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Bharatiya Itihas Kosh

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इम्पीरियल लायब्रेरी (अब राष्ट्रीय पुस्तकालय कहलाता है)
स्थापना वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा अपने शासनकाल (१८९९-१९०५ ई.) में। यह कलकत्ता में संप्रति बेलवेडियर में विद्यमान है जो पहले लेफ्टिनेंट-गवर्नर का निवासस्थान था। यह सार्वजनिक पुस्तकालय है जिसमें पुस्तकों का विशाल संग्रह है।

इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल
संघटन १८६१ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा। यह उस समय वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल (कार्यकारिणी समिति) ही थी, जिसका विस्तार करके छह से बारह मनोनीत सदस्य नियुक्त कर दिये गये थे। इनमें कम से कम आधे गैरसरकारी सदस्य होते थे। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के पहले तीन गैरसरकारी भारतीय सदस्य महाराज पटियाला, महाराज बनारस और ग्वालियर के सर दिनकर राव थे। उसके कानून बनाने के अधिकार अत्यंत सीमित थे। १८९२ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी। इसके अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बारह से बढ़ाकर सोलह कर दी गयी। इनमें अधिक से अधिक छह मनोनीत सरकारी सदस्य होते थे। दस गैरसरकारी सदस्यों में चार प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों द्वारा चुने जाते थे, एक कलकत्ता के चैम्बर आफ कामर्स (वाणिज्य संघ) द्वारा चुना जाता था और बाकी पाँच गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे। इम्पीरियल लेजिस्जिटिव कौंसिल के कार्यों का भी विस्तार किया गया। उसे बजट पर बहस करने और प्रश्न करने का अधिकार दे दिया गया।
१९०९ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में और परिवर्तन किया गया। उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर साठ कर दी गयी, जिनमें अट्ठाईस मनोनीत सरकारी सदस्य होते थे, पाँच मनोनीत गैरसरकारी सदस्य होते थे और सत्ताईस गैरसरकारी सदस्य प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों, मुसलमानों तथा वाणिज्य संघों के द्वारा चुने जाते थे। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के कार्यों का भी विस्तार किया गया। उसे बजट तथा कुछ सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दे दिया गया। प्रस्ताव सिफारिश के रूप में होते थे और सरकार उन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं थी। गवर्नर-जनरल अपने इच्छानुसार कौंसिल के अध्यक्ष के रूप में कार्य कर सकता था और किसी भी प्रस्‍ताव को पेश होने से रोक सकता था।
१९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट द्वारा और परिवर्तन किया गया। यह ऐक्ट मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट (दे.) पर आधृत था। ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्र में दो सदनों वाले विधानमंडल की स्थापना की गयी। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल को अब इंडियन लेजिस्लेटिव असेम्बली में विलीन कर दिया गया और उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर १४५ कर दी गयी। इनमें से १०५ सदस्य निर्वाचित होते थे। केन्द्रीय असेम्बली के कानून बनाने के अधिकारों का विस्तार कर दिया गया तथा प्रशासन पर उसका नियंत्रण बढ़ा दिया गया। (दे, ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत)

इम्पीरियल सर्विस कार्प्स
स्थापना लार्ड डफरिन (१८८४-८८ ई.) के प्रशासन काल में। इस योजना के अंतर्गत देशी रजवाड़ों में सैन्यसंग्रह किया जाता था। इन सेनाओं के अफसर भारतीय होते थे। आवश्यकता पड़ने पर साम्राज्य की सेवा के लिए इनको उपलब्ध किया जाता था। इन सेनाओं ने दोनों विश्वयुद्धों में भाग लिया और महत्त्वपूर्ण सेवाएँ कीं।

इम्पी, सर एलिजा ( १७३२-१८०९ ई.)
वेस्टमिनिस्टर में शिक्षा तथा गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स (दे.) का सहपाठी। 1773 ई. के रेग्युलेटिंग ऐक्ट द्वारा कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया और 1774 ई. में कलकत्ता पहुँचा। 1775 ई. में उसकी अध्यक्षता में नंदकुमार (दे.) के मुकदमे की सुनवाई हुई। उसने जालसाजी के अभियोग में उसे फॉंसी की सजा दी। बहुत से लोगों का विचार है कि इस मुकदमे में वारेन हेस्टिंग्स की मित्रता ने इम्पी को प्रभावित किया। 1777 ई. में वारेन हेस्टिंग्स के कथित इस्तीफे पर भी उसने उसके पक्ष में निर्णय दिया। उसने वारेन हेस्टिंग्स के विरोधी, फिलिप फ्रांसिस को ग्रांड कांड में 50,000 रु. हर्जाना देने का आदेश दिया। उसके नेतृत्व में 1779 ई. हर्जाना देनेका आदेश दिया। उसके नेतृत्व में 1779 ई. में सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकारक्षेत्र के प्रश्न पर कौंसिल से झगड़ा शुरू कर दिया, जो उसकी प्रतिष्ठा को गिरानेवाला था। वारेन हेस्टिंग्स ने जैसे ही उसे मुख्य न्यायाधीश के रूप में मिलनेवाले 8000 पौंड वार्षिक वेतन के अतिरिक्त 6000 पौंड वार्षिक वेतन पर सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया, यह झगड़ा समाप्त हो गया। पार्लियामेण्ट ने इस सारी कार्यवाही को अत्यन्त अनियमित ठहराया और १७८२ ई. में इम्पी को वापस बुला लिया। उसके विरुद्ध महाभियोग चलाने की कोशिश की गयी। उसने पार्लियामेण्ट के समक्ष अपनी सफाई पेश की और महाभियोग की कार्यवाही समाप्त करा दी। वह 1790 ई. में पार्लियामेण्ट का सदस्य चुना गया और 1796 ई. तक सदस्य रहा।

इम्मादि नरसिंह
विजयनगर (दे.) के सालुव वंश (१४८६-१५०३ ई.) का दूसरा और अंतिम राजा। उसने १४८६ ई. से १५०३ ई. के आसपास वीर नरसिंह द्वारा हत्या कर दिये जाने तक राज्य किया। उसकी गतिविधियों के बारे में कुछ पता नहीं है।

इर्विन, लार्ड, एडवर्ड फ्रेडरिक लिन्डले वुड
द्वितीय बाइकाउण्ट हैलिफैक्स का पुत्र। १८८१ ई. में जन्म। उसने ईटन में शिक्षा प्राप्त की और १९१० से १९२५ ई. तक ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का सदस्य रहा। इस दौरान ब्रिटिश मंत्रिमंडल के विविध पदों पर वह रहा। १९२५ ई. से १९३१ ई. तक वह भारत का वायसराय तथा गवर्नर-जनरल रहा। भारत के वायसराय के रूप में उसका कार्यकाल अत्यन्त तूफानी कहा गया। १९२० ई. में आरम्भ किया गया असहयोग आंदोलन (दे.) उस समय भी जारी था। १९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट की कार्यविधि का मूल्यांकन करने के लिए जो साइमन कमीशन (दे.) नियुक्त किया गया था, उसके सभी सदस्य अंग्रेज थे। उसमें कोई भी भारतीय सदस्य न नियुक्त किये जाने से सारे देश में गहरी राजनीतिक अशांति फैल गयी। लार्ड इर्विन ने भारतीय जनमत को शांत करने के उद्देश्य से ३१ अक्तूबर १९२९ को ब्रिटिश सरकार से परामर्श करके घोषणा की कि औपनिवेशक स्वराज्य की स्थापना भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक लक्ष्य है और साइमन कमीशन की रिपोर्ट मिलने के बाद पार्लियामेण्ट में नया भारतीय संवैधानिक बिल पेश किये जाने से पूर्व लंदन में सभी भारतीय राजनीतिक पार्टियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जायगा।
परंतु इसके बाद ही ब्रिटिश अधिकारियों ने औपनिवेशिक स्वराज्य की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कर दिया कि उसका आशय कनाडा जैसे औपनिवेशिक स्वराज्य प्राप्त देश का दर्जा प्रदान करना नहीं है बल्कि भारत को एक अधीनस्थ देश बनाये रखकर उसे स्वायत्तशासी सरकार प्रदान करना है। इस स्पष्टीकरण के फलस्वरूप लार्ड इर्विन की घोषणा भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को संतोष नहीं प्रदान कर सकी और १९२९ ई. में लाहैर अधिवेशन में घोषणा कर दी गयी कि काँग्रेस का ध्येय पूर्ण स्वाधीनता है। कांग्रेस ने अप्रैल १९३० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन आरम्भ कर दिया। गांधीजी ने अपने कुछ अनुयायियों के साथ दांडी की ओर कूच किया और जान बूझकर सरकार का 'नमक कानून' तोड़ा। यह 'नमक सत्याग्रह आंदोलन' शीघ्र ही सारे देश में फैल गया, जिससे भारी हलचल मच गयी। लार्ड इर्विन ने युक्तिपूर्वक स्थिति को सँभालने का प्रयास किया। एक ओर तो उसने कानून और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए राज्य की सारी शक्ति लगा दी तथा - काँग्रेस वर्किंग कमेटि के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया; दूसरी ओर वह महात्मा गाँधी से समझौता-वार्ता चलाता रहा। वह गाँधीजी से कई बार मिला और अंत में गाँधी-इर्विन समझौता हो गया।
इस समझौते के अनुसार काँग्रेस ने सत्याग्रह आंदोलन स्थगित कर दिया और वह गोलमेज-सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन में गाँधीजी को अपना एकमात्र प्रतिनिधि बनाकर भेजने को तैयार हो गयी। काँग्रेस ने इस सम्मेलन के भेजने को तैयार हो गयी। काँग्रेस ने इस सम्मेलन के पहले अधिवेशन का बहिष्कार किया था। उधर सरकार ने भी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। सिर्फ उन बंदियों को नहीं छोड़ा गया जिनपर हिंसात्मक उपद्रवों में भाग लेने के आरोप थे। गॉंधी-इर्विन समझौते के एक महीने बाद लार्ड इर्विन ने भारत के वायसराय के पद से अवकाश ग्रहण कर लिया और अपने उत्तराधिकारी लार्ड विलिंगडन पर यह भार छोड़ दिया कि वह चाहे तो उसकी नीति को आगे बढ़ाये और न चाहे तो समाप्त कर दे। भारत से अवकाश ग्रहण करने के बाद लार्ड इर्विन १९४० से १९४६ ई. तक अमेरिका में ब्रिटिश राजदूत रहा। १९४४ ई. में उसे अर्ल आफ हैलिफैक्स की पदवी प्रदान की गयी।

इलाहाबादकी सन्धि
१७६५ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से क्लाइव और बादशाह शाह आलम द्वितीय के मध्य हुई। इस सन्धि के द्वारा ईसट इंडिया कम्पनी ने कोड़ा और इलाहाबाद के जिलों को शाह आलम द्वितीय को लौटाना और उसे २६ लाख रुपये वार्षिक खिराज देना स्वीकार किया था और इसके बदले में बादशाह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) सौंप दी थी।

इलाही सन्
बादशाह अकबर ने १५८४ ई. में चलाया। यह सौर वर्ष पर आधृत था और अकबर के गद्दी पर बैठने के बाद पहले नौरोज अर्थात् ११ मार्च १५५६ ई. से प्रचलित किया गया। शाहजहाँ ने सिक्कों पर इस सन् को लिखने की प्रथा को निरुत्साहित किया और समाप्त कर दिया। औरंगजेब ने १६५८ ई. में गद्दी पर बैठने के बाद ही इस सन् का प्रयोग पूरी तरह से बन्द कर दिया।

इलियास शाह (हाजी या मलिक इलियास भी कहलाता था )
पश्चिमी बंगाल के स्वतंत्र बादशाह अलाउद्दीन अली शाह (१३३९-४५ ई.) का सौतेला भाई। उसके बाद १३४५ ई. के आसपास गद्दी पर बैठा और शमसुद्दीन इलियास शाह की पदवी धारण की। उसने १३५७ ई. तक शासन किया और १३५२ ई. में पूर्व बंगाल को जीता तथा उड़ीसा और तिरहुत से खिराज़ वसूल किया। उसने बनारस पर भी चढ़ाई करने की धमकी दी। इससे दिल्ली का सुल्तान फीरोज शाह तुगलक (१३५१-८८ ई.) भड़क उठा और उसने बंगाल पर हमला कर दिया। इलियास अपनी राजधानी पंडुआ से हटकर पूर्वी बंगाल के इकडला नामक स्थान पर चला गया। उसने सुल्तान की फौज को पीछे ढकेल दिया। उसका शासनकाल अत्यंत सफल रहा। उसने नया सिक्का चलाया और अपनी राजधानी में कई मसजिदें और इमारतें बनवायीं। उसकी मृत्यु राजधानी पंडुआ में १३५७ ई. में हुई। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों की एक लम्बी श्रुंखला १४९० ई. तक बंगाल का शासन करती रही। इन सबकी गणना बंगाल के इलियास शाही वंश में की जाती है।

इलोरा
महाराष्ट्र में पर्वतीय गुफाओं के लिए प्रसिद्ध ये गुफाएँ तीन वर्गों में विभाजित की गयी हैं और अलग अलग तीन धर्मों से सम्बन्धित हैं। दाहिनी ओर बौद्धों के चैत्य-सभाकक्ष हैं और सुदूर बायीं ओर जैनियों की गुफाएँ हैं। इन दोनों के मध्य में हिन्दू मंदिर हैं। इनमें सबसे बड़ा कैलास-मन्दिर (दे.) है जो राष्ट्रकट राजा कृष्ण (लगभग ७६०-७५ ई.) के आदेश पर बनाया गया था। केवल एक पहाड़ी चट्टान को काटकर बनाया गया यह अद्भुत मंदिर है। यह न केवल अपने आकार की गुरुता के लिए, वरन् अलंकरण के लिए भी प्रसिद्ध है। (केव.)


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