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Bharatiya Itihas Kosh

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आसफ खां
बादशाह अकबर (१५५६-१६०५ ई.) के शासनकाल के प्रारम्भ में कड़ा का सूबेदार था। १५६४ ई. में उसने अकबर के आदेश से गोंडवाना का राज्य जीता जो आधुनिक मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में था। उसने गोंडवाना की शासिका रानी दुर्गावती और उसके नाबालिग पुत्र राजा वीर नारायण को हराया। कुछ समय तक आसफ खाँ ने नये विजित क्षेत्र का प्रशासन चलाया लेकिन बाद में वहाँ से उसका तबादला कर दिया गया। १५७६ ई. में उसे राजा मानसिंह के साथ उस मुगल सेना का सेनापति बनाकर भेजा गया जिसने राणाप्रताप को हल्दीघाटी के युद्ध में अप्रैल १५७६ में पराजित किया।

आसफ खां
बादशाह अकबर के शासनकाल में फारस से भारत आनेवाले मिर्जा गियासबेग का पुत्र और मेहरुन्निसा का भाई था जो बादशाह जहाँगीर (१६०५-२७ ई.) की मलका नूरजहाँ के नाम से अधिक प्रख्यात है। आसफ खाँ शाही मुलाजमत में था और मुगल दरबार का एक प्रमुख ओहदेदार बन गया था। आसफ खाँ की बेटी मुमताज महल बादशाह जहाँगीर के तीसरे बेटे शाहजादा खुर्रम को ब्‍याही थी जो शाहजहाँ के नाम से प्रख्यात है। १६२७ ई. में जहाँगीर की मौत के बाद आसफ खाँ ने नूरजहाँ के उस षड्यंत्र को विफल कर दिया जिसके द्वारा वह जहाँगीर के सबसे छोटे बेटे शहरयार को बादशाह बनाना चाहती थी। शहरयार को नूरजहाँ की बेटी ब्याही थी। आसफ खाँने शाहजहाँ को बादशाह बनाने में सफलता प्राप्त की। बादशाह शाहजहाँ ने तख्त पर बैठने के बाद अपने ससुर आसफ खाँ को सल्तनत का वजीर बना दिया जिस पद पर वह मृत्युपर्यंत बना रहा।

आसफजाह (चिन किलिच खां)
मुगल अमीरों में तूरानी पार्टी का सरदार था। तूरानी मध्य एशिया के निवासी थे और मुगल बादशाहों के दरबार में उच्च पदों पर नियुक्त थे। आसफजाह का पूरा नाम मीर कमरुद्दीन चिन किलिच खाँ था। उसका बाप गाजीउद्दीन फीरोज खाँ जंग औरंगजेब के शासनकाल में भारत आया था और शाही मुलाजमत में उच्च पदों पर नियुक्त किया गया था। मीर कमरुद्दीन जब १३ वर्ष का था तभी शाही मुलाजमत में दाखिल हुआ। जल्दी ही उसने तरक्की की और उसे चिन किलिच खाँ की उपाधि मिली। औरंगजेब की मृत्यु के समय वह बीजापुर में शाही सेना का सेनापति था। औरंगजेब के बेटों में उत्तराधिकार के लिए जो युद्ध हुए, वह उनसे दूर रहा। जब औरंगजेब का बेटा और उत्तराधिकारी बादशाह बहादुरशाह (१७०७-१२ ई.) गद्दी पर बैठा तो उसने चिन किलिच खाँ को अवध का सूबेदार बनाया और उसको भी उसके बाप का गाजीउद्दीन फीरोज जंग खिताब दिया। बाद में १७१३ ई. में बादशाह फर्रुंखसियर (१७१३-१९ ई.) ने उसे दक्खिन का सूबेदार बनाया और निजामुल्मुल्क का खिताब दिया। दक्षिण में बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में उसने मराठों की बढ़ती हुई ताकत को रोकने की कोशिश की, लेकिन शीघ्र ही दिल्ली दरबार के प्रभावशाली सैयद बंधुओं (दे.) से, जिनके हाथ में बादशाह की नकेल थी, उसकी अनबन हो गयी। सैयद बंधुओं ने निजामुल्मुल्क का तबादला पहले मुरादाबाद और फिर मालवा कर दिया जहाँ उसने सैनिक शक्ति बटोरना शुरू कर दिया। इससे सैयद बंधुओं से शत्रुता और बढ़ गयी। अन्ततः निजामुल्मुल्क ने सैयद बंधुओं को पराजित कर दिया और उन्हें मरवा डाला। निजामुल्मुल्क को १७२० ई. में फिर से दक्खिन में बादशाह का प्रतिनिधि बना दिया गया। १७२१ ई. में बादशाह मुहम्मदशाह (१७१९-४८ ई.) ने उसे अपना वजीर बनाया लेकिन उसने १७२३ ई. में यह पद छोड़ दिया और १७२४ ई. में पुनः बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में दक्खिन लौट गया। बादशाह मुहम्मदशाह ने उसे इस पद से जबरन हटाने की कोशिश की, लेकिन उसमें बादशाह को सफलता नहीं मिली। तब उसने निजामुल्मुल्क को दक्षिण में अपना प्रतिनिधि मान लिया और उसे आसफजाह का खिताब दिया। अब वह दक्षिण का लगभग स्वतंत्र शासक हो गया और उसने हैदराबाद के निजाम वंश की स्थापना की। आसफजाह ने अपने राज्य में अच्छा शासन प्रबंध किया। पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) दक्षिण में उसका शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी था।
अतः उसने बाजीराव प्रथम के विरोधी मराठा सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े का समर्थन किया, लेकिन १७३१ ई. में दाभाड़े की पराजय और मृत्यु के बाद आसफजाह ने बाजीराव प्रथम से सुलह कर ली और उसे उत्तर की ओर बढ़ने की खुली छूट दे दी। किन्तु निजाम ने १७३७ ई. में इस सन्धि को तोड़ दिया और बादशाह मुहम्मदशाह के बुलावे पर वह उत्तर में पेशवा बाजीराव प्रथम के प्रसार को रोकने के लिए दिल्ली पहुँचा। लेकिन पेशवा बाजीराव प्रथम ने निजामल्मुल्क को भोपाल के निकट लड़ाई में पराजित कर दिया और इस शर्त पर सन्धि कर ली कि मालवा और नर्मदा से चम्बल तक के क्षेत्रपर उसका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया जाय। १७३९ ई. में जब नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला किया तो दिल्ली से दूर होने के कारण आसफजाह विनाश से बच गया और उस वजह से उसने दक्षिण में अपनी स्थिति और मजबूत कर ली। १७४८ ई. में ९१ वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हुई।

आसाम
भारतका पूर्वोत्तर राज्य जिसका विस्तार पश्चिममें संकोष नदीसे पूर्वमें सदियातक है। यह राज्य ब्रह्मपुत्र नदकी देन है। ब्रह्मपुत्र नदने उत्तरमें हिमालय और दक्,णमें आसामकी पहाड़ियोंके बीचमें बहते हुए एक उपजाऊ घाटी बना दी है जो आजकल आसाम कहलाती है। उसे महाभारतमें प्रागज्योतिष और पुराणोंमें कामरूप कहा गया है। मुसलमान इतिहासकारोंने उसे कामरूप लिखा है। जबसे इस क्षेत्रको अहोम (दे.) लोगोंने जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया तबसे यह क्षेत्र आसामके नामसे पुकारा जाने लगा है। इस क्षेत्रमें चारों ओरसे लोग आसानीसे प्रवेश कर सकते हैं इसीलिए सभी पड़ोसी क्षेत्रोंके बुभुक्षित और साहसी लोग सभी युगोंमें यहाँ आकर बसते रहे। इसी कारण यहाँकी आबादीमें बहुत अधिक रक्तका मिश्रण हुआ। यहाँ आश्ट्रिक, मंगोल और द्राविड़ जातियोंके लोग भी मिलते हैं और आर्य जातिके लोग भी। आसामकी आधुनिक आबादी बहुत मिलीजुली है और वहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें असमी और बंगला भाषाकी अपनी लिपियाँ हैं। दूसरी बोलियाँ और भाषाएं रोमन लिपिमें लिखी जाती हैं और उनका अपना कोई साहित्य नहीं है। आसामका इतिहास मोटे तौरसे चार कालोमें विभाजित किया जा सकता है-पौराणिक काल, प्रारम्भिक काल, अहोम काल और आधुनिक काल। पौराणिक कालमें आसाममें अनार्य लोगोंका राज्य था जिन्हें दानव और असुर कहा जाता था। इसी कालमें आर्य लोग उत्तर पश्चिमके स्थल मार्गसे यहाँ आये। प्रारम्भिक काल ईसाकी चौथी शताब्दीसे आरम्भ होता है और आसामका उल्लेख कामरूपके नामसे द्वितीय गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (३३०-८० ई.) के इलाहाबादके स्तम्भ-लेखमें आया है। यह काल १३वीं शताब्दीतक जारी रहा जब आसामपर पूर्वकी ओरसे अहोम जातिका और पश्चिमकी ओरसे मुसलमानोंका हमला हुआ। मुसलमानोंके आक्रमणोंको विफल कर दिया गया जिसके फलस्वरूप आसामके इतिहासमें मुसलमानी शासन-काल नहीं मिलता। अहोम लोगोंने इस क्षेत्रको जीत लिया और यहाँ करीब ६०० वर्षतक राज्य किया। उनके बाद बर्मी लोगोंने आसामको जीत लिया और यहाँ थोड़े समय तक राज्य किया। १८२६ ई. में आसामको भारतके ब्रिटिश राज्यका हिस्सा बना लिया गया। उसके बाद आसामके इतिहासका आधुनिक काल आरम्भ हुआ और वह राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टिसे भारतका आंतरिक भाग बन गया, हालाँकि सांस्कृतिक दृषअटिसे वह सदैव भारतका एक अंग रहा। पौराणिक कालका सबसे अधिक विख्यात राजा नरकासुर था जिसके सम्बन्धमें कहा जाता है कि वह बिहारके मिथिला नगरसे प्रागज्योतिषमें राज्य करने आया था। इसलिए यह माना जा सकता है कि उसके राज्य-कालसे आसामकी गणना आर्य-क्षेत्रमें होने लगी। नरकका नाम आसामके प्राचीन इतिहाससे, विशेषरूपसे कामाख्या देवीकी पूजा और गौहाटीके निकट नीलांचलपर उसके मंदिरके निर्माणसे जड़ा हुआ है। नरकासुरका पुत्र भागदत्त महाभारतमें महान योद्धा बताया गया है जिसने कुरुक्षेत्र युद्धमें कौरवों की ओरसे भाग लिया और मारा गया। उसका उत्तराधिकारी बज्रदत्त था और कहा जाता है कि बज्रदत्तके उत्तराधिकारियोंने कामरूपपर तीन हजार वर्षतक राज्य किया जो अतिशयोक्ति मालूम पड़ती है। ईसाकी चौथी शताब्दीमें कामरूपमें पुष्यवर्मा राज्य करता था। पुष्यवर्मा एक ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसका उल्लेख भास्कर वर्मा (दे.) (६०४-६४९ ई.) के निधानपुर दानपत्रमें १३ राजाओंके एक राजवंशके संस्थापकके रूपमें हुआ है। इन १३ राजाओंमें समुद्रवर्मा, बालवर्मा, कल्याणवर्मा, गणपतिवर्मा, महेन्द्रवर्मा, नारायणवर्मा, महभूतिवर्मा, अथवा भूतिवर्मा, चन्द्रमुखवर्मा, स्थितवर्मा, सुस्थितवर्मा, सुप्रतिष्टितवर्मा, और भास्करवर्मा शामिल हैं। पुष्यवर्मा कामरूपका उस समय राजा था जब द्वितीय गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (३३०-३८० ई.) ने वहाँ आक्रमण किया और इलाहाबादके स्तम्भ-लेखके अनुसार पुषअयवर्माने समुद्रगुप्तके सामने आत्म-समर्पण कर दिया। भास्कर वर्मा सम्राट हर्षवर्द्धनका सम-सामयिक था। इस बातका उल्लेख बाणके हर्ष-चरित्रमें आया है और हचुएन-त्सांगके यात्रा-वर्णनसे भी उसका पता चलता है। भास्कर वर्माका देहान्त ६४९ ई. में हर्षकी मृत्युके कुछ वर्षों बाद हुआ। उसके बाद कामरूप राज्य सातवीं शताब्दी के मध्यकालमें म्लेच्छ राजा सालस्तम्भके द्वारा स्थापित राजवंशके हाथमें चला गया। वह अपनी राजधानी प्रागज्योतिषपुर (गौहाटी) से हटाकर ब्रह्मपुत्रके किनारे हरूपेश्वर नामक स्थानपर ले गया। यह स्थान आधुनिक तेजपुरके निकट था। इस राजवंशके १३ राजा हुए जिनमें विजय, पालक, कुमार, वज्रदत्त, हर्प, बाल वर्मा, चक्र, प्रालम्म, हर्जर, वनमाल, जयमाल, बालवर्मा और त्याग सिंह शामिल हैं। इस राजवंशने सातवीं शताब्दीके मध्यसे १०वीं शताब्दीके मध्यतक राज्य किया। त्याग सिंह निःसन्तान मर गया। ब्रह्मपाल नामक एक व्यक्ति था जो अपनेको नरकासरका वंशज मानता था। उसे दसवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें कामरूपका राजा चुन लिया गया। ब्रह्मपालने कामरूपमें तीसरे हिन्दू राजवंशकी स्थापना की। यह पाल राजवंश बंगालके राजवंशसे भिन्न था और इसने यहाँ दसवीं शताब्दीके उत्तार्धसे १२वीं शताब्दीके आरम्भतक राज्य किया। इस राज वंशके रत्नपाल, इन्द्रपाल, गोपाल, हर्षपाल, धर्मपाल और जयपाल ६ राजा हुए। अन्तिम राजा जयपालको बंगालके राजा रामपालने गद्दीसे हटा दिया और कामरूपमें तिंग्य देवको अपना सामंत राजा नियुक्त किया जिसने शीघ्र ही रामपालके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अतएव बंगालके राजा कुमारपालका सेनापति वैद्यदेव वहाँका राजा बनाया गया। लेकिन वैद्यदेवने भी शीघ्र ही बंगालके राजाके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसके बाद करीब एक शताब्दीसे अधिक समय तक कामरूपमें अराजकता रही। इस कालमें बंगालका कोई सेनवंशी राजा जब-तब कामरूपपर चढ़ाई करके बहाँके राजाओंको जीत लेता था। इसी बीच इख्तियारुद्दीनने जो बख्तियार खिलजीके नामसे प्रसिद्ध है, बंगालके सेनवंशका तख्ता उलट दिया। बख्तियार खिलजीके नेतृत्वमें ११९८ ई. में बंगालपर मुसलमानों का पहला आक्रमण हुआ। उसने बंगालकी विजयके बाद १२०५ ई. में आसामपर भी चढ़ाई की। गौहाटीके निकट ब्रह्मपुत्र नदीके उसपार स्थित कनाड-बारसी बेर नामक गाँवमें एक चट्टानपर संस्कृतमें दो पंक्तियोंका एक लेख अंकित है जिसमें कहा गया है कि शक संवत ११२७ (१२०५ ई.) के चैत्र मासकी त्रयोदशीको जिन तुर्कोंने कामरूपपर आक्रमण किया था उनको नष्ट कर दिया गया। इस शिलालेखमें कामरूपके उस वीर योद्धा का नाम नहीं दिया है जिसने मुसलमानोंके आक्रमणको विफल कर दिया। इसके बाद हमें कामरूपके इतिहासकी विशेष जानकारी नहीं मिलती है और १३ वीं शताब्दीसे वहाँका इतिहास अंधकारमें है। यदि मुसलमानोंने १२०५ ई. में आसामपर पश्चिमकी ओरसे एक विफल आक्रमण किया तो १२२८ ई. में पूर्वी दिशासे अहोम लोगोंने उसपर हमला किया और उन्हें उसपर अपना अधिकार जमानेमें सफलता मिल गयी। दोनों ओरसे आक्रमण होनेपर कामरूपका राज्य खण्डित होकर अनेक छोटे-छोटे राज्योंमें बंठ गया। एकदम पश्चिममें कामतापुर राज्य करतोयासे संकोष नदीतक विस्तृत था और उसके पूर्वमें कामरूप राज्य ब्रह्मपुत्रके उत्तरी तटपर बर नदीसे सुवर्ण श्रीतक विस्तृत था जिसपर बारह भुड़याँ (भूमिपति) राज्य करते थे। सुवर्णशीके पूर्वमें ब्रह्मपुत्रके उत्तरी तटवर्ती क्षेत्रमें चुटिया राज्य था और उसके दक्षिण तटवर्ती क्षेत्रमें काचारी राज्य था। उसके दक्षिण पश्चिममें खासी लोगोंका जयन्तिया राज्य था। कामरूपका इस प्रकार छोटे-छोटे राज्योंमें बँटा होनेके कारण मुसलमानों और अहोम आक्रमण-कारियोंको उसपर अधिकार कर लेनेमें आसानी रही। उन लोगोंने करीब-करीब एक साथ पशअचिम तथा पूर्व दिशासे उसपर आक्रमण किया। पश्चिममें कामतापुर और कामरूपके राजाओंने मुसलमानी आक्रमणोंको १४९८ ई. तक रोका। उस वर्ष बंगालके हुसेनशाहने कामतापुर और कामरूप राज्योंको बर नदीतक जीत लिया और अपने लडकेको विजित क्षेत्रका सूबेदार बनाकर हाजोमें रख दिया। लेकिन १६वीं. शताब्दीके आरम्भमें कोच जातिके विश्व सिंह नामक एक सरदारने आधुनिक आसामके पश्चिमी भागमें एक हिन्दू राज्यकी स्थापना कर ली। उसने बारह भुइयोंको परास्तकर अपनी राजधानी कूच बिहारमें स्थापित की। उसने मुसलमानोंको करतोया नदीके उसपार भगा दिया और आधुनिक आसामके पश्चिमी भागमें जिनमें ग्वालपाडा, कामरूप और दारांग जिले आते हैं, हिन्दू राज्यकी फिरसे स्थापना की। कोच राजाओंने बंगालसे आनेवाले मुसलमान आक्रमणकारियोंसे दीर्घ कालतक युद्ध किया। अंतमें १५९६ ई. उन्हें मुगल बादशाह अकबरका संरक्षण स्वीकार कर लेना पड़ा। इस प्रकार केवल ग्वालपाडा जिला ही नहीं वरन् कामरूप जिलेका बहुत बड़ा भाग मुसलमानोंके नियंत्रणमें आगया। लेकिन अहोम राजाओंने, जिन्होंने आसामके पूर्वी क्षेत्रमें अपना राज्य स्थापित कर लिया था, मुसलमानोंसे कामरूप जिला फिरसे छीन लिया। प्रथम अहोम राजा सुकफ था जिसने १२२८ ई. में आसामपर आक्रमण किया और शिवसागरपर अधिकार करके वहाँ अपना राजवंश स्थापित किया। इस राजवंशने ब्रह्मपुत्र घाटीमें कामरूप जिलेतक करीब छह शताब्दी (१२२८ ई.से १८२४ ई.) तक राज्य किया। इस राजवंशके ३९ अहोम राजा हुए जिनमेंसे १७वें राजा सुसेंगफने अपना नाम संस्कृतमें प्रतापसिंह रखा। उसके उत्तराधिकारियोंने भी संस्कृत नाम अपनाये और उनमें प्रमुख जयध्वज सिंह, चक्रध्वज सिंह, उदयादित्य सिंह, रामध्वज सिंह, गदाधर सिंह, रुद्रसिंह, शिव सिंह, प्रमत्त सिंह, राजेशअवर सिंह, लख्मी सिंह, गौरीनाथ सिंह, कमलेश्वर सिंह, चन्द्रकान्त सिंह, पुरन्दर सिंह और जोगेश्वर सिंह थे। अहोम राजाओंकी आपसी फूट, विशेष रूपसे बड़ागुहाई (प्रधान मंत्री ) पूर्णानन्द और गौहाटीके बड़ फूकन (गवर्नर) बदनचंद्रकी आपसी फूटके कारण, बदनचन्द्रने बर्मी सरकारको आसाम विजयके लिए अपनी सेना भेजनेका निमंत्रण दिया। १८१६ ई. में बर्मी सेना आसाममें घुस आयी, किन्तु वह १८१६ ई. में बर्मी सेना आसाममें घुस आयी, किन्तु वह १८१९ ई. तक उसपर पूरी तरह कब्जा नहीं कर पायी और उसके बाद १८२४ ई. तक आसाममें बर्मी शासन रहा। बर्मी शासकोंने बड़ी सख्ती बरती और अत्याचार किये जिससे अहोम सरदारोंमें असंतोष फैल गया। भारतके अंग्रेज शासकोंको भी यह पसन्द नहीं था कि उनके राज्य की सीमाओंपर बर्मी राज्यका विस्तार हो। उस समयके अहोम राजा चन्द्रकांतने कई बार बर्मी आक्रमणकारियोंको आसामसे खदेड़ देनेका प्रयास किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली और अन्त्रमें वह बर्मी सेना द्वारा कैद कर लिया गया। इसके बाद ही बर्मी सेना द्वारा कैद कर लिया गया। इसके बाद ही बर्मी लोगों और भारतकी अंग्रेजी सरकारके बीच युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध केवल आसाममें ही नहीं वरन् बर्मामें भी हुआ, जिसमें अन्तमें बर्मी लोगोंकी पराजय हुई। उन्हें अंग्रेजोंसे चन्दवकी सन्धि (दे.) (१८२६ ई.) करनी पड़ी जिसके द्वारा बर्मी लोगोंने आसाम और पड़ोसके कछार और मणिपुर जिलोंसे अपना शासन हटा लिया। दक्षिणी आसामके कामरूप, दारांग और नवगांव जिलोंको भी अंग्रेजी राज्यमें मिला लिया गया। इन क्षेत्रोंको बंगालमें मिला लिया गया और उनका प्रशासन डेविड स्काटको सौंप दिया गया जो उस समय बंगालके ग्वालपाड़ा और गारो पहाड़ी जिलेका अधिकारी था। इस प्रकार बंगालके दो जिले आसामके साथ जुड़ गये। उत्तरी आसाम जिसमें आधुनिक शिवसागर जिला और सदिया और मटकको छोड़कर लखीमपुर जिला सम्मिलित था, पुराने अहोम राजवंशके वंशज पुरन्दर सिंहको सौंप दिया गया। लेकिन पुरन्दर सिंह शासकके रूपमें विफल रहा, इसलिए उसके राज्यको अर्थात् शिवसागर और लखीमपुर जिलोंको दक्षिणी आसाम के साथ जोड़कर १८३९ ई.से अंग्रेजी शासनके अधीन कर दिया गया। सदिया और मटकको भी, जो पहले दो अहोम सरदारोंको सौंप दिये गये थे, १८४३ ई.में अंग्रेजी शासनमें ले लिया गया और उनको आसामके लखीमपुर जिलेमें मिला दिया गया। १८७४ ई. तक आसामका प्रशासन बंगाल प्रान्तके अधीन रहा। उस वर्ष आसामके प्रशासनको सुधारनेके उद्देश्यसे उसे बंगाल प्रान्तसे हटाकर चीफ कमिश्नरके अधीन अलग प्रान्त बना दिया गया। उसी समय सिलहट, कछार, ग्वालपाड़ा जिले और गारो पहाड़ियोंका उत्तरी क्षेत्र आसाम राज्यमें मिला दिया गया और काफी बड़ी संख्यामें बंगाली-भाषी लोगोंको आसामका नागरिक बना दिया गया। तब (१८७४ ई.) से आसाम नाम, जो पहले अहोम लोगों द्वारा शासित पांच जिलोंकामरूप, दारांग, नवगरेव, शिव सागर और लखीमपुरके लिए प्रयुक्त होता था, सदियासे ग्वालपाड़ाक सारे क्षेत्रके लिए प्रयुक्त होने लगा जिसमें खासी और जयन्तिया पहाड़ी क्षेत्र, सूरमा घाटीके सिलहट और कछार जिलोंके अतिरिक्त बंगालके गारो पहाड़ियां तथा ग्वालपाड़ा जिलेमें सम्मिलित थे। इस प्रकार आसामकी मिली-जुली आबादी और अधिक मिश्रित हो गयी और उस क्षेत्के अंतर्गत तुलनात्मक दृष्टिसे अधिक पिछड़े पहाड़ी लोगोंके साथ अधिक उन्नत बंगाली-भाषी लोगोंको भी कर दिया गया। आसाममें हालमें भाषा-सम्बन्धी जो उपद्रव हुए उस विवादकी नींव उसी समय पड़ी थी। १९०५ ई.में बंगविभाजनके समय बंगालकी ढाका, चटगांव और राजशाही कमिश्नरियोंको आसामसे मिलाकर पूर्वी बंगाल तथा आसाम नामसे एक नया प्रान्त बना दिया गया और उसका प्रशासन एक अलग लेफ्टिनेन्ट-गवर्नरके अधीन कर दिया गया। छह वर्ष बाद बंग-भंग रद्द कर दिया गया। पूर्वी बंगाल फिरसे पश्चिमी बंगालसे जोड़ दिया गया और आसामको फिरसे चीफ कमिश्नरके अधीन अलग प्रान्त बना दिया गया और उसमें केवल खासी और जयन्तिया पहाड़ी जिलोंको ही नहीं वरन् बंगालके सिलहट, कछार, गारो पहाड़ी और ग्वालपाड़ा जिलोंको शामिल रखा गया। १९१२ ई. में आसामको गवर्नरके धीन प्रान्त बना दिया गया जिसकी सहायताके लिए कार्यकारिणी परिषद और विधानसभाका भी गठन किया गया। स्वतंत्रता-प्राप्तिके पश्चात् आसाम के गवर्नरके अधीन प्रान्तको अब राज्य कहा जाता है, किंतु देशके विभाजनके परिणाम-स्वरूप कीरमगंज तहसील को छोड़कर बाकी सिलहट जिला आसामसे निकालकर पूर्वी पाकिस्तानमें मिला दिया गया। इस प्रकार आसाम के वर्तमान भाषाई विवादकी शुरुआत बहुत कुछ इस प्रान्तको बनानेमें अंग्रेजों द्वारा की गयी गड़बड़ीसे हुई है। अंग्रेजोंने प्रशासनकी सुविधा अथवा तात्कालिक आवश्यकताओंको ध्यानमें रखकर इस प्रांतका निर्माण किया जिसमें अब परिवर्तन करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है। (राज्योंके पुनर्गठनके फलस्वरूप आसामकी सीमाओंमें काफी उलटफेर हो गया है। नागा पहाड़ी जिलेको, जो पहले आसाम प्रांतका भाग था, अब नागालैंड नामके अलग राज्यमें शामिल कर दिया गया है। खासी तथा जयंतिया पहाड़ी तथा गारो पहाड़ी जिलोंको अब आसामसे अलग करे मेघालय नामसे अलग राज्य बना दिया गया है। भूतपूर्व मिजो पहाड़ी जिलेको भी अब मिजोराम नामसे अलग राज्य बना दिया गया है।
अब भारत के पूर्वांचल में निम्न राज्य हैं -- आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर तथा त्रिपुरा तथा मिजोरम एवं अरुणाचल प्रदेश (भूतपूर्व उत्तर-पूर्व सीमा एजेंसी) के केन्द्र शासित क्षेत्र। -संपादक)
(कल्किपुराण, योगिनी तंत्र, काकटी-मदर गाडेस कामाख्या एंड असामीज ; इट्स फार्मेशन एंड डेवलपमेन्ट ; के. एल. बरुआ-हिस्ट्री आफ कामरूप; पी. भट्टाचार्य कामरूप शासनावाली; वी. के. बरुआ-कल्चरलर हिस्ट्री आफ आसाम; एम. भट्टाचार्य-हेट आफ दि निधानपुर कापर प्लेट, जनरल आफ इंडियन हिस्‍ट्री खंड ३१, अगस्त १९५३ पृष्ठ १११-१७; सर एडवर्ड गेट-हिस्ट्री आफ असाम; गोलपचन्द्र बरुआ-अहोम-बुरंजी; एस. के. भुइयां-बुरंजीज एंड एंग्लो-असामी रिलेशंस।)

आस्टेंड कम्पनी
भारत से व्यापार करने के लिए बेलियन लोगों द्वारा स्थापित। इसकी स्थापना अंतरराष्ट्रीय पूंजी से हुई थी और आस्ट्रिया के सम्राट् चार्ल्स छठे ने १७२२ ई. में कम्पनी को आज्ञापत्र प्रदान किया था। डच, अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनियों ने तथा उनकी सरकारों ने इस कम्पनी का तीव्र विरोध किया था। डच, अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनियों ने तथा उनकी सरकारों ने इस कम्पनी का तीव्र विरोध किया था। इस तीव्र विरोध के कारण सम्राट् चार्ल्स छठे ने १७३१ ई. में कम्पनी बंद करवा दी थी। परन्तु कानूनी तौर से आस्टेंड कम्पनी १७९३ ई. तक वर्तमान रही।

आस्ट्रिया के उत्‍तराधिकार का युद्ध
यूरोप में १७४० ई. में शुरू हुआ और १७४८ ई. तक चला। उस वर्ष एक्स-ला-चेपेल की सन्धि से वह खत्म हो गया। इस युद्ध में इंग्लैण्ड और फ्रांस ने दो विरोधी पक्षों का समर्थन किया और भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कर्नाटक में एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने फ्रांसीसी हितों की रक्षा के निमित्त मद्रास की अंग्रेजों की बस्ती पर अधिकार कर लिया। मद्रास और पांडिचेरी दोनों कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (दे.) के क्षेत्र में स्थित थे। नवाब की सेना ने अंग्रेजों की रक्षा के लिए जब मद्रास का घेरा डाला तो फ्रांसीसी सेना ने उसे पीछे खदेड़ दिया। सेंट थोम की लड़ाई में नवाब की सेना पुनः पराजित हुई। यूरोप में एक्स-ला-चेपेल की सन्धि के बाद शान्ति स्थापित हो गयी और उसके बाद इंग्लैण्ड और फ्रांस ने एक दूसरे के विजित क्षेत्रों को लौटा दिया। इसी आधार पर मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया। लेकिन आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध के परिणामस्वरूप पहले आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध का (जिसे कर्नाटक युद्ध भी कहते हैं) इतिहास पर भारी प्रभाव पड़ा। इस युद्ध का पहला परिणाम यह हुआ कि कर्नाटक के नवाब और उसके स्‍वामी हैदराबाद के निजाम की कमजोरी प्रकट हो गयी जो अपने राज्य में बसे विदेशियों को अपनी सार्वभौम सत्ता का सम्मान करने तथा शान्ति बनाये रखने के लिए मज़बूर नहीं कर सके। दूसरे, कर्नाटक के नवाब की अपेक्षाकृत बड़ी सेना को छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने दो बार पराजित कर दिया। फ्रांसीसी सेना में फ्रांसीसी सैनिकों के साथ भारतीय सैनिक भी थे। इन पराजयों से प्रकट हो गया कि युरोपीय ढंग से संगठित, प्रशिक्षित तथा शस्त्रास्त्रों से सज्जित सेना भारतीय सेना से श्रेष्ठ होती है। तीसरे, इस लड़ाई में फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भर्ती किया गया था और फ्रांसीसियों ने तो भारतीय सिपाहियों का प्रयोग देशी रजवाड़ों की सेनाओं से लड़ने तक में किया था। इस सबक को अंग्रेजों ने भलीभाँति सीख लिया और बाद में भारतीय सिपाहियों की सहायता से ही भारत को विजय किया।

आहवमल्ल
का विरुद कल्याणी के चालुक्यवंशी राजा सोमेश्वर प्रथम (१०५३-६८ ई.) ने धारण किया था। उसने चोल राजा राजाधिराज को कोप्पम के युद्ध में पराजित करके, चालुक्यों की शक्ति का पुनरुद्दार किया। उसने मालवा की धारा नगरी और सुदूर दक्षिण की कांची नगरी पर भी कब्जा कर लिया। अन्त में एक असाध्य ज्वर से पीड़ित होने पर उसने शिवमंत्र का जाप करते हुए तुंगभद्रा नदी में छलांग लगाकर अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया।


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