और हिन्दुओं में व्याप्त छुआछूत को मिटाने की कोशिश की। अपने इस कार्यक्रम को गांधीजी 'रचनात्मक कार्यक्रम' कहते थे। इस कार्य्रक्रम के जरिये वे अन्य भारतीय नेताओं के मुकाबले, गाँवों में निवास करनेवाली देश की ९० प्रतिशत जनता के बहुत अधिक निकट आ गये। उन्होंने सारे देश में गाँव-गाँव की यात्रा की, गाँववालों की पोशाक अपना ली और उनकी भाषा में उनसे बातचीत की। इस प्रकार उन्होंने गाँवों में रहनेवाली करोड़ों की आबादी में राजनीतिक जागृति आंदोलन के स्तर से उठाकर देशव्यापी अदम्य जन-आंदोलन का रूप दे दिया। सन् १९२७ में गांधीजी ने फिर राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया क्योंकि उन्होंने देखा कि संवैधानिक विकास की मंद गति के कारण देश में हिंसा भड़क उठने की आशंका है। कांग्रेस पहले ही यह घोषणा कर चुकी थी कि उसका लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना है। गांधीजी के नेतृत्व में शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कि अगर ब्रिटिश सरकार तत्काल 'औपनिवेशिक स्वराज्य' प्रदान करने का वायदा नहीं करती है तो कांग्रेस सविनय-अवज्ञा का एक नया अहिंसक आंदोलन आरंभ करेगी। इस आंदोलन का नेतृत्व गांधीजी ने संभाल लिया और सन् १९३० में उन्होंने अपने कुछ चुने हुए अनुयायियों के साथ अहमदाबाद के निकट साबरमती आश्रम से दांडी तक पदयात्रा की और वहाँ समुद्रजल से नमक बनाया, जो तत्कालीन कानूनों के अनुसार अवैध और दंडनीय था। साबरमती से दांडी तक की यह नमक यात्रा; उनका अवज्ञा पूर्ण चुनौती से भरा क्रांतिकारी कदम था। इसका देशभर पर असाधारण प्रभाव पड़ा और शीघ्र ही हजारों भारतीयों ने विभिन्न कानूनों को तोड़ना शुरू कर दिया। देश में एक बार फिर तेजी से सत्याग्रह आंदोलन चल पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने पहले तो दमन और उत्पीड़न का अपना पुराना रास्ता अपनाया और हजारों की संख्या में लोगों को जेलों में ठूंस दिया, गांधीजी को भी कैद कर लिया; किन्तु बाद को उसने राजनीतिक बातचीत भी शुरू कर दी। सन् १९३१ और ३२ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि की हैसियत से गांधीजी ने, लंदन में होनेवाले दूसरे और तीसरे गोलमेज सम्मेलनों (दे.) में भाग लिया। गांधीजी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए जिसका विंस्टन चर्चिल ने खूब मजाक उड़ाया और उन्हें 'भारतीय फकीर' की संज्ञा दी गांधीजी ने ब्रिटिश सम्राट् से भी मुलाकात की। गोलमेज सम्मेलनों के नतीजों ने उन्हें निराश कर दिया और स्वदेश लौटते समय रास्ते में ही उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन फिर से छेड़ने की घोषणा कर दी। इस कारण भारत आते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मेकडोनाल्ड ने जिस समय अपना कुख्यात 'कम्युनल एवार्ड' (साम्प्रदायिक निर्णय) (दे.) दिया, गांधीजी उस समय जेल में थे। इस एवार्ड में केन्द्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों में न केवल मुसलमानों और ईसइयों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था वरन हिन्दूओं की परिगणित जातियों को भी अलग प्रतिनिधित्व दिया गया था। यह सवर्ण हिन्दूओं और परिगणित जातियों के बीच स्थायी दरार पैदा करने का कुचक्र था। गांधीजी ने इसके खतरे को समझा और विरोध-स्वरूप आमरण अनशन शुरू कर दिया। वे अछूतों को शेष हिन्दुओं से हमेशा के लिए अलग कर देने का विचार गवारा न कर सके। गांधीजी के अनशन के फलस्वरूप पूना-समझौता (दे.) हुआ जिसके अनुसार कुछ वर्षों के लिए दलित वर्गों के वास्ते कुछ स्थान आरक्षित रखने के साथ संयुक्त निर्वाचन-क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता और अखण्डता कायम रह सकी।
गांधीजी सन् १९३३ में रिहा हुए और इसके बाद अगले कुछ वर्षों तक उन्होंने अपने को अछूतोद्धार के काम में लगा दिया और इसके हेतु उन्होंने 'हरिजन' नामक एक पत्र निकाला। इस साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन वे आजीवन करते रहे।
जब दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा, गांधी जी ब्रिटेन को अपना नैतिक समर्थन देने के लिए तैयार हो गये और उन्होंने ऐसा कोई काम न करने का फैसला किया जिससे संकट की घड़ी में उसे परेशानी हो। इसी कारण उन्होंने जर्मनी या जापान की सैनिक सहायता से भारतीय स्वाधीनता प्राप्त करने के नेताजी सुभाषचंद्र वसु के प्रयासों का समर्थन नहीं किया। उन्होंने अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ इस बात पर सहमति प्रकट की कि अगर ब्रिटेन युद्ध के बाद भारत की पूर्ण स्वाधीनता देने का पक्का आश्वासन दे तो भारत उसके साथ पूरा सहयोग करेगा। लेकिन चुंकि ऐसा कोई आश्वासन नहीं मिला, इसलिए गांधीजी तथा कुछ उनके चुने हुए अनुयायियों ने 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' के नाम से एक नया आंदोलन शुरू कर दिया। परन्तु इस आंदोलन का ब्रिटिश सरकार पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इसलिए अगस्त सन् १९४२ में उन्होंने अंग्रेजों से भारत छोड़ने और भारतवासियों को तत्काल सत्ता हस्तातरित करने की मांग की। 'भारत छोड़ो' नारा शीघ्र ही देशभर में फैल गया। नौसेना तक इससे प्रभावित हुई। अंग्रेजों को एक बार फिर एक शक्तिशाली जन-आंदोलन का सामना करना पड़ा। हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया। सन् १९४२ में सभी कांग्रेसी नेताओं के साथ गांधीजी को भी कैद कर लिया गया। गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा भी गिरप्तार कर ली गयीं और सन् १९४४ में नजरबंदी की अवस्था में जेल के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गयी।
इसके बाद गांधीजी को शीघ्र ही रिहा कर दिया गया। ब्रिटेन और उसके मित्रराष्ट्रों की युद्ध में विजय हुई। भारत में आजादी की माँग को बराबर जोर पकड़ता देख ब्रिटेन ने महसूस किया कि उसके लिए अब भारत पर अपना आधिपत्य बनाये रखना सम्भव नहीं है। उसने भारतीयों के हाथों सत्ता सौंपने का फैसला किया। किन्तु उनके सामने प्रश्न यह था कि भारत को एक अखण्ड देश के रूप में स्वतंत्रता प्रदान की जाय या साम्प्रदायिक आधार पर उसके दो टुकड़े कर दिये जायँ। दोनों सम्प्रदायों के स्वार्थी नेताओं ने देश के अंदर सन् १९४६ में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे करवा दिये। गांधीजी देश के विभाजन और साम्प्रदायिक दंगे, दोनों के तीव्र विरोधी थे। उन्होंने बंगाल, बिहार और पंजाब में गाँव-गाँव जाकर लोगों को साम्प्रदायिक सौहार्द्र और राष्ट्रीय एकता का महत्त्व समझाया। किन्तु उनके प्रयास सफल न हुए। कांग्रेस के अंदर उनके साथियों ने देश को भारत और पाकिस्तान, दो पृथक् राष्ट्रों में बाँट देने के आधार पर स्वाधीनता स्वीकार कर ली और अंततः गांधीजी को भी उनकी बात मान लेनी पड़ी। भारत ने १५ अगस्त १९४७ को स्वाधीनता प्राप्त कर ली। किन्तु इसके तुरन्त बाद भयंकर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और पश्चिमी सीमा के दोनों ओर अल्पसंख्यक समुदायों पर जघन्य अत्याचार किये गये। दिल्ली भी इन दंगों से अछूती नहीं रही। गांधीजी ने साम्प्रदायिक वैमनस्य दूर करने के उद्देश्य से जनवरी सन् १९४८ में दिल्ली में पुनः अनशन आरम्भ किया। कुछ ही दिनों के अंदर एक समझौता हुआ और राजधानी में साम्प्रदायिक सौहार्द्र स्थापित हो गया। गांधीजी ने स्वयं हस्तक्षेप करके नवस्थापित भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को एक बहुत बड़ी धनराशि दिलवा दी। बहुत से हिन्दुओं के विचार से पाकिस्तान सरकार इस धनराशि के लिए कानूनी तौर से हकदार न थी। इस प्रकार कुछ हिन्दू लोग गांधीजी को भारत में हिन्दूराज की स्थापना में बाधक समझने लगे। गांधीजी के अंतिम उपवास के दस दिनों बाद ही ३० जनवरी १९४८ को एक धर्मान्ध हिन्दू ने दिल्ली में उन्हें उस समय गोली मार दी. जब वे अपनी दैनिक प्रार्थना-सभा में भाग लेने जा रहे थे।
अपने महान नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्माजी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, "हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।" महात्मा गांधी वास्तव में भारत के 'राष्ट्रपिता' थे। सत्ताइस वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अँधेरे से निकालकर आजाद्री के उजाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ भारत की सीमाओँ तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव संपूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा कि अर्नाल्‍ड टायनबी ने लिखा है- "हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन् वह भारत में गांधीजी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती है कि मानव इतिहास पर गांधी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज्यादा और स्थायी होगा।" (मोहनदास करमचंद गांधी-'आत्मकथा', डा. जी. तेन्दुलकर कृत 'महात्मा', लुई फिशर कृत 'लाइफ आफ गांधी', एच. मुखर्जी कृत 'गांधीजी', अर्नाल्ड टायनबी कृत 'स्टडी आफ हिस्ट्री' खण्ड १२)

सन् १९१४ में गांधीजी भारत वापस लौट आये। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें 'महात्मा' पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा स्वयं को व उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका अनुगमन करना चाहते थे। इस दौरान गांधीजी मूक पर्यवेक्षक नहीं रहे। सन् १९१७ में वे उत्तरी बिहार के चम्पारन जिले में गये और वहाँ सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से उन्होंने उत्पीड़ित किसानों के मन में नया साहस और विश्वास भरा तथा निलहे गोरों के हाथों अरसे से हो रहा किसानों का शोषण समाप्त किया। इसके शीघ्र बाद गांधीजी ने अहमदाबाद के मिल मजदूरों का नेतृत्व किया। इन मजूदरों को बहुत कम वेतन मिलता था। उन्होंने उनकी हड़ताल संगठित की जो २१ दिनों तक चली और अंततः मालिक-मजदूरों, दोनों को ही पंच-निर्णय का सिद्धांत स्वीकार करना पड़ा। मार्च सन् १९१९ में केन्द्रीय विधानमंडल द्वारा सभी भारतीय सदस्यों के संयुक्त विरोध के बावजूद रौलट बिल (दे.) पास कर दिये जाने और अप्रैल १९१९ में जालियांवाला बाग हत्याकांड (दे.) के बाद गांधीजी ने भारत में ब्रिटिश सरकार को 'शैतान' की संज्ञा दी और भारतीयों से अपील की कि वे सभी सरकारी पदों से इस्तीफा दे दें, ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल और कालेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह अपंग बना दें। गांधीजी के इस आह्वान पर रौलट कानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी प्रमुख नगरों में ३० मार्च १९१९ को और गाँवों में ६ अप्रैल १९१९ को हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया, व्यापार बंद रहा और अंग्रेज अफसर असहाय-से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी। सन् १९२० में गांधीजी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्देश और उनकी प्रेरणा से हजारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हजारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूंस दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये। ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गांधीजी को अच्छा न लगा। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने "हिमालय जैसी भूल" की है और यह सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप जिस 'स्वराज्य' को गांधीजी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था वह नहीं आ सका, फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते थे, क्योंकि असलियत में देखा जाय तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों का खौफ निकालकर उन्हें निडर बनाया, जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी अभी संघर्ष कठिन और लंबा था। सन् १९२२ में गांधीजी को राजद्रोह के अभियोग में गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर मुकदमा चलाया गया और एक मधुरभाषी ब्रिटिश जज ने उन्हें ६ वर्ष कैद की सजा दे दी। सन् १९२४ में एपेण्डेसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया।

गांधीजी का विश्वास था कि भारत की भावी राजनीतिक प्रगति हिन्दू-मुस्लिम एकता पर निर्भर करती है। वे इस एकता की स्थापना के लिए सन् १९१८ से बराबर प्रयत्नशील रहे। उन्होंने इस्लामी देशों की एकता के प्रतीक-स्वरूप तुर्की की खिलाफत के सवाल पर भारतीय मुसलमानों की माँगों का समर्थन किया किन्तु हिन्दू-मुसलिम एकता के उनके इन प्रयासों का कोई स्थायी असर न हुआ। सितम्बर सन् १९२४ में उन्होंने दिल्ली में मुस्लिम नेता मुहम्मद अली के निवास पर तीन हफ्ते का अनशन किया। उन्हें आशा थी कि यह उपवास हिन्दू और मुसलमानों में पूर्ण सौहार्द्र और सद्भवता स्थापित कर देगा। कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा भी कि उनके इस कठिन व्रत ने अपना लक्ष्‍य प्राप्त कर लिया, किन्तु पारस्परिक अविश्वास और हितों के संघर्ष से, जिसे भारत की अंग्रेज सरकार बराबर उभाड़ती और बढ़ावा देती रही, दोनों सम्प्रदाय जल्दी ही फिर एकता के पथ से भटक गये। गंधीजी ने हिन्दुओं से अपील की कि वे मुसलमानों द्वारा गोवध से उत्तेजित न हों और नमाज़ के समय मस्जिदों के सामने से बाजा बजाते हुए जुलूस आदि न निकालें। किन्तु गांधीजी के इन उपदेशों और अपीलों से मुसलमान संतृष्ट नहीं हुए क्योंकि हिन्दुओं के साथ उनके मतभेद गोवध और मस्जिदों के सामने बाजे के प्रश्न तक ही सीमित नहीं थे। इन मतभेदों की जड़ें गहरी थीं। मुसलमानों को भय था कि अंग्रेजों द्वारा सत्ता भारतीयों को हस्तांतरित किये जाने पर अल्पसंख्यक मुसलमानों पर हिन्दुओं का शासन स्थापित हो जायेगा, जो बहुत बड़ी संख्या में हैं। मुसलमानों के इस भय को अंग्रेज शासकों ने और अधिक भड़काया। सन् १९०९ और १९१९ के भारतीय शासन, विधानों के अंतर्गत केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत लागू करके उनके इस भय को साकार रूप दे दिया गया था। गांधीजी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के इस भय का निवारण न हो सका और न ही ऐसा कोई उपाय निकाला जा सका जिससे अल्पसंख्यक मुसलमानों को देश के प्रशासन में समान अधिकारों के लिए आश्वस्त किया जा सकता हो। बस, यहीं से पाकिस्तान की उत्पत्ति का बीज अंकुरित हुआ।

सन् १९२५ में जब अधिकांश कांग्रेसजनों ने १९१९ के भारतीय शासन-विधान द्वारा स्थापित कौंसिलों में प्रवेश करने की इच्छा प्रकट की, तो गांधीजी ने कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और उन्होंने अपने आगामी तीन वर्ष ग्रामोत्थान कार्य में लगाये। उन्होंने गाँवों की भयंकर निर्धनता को दूर करने के लिए चरखे पर सूत कातने का प्रचार किया और हिन्दुओं में व्याप्त छुआछूत को मिटाने की कोशिश की। अपने इस कार्यक्रम को गांधीजी 'रचनात्मक कार्यक्रम' कहते थे। इस कार्य्रक्रम के जरिये वे अन्य भारतीय नेताओं के मुकाबले, गाँवों में निवास करनेवाली देश की ९० प्रतिशत जनता के बहुत अधिक निकट आ गये। उन्होंने सारे देश में गाँव-गाँव की यात्रा की, गाँववालों की पोशाक अपना ली और उनकी भाषा में उनसे बातचीत की। इस प्रकार उन्होंने गाँवों में रहनेवाली करोड़ों की आबादी में राजनीतिक जागृति आंदोलन के स्तर से उठाकर देशव्यापी अदम्य जन-आंदोलन का रूप दे दिया। सन् १९२७ में गांधीजी ने फिर राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया क्योंकि उन्होंने देखा कि संवैधानिक विकास की मंद गति के कारण देश में हिंसा भड़क उठने की आशंका है। कांग्रेस पहले ही यह घोषणा कर चुकी थी कि उसका लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना है। गांधीजी के नेतृत्व में शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कि अगर ब्रिटिश सरकार तत्काल 'औपनिवेशिक स्वराज्य' प्रदान करने का वायदा नहीं करती है तो कांग्रेस सविनय-अवज्ञा का एक नया अहिंसक आंदोलन आरंभ करेगी। इस आंदोलन का नेतृत्व गांधीजी ने संभाल लिया और सन् १९३० में उन्होंने अपने कुछ चुने हुए अनुयायियों के साथ अहमदाबाद के निकट साबरमती आश्रम से दांडी तक पदयात्रा की और वहाँ समुद्रजल से नमक बनाया, जो तत्कालीन कानूनों के अनुसार अवैध और दंडनीय था। साबरमती से दांडी तक की यह नमक यात्रा; उनका अवज्ञा पूर्ण चुनौती से भरा क्रांतिकारी कदम था। इसका देशभर पर असाधारण प्रभाव पड़ा और शीघ्र ही हजारों भारतीयों ने विभिन्न कानूनों को तोड़ना शुरू कर दिया। देश में एक बार फिर तेजी से सत्याग्रह आंदोलन चल पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने पहले तो दमन और उत्पीड़न का अपना पुराना रास्ता अपनाया और हजारों की संख्या में लोगों को जेलों में ठूंस दिया, गांधीजी को भी कैद कर लिया; किन्तु बाद को उसने राजनीतिक बातचीत भी शुरू कर दी। सन् १९३१ और ३२ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि की हैसियत से गांधीजी ने, लंदन में होनेवाले दूसरे और तीसरे गोलमेज सम्मेलनों (दे.) में भाग लिया। गांधीजी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए जिसका विंस्टन चर्चिल ने खूब मजाक उड़ाया और उन्हें 'भारतीय फकीर' की संज्ञा दी गांधीजी ने ब्रिटिश सम्राट् से भी मुलाकात की। गोलमेज सम्मेलनों के नतीजों ने उन्हें निराश कर दिया और स्वदेश लौटते समय रास्ते में ही उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन फिर से छेड़ने की घोषणा कर दी। इस कारण भारत आते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मेकडोनाल्ड ने जिस समय अपना कुख्यात 'कम्युनल एवार्ड' (साम्प्रदायिक निर्णय) (दे.) दिया, गांधीजी उस समय जेल में थे। इस एवार्ड में केन्द्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों में न केवल मुसलमानों और ईसइयों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था वरन हिन्दूओं की परिगणित जातियों को भी अलग प्रतिनिधित्व दिया गया था। यह सवर्ण हिन्दूओं और परिगणित जातियों के बीच स्थायी दरार पैदा करने का कुचक्र था। गांधीजी ने इसके खतरे को समझा और विरोध-स्वरूप आमरण अनशन शुरू कर दिया। वे अछूतों को शेष हिन्दुओं से हमेशा के लिए अलग कर देने का विचार गवारा न कर सके। गांधीजी के अनशन के फलस्वरूप पूना-समझौता (दे.) हुआ जिसके अनुसार कुछ वर्षों के लिए दलित वर्गों के वास्ते कुछ स्थान आरक्षित रखने के साथ संयुक्त निर्वाचन-क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता और अखण्डता कायम रह सकी।

गांधीजी सन् १९३३ में रिहा हुए और इसके बाद अगले कुछ वर्षों तक उन्होंने अपने को अछूतोद्धार के काम में लगा दिया और इसके हेतु उन्होंने 'हरिजन' नामक एक पत्र निकाला। इस साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन वे आजीवन करते रहे।

जब दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा, गांधी जी ब्रिटेन को अपना नैतिक समर्थन देने के लिए तैयार हो गये और उन्होंने ऐसा कोई काम न करने का फैसला किया जिससे संकट की घड़ी में उसे परेशानी हो। इसी कारण उन्होंने जर्मनी या जापान की सैनिक सहायता से भारतीय स्वाधीनता प्राप्त करने के नेताजी सुभाषचंद्र वसु के प्रयासों का समर्थन नहीं किया। उन्होंने अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ इस बात पर सहमति प्रकट की कि अगर ब्रिटेन युद्ध के बाद भारत की पूर्ण स्वाधीनता देने का पक्का आश्वासन दे तो भारत उसके साथ पूरा सहयोग करेगा। लेकिन चुंकि ऐसा कोई आश्वासन नहीं मिला, इसलिए गांधीजी तथा कुछ उनके चुने हुए अनुयायियों ने 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' के नाम से एक नया आंदोलन शुरू कर दिया। परन्तु इस आंदोलन का ब्रिटिश सरकार पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इसलिए अगस्त सन् १९४२ में उन्होंने अंग्रेजों से भारत छोड़ने और भारतवासियों को तत्काल सत्ता हस्तातरित करने की मांग की। 'भारत छोड़ो' नारा शीघ्र ही देशभर में फैल गया। नौसेना तक इससे प्रभावित हुई। अंग्रेजों को एक बार फिर एक शक्तिशाली जन-आंदोलन का सामना करना पड़ा। हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया। सन् १९४२ में सभी कांग्रेसी नेताओं के साथ गांधीजी को भी कैद कर लिया गया। गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा भी गिरप्तार कर ली गयीं और सन् १९४४ में नजरबंदी की अवस्था में जेल के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गयी।

इसके बाद गांधीजी को शीघ्र ही रिहा कर दिया गया। ब्रिटेन और उसके मित्रराष्ट्रों की युद्ध में विजय हुई। भारत में आजादी की माँग को बराबर जोर पकड़ता देख ब्रिटेन ने महसूस किया कि उसके लिए अब भारत पर अपना आधिपत्य बनाये रखना सम्भव नहीं है। उसने भारतीयों के हाथों सत्ता सौंपने का फैसला किया। किन्तु उनके सामने प्रश्न यह था कि भारत को एक अखण्ड देश के रूप में स्वतंत्रता प्रदान की जाय या साम्प्रदायिक आधार पर उसके दो टुकड़े कर दिये जायँ। दोनों सम्प्रदायों के स्वार्थी नेताओं ने देश के अंदर सन् १९४६ में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे करवा दिये। गांधीजी देश के विभाजन और साम्प्रदायिक दंगे, दोनों के तीव्र विरोधी थे। उन्होंने बंगाल, बिहार और पंजाब में गाँव-गाँव जाकर लोगों को साम्प्रदायिक सौहार्द्र और राष्ट्रीय एकता का महत्त्व समझाया। किन्तु उनके प्रयास सफल न हुए। कांग्रेस के अंदर उनके साथियों ने देश को भारत और पाकिस्तान, दो पृथक् राष्ट्रों में बाँट देने के आधार पर स्वाधीनता स्वीकार कर ली और अंततः गांधीजी को भी उनकी बात मान लेनी पड़ी। भारत ने १५ अगस्त १९४७ को स्वाधीनता प्राप्त कर ली। किन्तु इसके तुरन्त बाद भयंकर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और पश्चिमी सीमा के दोनों ओर अल्पसंख्यक समुदायों पर जघन्य अत्याचार किये गये। दिल्ली भी इन दंगों से अछूती नहीं रही। गांधीजी ने साम्प्रदायिक वैमनस्य दूर करने के उद्देश्य से जनवरी सन् १९४८ में दिल्ली में पुनः अनशन आरम्भ किया। कुछ ही दिनों के अंदर एक समझौता हुआ और राजधानी में साम्प्रदायिक सौहार्द्र स्थापित हो गया। गांधीजी ने स्वयं हस्तक्षेप करके नवस्थापित भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को एक बहुत बड़ी धनराशि दिलवा दी। बहुत से हिन्दुओं के विचार से पाकिस्तान सरकार इस धनराशि के लिए कानूनी तौर से हकदार न थी। इस प्रकार कुछ हिन्दू लोग गांधीजी को भारत में हिन्दूराज की स्थापना में बाधक समझने लगे। गांधीजी के अंतिम उपवास के दस दिनों बाद ही ३० जनवरी १९४८ को एक धर्मान्ध हिन्दू ने दिल्ली में उन्हें उस समय गोली मार दी. जब वे अपनी दैनिक प्रार्थना-सभा में भाग लेने जा रहे थे।

अपने महान नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्माजी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, "हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।" महात्मा गांधी वास्तव में भारत के 'राष्ट्रपिता' थे। सत्ताइस वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अँधेरे से निकालकर आजाद्री के उजाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ भारत की सीमाओँ तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव संपूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा कि अर्नाल्‍ड टायनबी ने लिखा है- "हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन् वह भारत में गांधीजी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती है कि मानव इतिहास पर गांधी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज्यादा और स्थायी होगा।" (मोहनदास करमचंद गांधी-'आत्मकथा', डा. जी. तेन्दुलकर कृत 'महात्मा', लुई फिशर कृत 'लाइफ आफ गांधी', एच. मुखर्जी कृत 'गांधीजी', अर्नाल्ड टायनबी कृत 'स्टडी आफ हिस्ट्री' खण्ड १२)

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