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Bharatiya Itihas Kosh

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आनन्द अथवा अन्त देवी
कुमारगुप्त प्रथम (दे.) (४१५-५५ ई.) की रानी थी और पुरुगुप्त (दे.) की माता थी।

आनन्दपाल
सिन्धु नदी के तट पर स्थित उद्भांडपुर अथवा ओहिन्द के हिन्दूशाही राजवंश के राजा जयपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी था। वह १००२ ई. के करीब गद्दी पर बैठा। सुल्तान महमूद गजनवी ने उसके पिता जयपाल को १००१ ई. में परास्त किया था। इसलिए गद्दी पर बैठने के बाद आनन्दपाल का पहला कर्तव्य यही था कि वह सुल्तान महमूद से इस हार का बदला लेता। सुल्तान महमूद ने १००६ ई. में आनन्दपाल के राज्य पर फिर से हमला किया। आनन्द पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के हिन्दू राजाओं का संघ बनाकर सुल्तान की सेना का पेशावर के मैदान में सामना किया। दोनों ओर की सेनाएँ ४० दिन तक एक दूसरे के सामने डटी रहीं। अंत में भारतीय सेना ने सुल्तान की सेना पर हमला बोल दिया और जिस समय हिन्दुओं की विजय निकट मालूम होती थी उसी समय एक दुर्घटना घट गयी। जिस हाथी पर आनन्दपाल अथवा उसका पुत्र ब्राह्मणपाल बैठा था वह पीछे मुड़कर भागने लगा। यह देखते ही भारतीय सेना छिन्न-भिन्न होकर भागने लगी। इस युद्ध में युवराज ब्राह्मणपाल मारा गया। सुल्तान की विजयी सेना आनन्दपाल के राज्य में घुस गयी और कांगड़ा और भीमनगर के किलों और मंदिरों पर हमला करके उन्हें लूटा। आनन्दपाल ने इस पर भी पराजय स्वीकार नहीं की और नमक की पहाड़ियों से मुसलमानों का लगातार प्रतिरोध करता रहा। कुछ वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी।

आनन्द रंग पिल्लई
डूप्ले का दुभाषिया था। उसने पांडेचेरी की घटनाओं का विवरण लिखा है और साथ ही उन घटनाओं का भी उल्लेख किया है जिनकी प्रतिक्रिया फ्रांसीसी राजधानी में हुई। उसकी तमिलभाषा में लिखी दैनिन्दिनी के बारह खंडों का अनुवाद अंग्रेजी में हुआ है। उसने कभी-कभी तो बाजारू अफवाहों और मामूली घटनाओं को भी बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखा है।

आन्ध्र
भारत के पूर्वी समुद्रतट पर गोदावरी के मुहाने से लेकर कृष्णा के मुहाने तक विस्तृत प्रदेशको कहते हैं। यहाँ के निवासी ज्यादातर तेलुगुभाषी हैं और इस क्षेत्र में प्राचीनकाल से बसे हुए हैं। ब्रिटिश शासनकाल में इस क्षेत्र को तमिलभाषी क्षेत्र से मिलाकर मद्रास प्रेसीडेन्सी बना दिया गया था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद यहाँ के निवासियों ने भाषायी आधार पर उनका क्षेत्र मद्रास से अलग करके पृथक् राज्य बनाने की माँग की। हिंसा और उपद्रव की अनेक घटनाएँ घटने के बाद यह माँग स्वीकार कर ली गयी और हैदराबाद को राजधानी बनाकर पृथक् आन्ध्र राज्य की स्थापना कर दी गयी। आन्ध्र राज्य भारत में भाषायी राज्य की स्थापना का पहला उदाहरण है और उसके बाद अन्य राज्यों को भी भाषायी आधार पर तोड़ने के आन्दोलन चल पड़े।

आन्ध्र राजवंश
देखो सातवाहन राजवंश।

आभीर
गण का प्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे। 'पेरिप्लस' नामक ग्रंथ तथा टालेमी के भूगोल में भी उनका उल्लेख है। ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक् शासकों के अधीन थे। ईश्वरदत्त नामक आभीर राजा महाक्षत्रप बन गया था। ईसवी तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण योग दिया था। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भलेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया है जिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी। (पोलि, पृ. ५४५ )

आम्बूर की लड़ाई
फ्रांसीसियों का समर्थन प्राप्त कर लेनेवाले चन्दा साहब और कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के बीच १७४९ ई. में हुई, जिसमें नवाब पराजित हुआ और मारा गया।

आम्भि
ई. पू. ३२७-२६ में भारत पर सिकंदर महान् के आक्रमण के समय तक्षशिला का राजा था। उसका राज्य सिन्धु और जेहलम नदियों के बीच में विस्तृत था। वह पुरु अथवा पोरस का प्रतिद्वन्द्वी राजा था जिसका राज्य जेहलम के पूर्व में था। कुछ तो पोरस से ईर्ष्या के कारण और कुछ अपनी कायरता के कारण उसने स्वेच्छा से सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली और पोरस के विरुद्ध युद्ध में उसने सिकंदर का साथ दिया। सिकंदर ने उसको पुरस्कारस्वरूप पहले तो तक्षशिला के राजा के रूप में मान्यता प्रदान कर दी और बाद में सिन्धु और चनाब के संगम क्षेत्रतक का शासन उसे सौंप दिया। संभवतः चन्द्रगुप्त मौर्य ने उससे सारा प्रदेश छीन लिया और पूरे पंजाब से यवनों (यूनानियों) को निकाल बाहर किया। जब सिकंदर के सेनापति एवं उसके पूर्वी साम्राज्य के उत्तराधिकारी सेल्यूकस ने भारत पर आक्रमण किया तो उस समय भी पंजाब चन्द्रगुप्त मौर्य के अधिकार में था। आम्भि का अन्त कैसे हुआ, इसकी जानकारी नहीं मिलती है।

आम्रकार्द्दव
तीसरे गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय (३८१-४१३ ई.) का एक सेनापति था। अनेक युद्धो में विजय प्राप्त करने के कारण उसका यश चारों ओर फैला था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जब पूर्वी मालवा पर हमला किया तो सेनापति आम्रकार्द्दव भी उसके साथ था। उसने सनकानीक महाराज को गुप्तों का सामंत बनाने तथा पश्चिमी मालवा व काठियावाड़ के शकों का उन्मूलन करने में अपने सम्राट् की सहायता की। वह बौद्ध मतावलम्बी था अथवा बौद्धधर्म में श्रद्धा रखता था। उसने एक बौद्ध विहार को दान दिया था।

आयर, मेजर विन्सेण्ट
(१८११-७१ ई.) -बंगाल तोपखाने का अफसर होकर १८२८ ई. में भारत आया। 1839-42 ई. में काबुल पर अंग्रेजों के आक्रमण में भाग लिया। बाद में उसका स्थानान्तरण बर्मा के लिए हो गया। जब भारत में १८५७ ई. में प्रथम स्वाधीनता संग्राम छिड़ा, तो उसे भारत वापस बुला लिया गया। जब वह लौट रहा था, तो उसने सुना कि जगदीशपुर के कुवँरसिंह ने आरा को घेर रखा है। उसने अपनी जिम्मेदारी पर सेना एकत्र कर कुँवरसिंह को पराजित किया। इसके बाद वह लखनऊ गया जहाँ उसने १८५८ ई. में अंग्रेजों को विजयी बनाने में सहायता दी। वह १८६३ ई. में अवकाश पर चला गया।


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