यह एक सिद्धि है। किसी त्रैगुणिक वस्तु की अतीत अवस्था एवं अनागत अवस्था का जो ज्ञान (प्रत्यक्षज्ञान) होता है, वह अतीतानागतज्ञान कहलाता है। परिणामत्रय (धर्म, लक्षण और अवस्था नामक तीन परिणाम) में संयम करने से यह ज्ञान होता है, यह योगसूत्र 3/16 में कहा गया है। कई व्याख्याकारों का कहना है कि इस सिद्धि के कारण वस्तु पर योगी की दृढ़ अनित्यताबुद्धि होती है, जिससे वे वैराग्य में सुप्रतिष्ठित होते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
अदृष्टजन्मवेदनीय
कर्माशय (जाति-आयु-भोग का हेतु भूत संस्कार-विशेष) दो प्रकार का होता है दृष्टजन्मवेदनीय तथा अदृष्टजन्मवेदनीय। वर्तमान जन्म (शरीरधारणकाल) में जिसका फल अनुभूत नहीं होता, पर आगामी जन्म में अनुभूत होता है वह अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय है। जाति, आयु और भोग विपाक (फल) कहलाते हैं।
अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय (जो जाति आदि तीन फल देते हैं) की तीन गतियाँ हो सकती हैं, (1) फल न देकर ही कर्मों का नाश हो जाना (यह नाश विरुद्ध कर्म से या ज्ञान से होता है), (2) प्रधान कर्म (जो स्वतन्त्र रूप से फलप्रसू होता है, वह) के साथ ही अप्रधान कर्मों का फलीभूत होना (इससे फल क्षीणबल हो जाता है) तथा (3) अधिकबलशाली कर्म द्वारा अभिभूत होने के कारण दीर्घकाल पर्यन्त (अर्थात् दो -तीन जन्म -पर्यन्त) फल देने में समर्थ न होना।
अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय जीवन्मुक्तों का नहीं रहता, क्योंकि सभी प्रकार के क्लेशों की शक्ति (फलोत्पादनयोग्यता) नष्ट हो जाने के कारण उनको पुनः देहधारण नहीं करना पड़ता।
(सांख्य-योग दर्शन)
अधिकार
व्यासभाष्य (2/23) में अधिकार का अर्थ हैं - 'गुणों का कार्यारंभ-सामर्थ्य'। 'स्वकार्यजननक्षमता' के अर्थ में अधिकार शब्द व्यासभाष्य के कई स्थलों में प्रयुक्त हुआ है (1/50 आदि)। महत्तत्त्व आदि परिणाम गुणों के कार्य हैं - इस दृष्टि से 'परिणामविशेष' के अर्थ में भी 'अधिकार' शब्द का प्रयोग होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अध्यवसाय
सांख्य में बुद्धि (महत्तत्त्व) का असाधारण धर्म अध्यवसाय कहा गया है। अध्यवसाय को व्याख्याकारों ने 'निश्चय रूप' ('यह ऐसा है' अथवा 'यह कर्तव्य है' - इस प्रकार का निश्चय) कहा है। अध्यवसाय का उपर्युक्त लक्षण स्थूल है - ऐसा किन्हीं आचार्यों का कहना है। इन्द्रिय द्वारा अधिकृत विषय (=वैषयिक चांचल्य) का अवसाय (=समाप्ति) अर्थात् वैषयिक चांचल्य की ज्ञान रूप से परिणति ही अध्यवसाय (अधि+अवसाय) है - यह उनका मत है। व्यावहारिक आत्मभाव का सूक्ष्मतम रूप ही महत्तत्त्व है; अतः सभी वैषयिक ज्ञानों में अध्यवसाय सूक्ष्मतम है। मन और अहंकार का व्यापार रुद्ध होने पर जो ज्ञान उदित रहता है, वह महत्तत्त्व का अध्यवसाय है - यह योगियों का कहना है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अध्यात्मप्रसाद
निर्विचार समापत्ति में जब कुशलता हो जाती है, तब अध्यात्मप्रसाद उत्पन्न होता है (योगसू. 1/47) प्रायः सभी व्याख्याकार इस अध्यात्मप्रसाद को प्रज्ञालोक की तरह मानते हैं, जो तत्त्व एवं तत्त्वनिर्मित पदार्थों के प्रकृत गुणादि को प्रकट करता है। यह ज्ञान क्रमिक नहीं होता बल्कि युगपत् सर्वार्थग्राही होता है।
कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि समापत्ति का अधिगम होने पर जो करण-प्रसाद (करण=सभी इन्द्रियाँ) होता है, वहीं अध्यात्मप्रसाद है। यह करणों का प्रशान्तभाव है, जो सात्त्विक प्रवाह से होता है। अध्यात्मप्रसाद से युक्त करणशक्ति ही वस्तु के सूक्ष्मतम अंशों को प्रकट करने में समर्थ होती है। कठ उपनिषद् में जो 'अध्यात्मप्रसाद' शब्द है (1/2/20) वही 'धातुप्रसाद' है, ऐसा कुछ विद्धान समझते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
अध्यास
जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उस धर्म का बोध होना अध्यास है। यह आरोप भी कहलाता है। सांख्य में आत्मा-अनात्मा का अध्यास स्वीकृत हुआ है। वहाँ बुद्धि को जड़ और उसमें चेतन पुरुष का प्रतिबिम्बित होना माना गया है जिससे इनमें भेद प्रतीत नहीं होता और एक का धर्म अन्य में आरोपित होता है, अर्थात् जड़बुद्धिगत कर्तृत्व का आरोप अपरिणामी पुरुष में होता है तथा पुरुष की चेतनता का आरोप बुद्धि में होता है। अध्यास का उदाहरण योगसूत्र 3/17 में मिलता है - वह है शब्द, अर्थ और शब्दजन्य ज्ञान (प्रत्यय) का इतरेतराध्यास।
(सांख्य-योग दर्शन)
अनन्तसमापत्ति
योग के तृतीय अंग आसन को यथाविधि निष्पन्न करने के लिए जिन दो उपायों की आवश्यकता होती है उनमें अनन्तसमापत्ति एक है (द्र. योगसूत्र 2/47)। इस समापत्ति के बिना आसन विशेषों का अभ्यास करने पर उन आसनों (पद्मासन आदि) में दीर्घकाल तक बैठा नहीं जा सकता; आसनानुकूल शारीरिक स्थैर्य इस समापत्ति का फल है। शरीर में आकाशवद् निरावरण भाव की धारणा करना (अर्थात् शरीर शून्यवत् हो गया है - अमूर्त आकाश की तरह हो गया है - ऐसी भावना) ही अनन्तसमापत्ति है ('अनन्त' 'आकाश' का पर्याय है)। इस भावना से शरीर में लघुता का बोध होता है। कोई-कोई व्याख्याकार 'आनन्त्य -समापत्ति' शब्द का भी प्रयोग करते हैं। (आनन्त्य=अनन्तभाव)।
एक अन्य मतानुसार 'अनन्त' अर्थात् शेषनाग की भावना अनन्तसमापत्ति है। अनन्त विष्णु का तामस रूप है; तमोगुण विधारण करने वाला है। अतः अनन्त के ध्यान से स्थैर्य उत्पन्न हो सकता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अनवस्थितत्व
योगाभ्यास के नौ अंतरायों (विघ्नों) में यह एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य के अनुसार इसका स्वरूप है - योग की भूमिविशेष (मधुमती आदि भूमियों में से किसी भी भूमि) की प्राप्ति होने पर भी उससे विच्युत हो जाना। जब तक समाधिजन्य पूर्ण साक्षात्कार न हो तब तक भूमि पर अवस्थित रहना आवश्यक है। साक्षात्कार से पहले ही यदि भूमि से भ्रंश हो जाय तो समाधिजन्य साक्षात्कार नहीं हो सकता। चित्त की भूमियाँ जब तक सुप्रतिष्ठित नहीं होतीं, तब तक उनसे विच्युति होती रहती है। भूमि से विच्युति होने पर पुनः उस भूमि की प्राप्ति जब नहीं होती तब यह अप्राप्ति 'अनवस्थितत्व' है - ऐसा कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
अनाहत नाद
चित्त के स्थैर्य की उच्च अवस्था में यह नाद योगी को सुनाई पड़ता है। यह नाद शरीर के अंदर ही उत्पन्न होता है। यह चूंकि आहत (आघात से उत्पन्न) नहीं है, अतः अनाहत कहलाता है। यह नाद कई प्रकार का है, वंशीनाद, घण्टानाद, मेघनाद, शङ्खनाद आदि। योगी को पहले पहले दक्षिण कर्ण में ये नाद सुनाई पड़ते हैं। अनाहत नाद का आविर्भाव होने पर चित्त में कोई भी बाह्य विक्षेप नहीं उठता। योगियों का कहना है कि इस अनाहत नाद के अन्तर्गत सूक्ष्म-सूक्ष्मतर ध्वनि में समाहित होने पर मन वृत्तिशून्य हो जाता है। अनाहतनाद में भी क्रमिक उत्कर्ष है। इसकी आरम्भ, घट, परिचय एवं निष्पत्ति रूप चार क्रमिक उत्कर्षयुक्त अवस्थाओं का विवरण हठयोग के ग्रन्थों में मिलता है। अनाहत नादों के साथ चक्रों का निकट सम्बन्ध माना जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अनियतपदार्थवाद
जब यह कहा जाता है कि अमुक के मत में प्रमेय पदार्थों की संख्या निश्चित नहीं है, तब वह 'अनियत-पदार्थवाद' कहलाता है। इस मत का प्रसंग सांख्यसूत्र 1/26 में है जिसमें कहा गया है कि पदार्थ संख्या का निश्चय न हो यह तो कर्थंचित् माना जा सकता है, पर यह नहीं माना जा सकता है कि उसको युक्ति विरूद्ध पदार्थ (युक्ति से जिसकी सिद्धि न होती है, वह) मान लिया जाए। यह 'अनियतपदार्थवाद' किस शास्त्र का है, यह स्पष्ट नहीं है। कोई-कोई सांख्य को अनियतपदार्थवादी कहते हैं, पर यह भ्रान्तदृष्टि है, क्योंकि 'पंचविंशति-तत्वज्ञान सांख्य हैं', यह मत सभी प्राचीन आचार्यों ने एक स्वर से कहा है।