logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

परिणाम
जब किसी धर्मी (द्रव्य) में वर्तमान धर्म का नाश होकर अन्य धर्म उदित होता है, तब यह परिवर्तन 'परिणाम' कहलाता है। जिसका यह परिणाम होता है, वह परिणाम-भेद के कारण भिन्न नहीं होता - वह अवस्थित ही रह जाता है। सुवर्णरूप धर्मी के पिण्डाकार रूप धर्म के स्थान पर जब कुण्डल-रूप अन्य अवस्था उत्पन्न होती है, तब 'सुवर्ण का परिणाम हुआ' यह कहा जाता है। परिणाम का स्पष्ट लक्षण 3/13 व्यासभाष्य में इस प्रकार दिया गया है - अवस्थित (अपेक्षाकृत स्थिर) द्रव्य के पूर्व धर्म की निवृत्ति होने पर जो अन्य धर्म का आविर्भाव (उदय) होता है, वह परिणाम है। वास्तविक दृष्टि से परिणाम का अर्थ धर्मपरिणाम ही है। लक्षण -परिणाम और अवस्था -परिणाम नामक जो अन्य दो परिणाम योगशास्त्र में बताए गए हैं, वे धर्मपरिणाम पर आश्रित हैं।
तीनों परिणामों को इस प्रकार समझा जा सकता है - सुवर्ण-रूप धर्मी का जो वलय, कुण्डल आदि परिणाम होता है, वह धर्मपरिणाम का उदाहरण है। सुवर्णपिण्ड में वलयरूप धर्म अनागत रूप में रहता है; वह (स्वर्णकार के द्वारा) वलयरूप धर्म में वर्तमान (उदित) होता है और बाद में वलय नष्ट हो जाता है। यह जो वलय का अनागत-उदित-अतीत हो जाना रूप व्यापार है, यह लक्षण नामक परिणाम है। वर्तमान धर्म की नूतनता और पुरातनता अवस्था-परिणाम हैं। किसी वस्तु का हृस्व-दीर्घादि-रूप होना भी अवस्था-परिणाम है। त्रैगुणिक वस्तु का इस प्रकार परिणत होते रहना उसका स्वभाव है; कोई भी व्यक्ति किसी भी उपाय से किसी भी त्रैगुणिक वस्तु को परिणामहीन नहीं कर सकता। जो परिणाम अनागत (भविष्य) है, वह उपयोगी क्रिया द्वारा उदित (वर्तमान) अवश्य होगा और उदित वस्तु नूतन होने पर भी बाद में पुरातन होगी या उदित पदार्थ बलशाली होने पर भी बाद में उसके बल में परिवर्तन होगा। उदित (वर्तमान) वस्तु बाद में अवश्य नष्ट होगी।
कूटस्थनित्य पुरुष में परिणाम नहीं है, पर गुणत्रयरूपा प्रकृति परिणामशीला है। प्रकृति चूंकि नित्य है, अतः वह 'परिणामिनी-नित्या' है। प्रकृति से बुद्धि (महत्) रूप परिणाम जब नहीं होता तब भी उसमें परिणाम होता है (त्रिगुण के चलस्वभाव के कारण)। यह परिणाम 'सदृश परिणाम' कहलाता है। महत् आदि परिणाम 'विसदृश परिणाम' कहलाते हैं, क्योंकि इनमें तीन गुण असमान परिमाण में रहते हैं। क्रम के अनुसार परिणाम में भेद होता है, जैसे मिट्टी के पिण्डत्व धर्म का क्रम है घटत्वधर्म (योगसूत्र 3/15)। ऐसा क्रम लक्षण और अवस्थापरिणाम में भी होता है। यौगिक दृष्टि से क्रम क्षणिक है; क्षणावच्छिन्न परिवर्तन ही सूक्ष्मतम क्रम है।
ये परिणाम जिस प्रकार भौतिक-भूत-तन्मात्र में हैं, उसी प्रकार इन्द्रिय में भी हैं। उदाहरणार्थ चक्षुरूप धर्मी इन्द्रिय का नील-श्वेत-पीत आदि विषय में जो आलोचन होता है, वह धर्मपरिणाम है; आलोचन रूप धर्म का अनागत-उदित-अतीत होना लक्षणपरिणाम है; और आलोचन का स्फुट-अस्फुट होना अवस्थापरिणाम है।
(सांख्य-योग दर्शन)

परिणामदुःखता
सभी प्राकृत पदार्थ दुःखप्रद हैं - इसको प्रमाणित करने के लिए योगसूत्र (2/15) में परिणामदुःख-रूप युक्ति सर्वप्रथम दी गई है। परिणाम-हेतुक दुःख = परिणामदुःख। इस युक्ति का तात्पर्य यह है कि जो वर्तमान में सुखकर प्रतीत हो रहा है, वह भी बाद में दुःखकारक अवश्य होगा। व्याख्याकारों का कहना है कि विषयसुख के अनुभवकाल में जो राग नामक क्लेश उत्पन्न होता है उससे बाद में संकल्प होता है जिससे पुनः धर्म-अधर्म रूप कर्म किए जाते हैं। इस कर्म से जो कर्माशय होता है, वह प्राणी को जाति (जन्म = देहग्रहण), आयु और भोग देता है। जब तक देहधारण है तब तक दुःखभोग भी है। विषयभोगकाल में सुखविरोधी दुःख के साधनों के प्रति द्वेष भी होता है और इन साधनों को पूर्णरूप से न छोड़ सकने के कारण प्राणी सुह्यमान भी होता रहता है। इस प्रकार रागकृत कर्माशय के साथ-साथ द्वेष-मोहकृत कर्माशय भी होते रहते हैं। चूंकि सुख स्वयं भविष्यत् दुःख का साधन हो जाता है। अतः सुखेच्छु प्राणी अनिवार्यतः दुःख को भी प्राप्त कहता है - यह परिणामदुःखयुक्ति का सार है।
(सांख्य-योग दर्शन)

परितापविपाक
कर्माशय के तीन विपाक होते हैं (जाति, आयु और भोग)। यदि इनके मूल में अपुण्य (= पाप) अधिक मात्रा में हो तो उनसे परिताप अर्थात् दुःख की प्राप्ति ही अधिक होती है (योगसू. 2/14)। विपाक के अन्तर्गत जो भोग है, वह सुख-दुःख बोध है, अतः भोग परिताप-रूप फल को उत्पन्न करता है - ऐसा कहना सहसा असंगत प्रतीत हो सकता है। उत्तर यह है कि विपाक के अन्तर्गत भोग का तात्पर्य शब्दादिरूप चित्तवृत्ति यदि अपुण्यहेतुक हो तो वह परितापप्रद होगी - यह सूत्रकार का तात्पर्य है।
(सांख्य-योग दर्शन)

परिदृष्टधर्म
चित्तरूप धर्मी द्रव्य के जितने धर्म हैं, वे द्विविध हैं - परिदृष्ट एव अपरिदृष्ट। परिदृष्ट धर्म उसको कहते हैं जो प्रत्ययात्मक हो अर्थात् उपलब्ध हो - प्रत्यक्ष हो - ज्ञातस्वरूप हो। प्रमाणादिवृत्तियाँ सदैव ज्ञात होकर ही उदित होती हैं, अतः वे परिदृष्ट धर्मों में आती हैं। ये परिदृष्ट धर्म द्रव्यरूप हैं, चूंकि ये वृत्तिरूप हैं (वृत्तियाँ द्रव्यरूपा ही मानी जाती हैं)। प्रवृत्ति चूंकि ज्ञातरूपा होती हैं, अतः प्रवृत्ति भी परिदृष्टधर्म में आ सकती हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

परिमाण
किसी वस्तु का परिमाण कितना है - इस प्रकार का कोई विचार सांख्ययोग के प्रचलित ग्रन्थों में नहीं मिलता। सांख्यसूत्र में परिमाण-सम्बन्धी उस मत का खण्डन मिलता है जिसमें कहा गया है कि परिमाण चार प्रकार के हैं - अणु, महत्, हृस्व और दीर्घ। सूत्रकार का कहना है कि अणु और महत् परिमाण - ये दो ही भेद स्वीकार्य हैं, क्योंकि हृस्व-दीर्घ परिमाणों का अन्तर्भाव महत्-परिमाण में ही हो जाता है (5/90)। सांख्यकारिका (15) में 'परिमाण' का प्रसंग अव्यक्त की सत्ता सिद्ध करने के समय किया गया है। महत् आदि कार्यवस्तु परिमित परिमाण वाले अर्थात् अव्यापी होते हैं। सांख्य सभी व्यक्त पदार्थों को अव्यापी मानता है, अतः कोई भी व्यक्त पदार्थ सर्वव्यापी अर्थात् विभुपरिमाण नहीं है। यह सांख्यीय दृष्टि से कहना होगा।
(सांख्य-योग दर्शन)

पुरुष
अन्तःकरण अथवा बुद्धि रूप पुरी में निवास करने के कारण निर्गुण बुद्धिसाक्षी आत्मा पुरुष कहलाता है। पुरुष न किसी का कार्य है और न किसी का कारण ('नप्रकृति-नविकृति') है। उपनिषदों का निर्गुण आत्मा (उपाधिहीन ब्रह्म) ही सांख्यीय पुरुष है। 'अव्यक्तात् पुरुषः परः' इस कठवाक्य (1/3/11) में जिस पुरुष का प्रतिपादन है, वही सांख्यीय पुरुष है। उपनिषदों के कुछ व्याख्याकार इस पुरुष को एक तथा सुखस्वरूप कहते हैं। सांख्यीय दृष्टि में पुरुष असंख्येय है तथा वह चिद्रूपमात्र है, सुखस्वरूप नहीं है। यह पुरुष स्वरूपतः सर्वज्ञ -सर्वशक्ति नहीं है; उपाधियोग से ही सर्वज्ञ -सर्वशक्ति होता है। अन्तःकरण या चित्त सदैव पुरुष के द्वारा ही प्रकाशित होता है - विषयों का ज्ञाता होता है; उपादान की दृष्टि से अन्तःकरण या चित्त जड़ त्रिगुण का विकार है। इस पुरुष को ही द्रष्टा, चित्ति, चित्तिशक्ति, भोक्तृशक्ति, भोक्ता, चैतन्य आदि शब्दों से कहा जाता है; कहीं-कहीं भोक्ता आदि शब्द पुरुष -प्रकृति -संयोग जीव को लक्ष्य कर भी प्रयुक्त होते हैं।
सांख्ययोगीय दृष्टि में यह पुरुष हेतुहीन, कूटस्थनित्य, व्यापी (=बुद्धिगत सभी विकारों का ज्ञाता), निष्क्रिय, एकस्वरूप (=एकाधिकभावहीन), निराधार, लयहीन, अवयवहीन, स्वतन्त्र, त्रिगुणातीत, असंग, अविषय (बाह्य-आभ्यन्तर इन्द्रियों का), असामान्य अर्थात् प्रत्येक, चेतन, अप्रसवधर्मा, साक्षी, केवल, उदासीन तथा अकर्त्ता है (द्र. सांख्यका. 10, 11, 19)।
सभी बुद्धियों के द्रष्टा (प्रकाशक) के रूप में एक ही पुरुष है - यह सांख्य नहीं मानता। प्रत्येक बुद्धिसत्व के द्रष्टा के रूप में एक-एक पुरुष है - यह सांख्यीय दृष्टि है। इस विषय में सांख्य की युक्तियाँ सांख्यका. 18 में द्रष्टव्य हैं। यदि पुरुष बहु नहीं होते, तो बहु बुद्धियों का आविर्भाव नहीं होता - यह सांख्य कहता है। योगदर्शन (2/20) में पुरुष (चितिशक्ति) को अनन्त (सीमाकारक हेतु न रहने के कारण), शुद्ध (अमिश्रित), दर्शितविषय, अपरिणामी एवं अप्रतिसंक्रम (प्रतिसंचारशून्य) कहा गया है। व्यक्त -अव्यक्त से पृथक् पुरुष की सत्ता जिन युक्तियों से सिद्ध होती है, उनका उल्लेख सांख्यकारिका 17 में है।
(सांख्य-योग दर्शन)

पुरुषख्याति
पुरुष (तत्त्व) - विषयक ख्याति = पुरुषख्याति अर्थात् पुरुषविषयक प्रज्ञा (योगसू. 1.16)। पुरुष अपरिणामी, कूटस्थ, शुद्ध, अनन्त है तथा त्रिगुण से अत्यन्त भिन्न है - इस प्रकार का पुरुषस्वभाव-विषयक निश्चय ही पुरुषख्याति है। पुरुष (तत्त्व) बुद्धि का साक्षात् ज्ञेय विषय (घटादि की तरह) नहीं होता, अतः उपर्युक्त निश्चय आगम और अनुमान से होता है। पुरुषख्याति से सत्वादि गुणों के प्रति विरक्ति होती है; यह विरक्ति ही परवैराग्य कहलाती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

पुरुषज्ञान
योगसूत्र (3/35) में पुरुषज्ञान के लिए जिस संयम का विधान किया गया है, उसका नाम स्वार्थसंयम है (बुद्धिसत्त्व परार्थ है, चित्त-स्वरूप द्रष्टा स्वार्थ है; अतः इस संयम का नाम 'स्वार्थ संयम' रखा गया है)। पुरुष (तत्त्व) चूंकि कूटस्थ-अपरिणामी है, अतः वह ज्ञान का वस्तुतः विषय नहीं हो सकता। पुरुष विषयी है; किसी भी प्रमाण से पुरुष साक्षात ज्ञात नहीं होता। अतः पुरुष-ज्ञान का तात्पर्य है - पुरुष के द्वारा चित्तवृत्ति का प्रकाशन होता है - इस तथ्य का अवधारण। चित्त में पुरुष का जो प्रतिबिम्ब है, उस प्रतिबिम्ब में संयम करने पर पुरुष सत्ता का ज्ञान होता है। कोई कहते हैं कि अपने में प्रतिबिम्बित बुद्धिवृत्ति का दर्शन करना ही पुरुष का पुरुषज्ञान है। यह मत कई आचार्यों को मान्य नहीं है।
(सांख्य-योग दर्शन)

पुरुषार्थ
सांख्ययोग में भोग और अपवर्ग को 'पुरुषार्थ' कहा जाता है। ये दो ज्ञान के विशेष प्रकार हैं। इष्ट-अनिष्ट-रूप से विषय का ज्ञान, जिसमें बुद्धिवृत्ति के साथ द्रष्टा का अभेद-प्रत्यय रहता है, भोग है और विषय से पृथक् विषयी, भोक्ता, निर्विकार पुरुष है - ऐसा विवेक अपवर्ग है (द्र. व्यासभाष्य 2/18)। पुरुष के हेतु (प्रयोजन) से ये दो सिद्ध होते हैं, अतः ये पुरुषार्थ कहलाते हैं। भोगापवर्ग ही करण - प्रकृति के मूल में है। जब तक भोगापवर्ग बुद्धि में रहेंगे, तब तक करणवर्ग कर्म करता रहेगा। चित्त का सदा के लिए निरोध होने पर भोगापवर्ग भी समाप्त हो जाते हैं। कुछ व्याख्याकार 'निर्गुण पुरुष का अभीष्ट हैं', अतः ये दो पुरुषार्थ कहलाते हैं - ऐसा कहते हैं। यह अशास्त्रीय दृष्टि है, क्योंकि पुरुष (तत्त्व) में इच्छा -संकल्पादि नहीं हैं। ये दो बुद्धिकृत, बुद्धिस्थ होने पर भी पुरुष में आरोपित होते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

पूर्ववत्
अनुमान के तीन भेदों में यह एक है (अन्य दो हैं - शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट)। इसकी व्याख्या में मतभेद हैं। एक मत के अनुसार पूर्ववत् = कारण -विषयक ज्ञान, अर्थात् अतीत कारण के आधार पर भविष्यत् कार्य का अनुमान, जैसे मेघ की एक विशेष स्थिति को देखकर होने वाली वृष्टि का ज्ञान। यह देश भविष्यद् वृष्टिमान है, मेघ की अवस्था -विशेष से युक्त होने के कारण, अमुक देश की तरह - यह इस अनुमान का आकार है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपयुक्त लक्षणवाक्य में कारण = कारण का ज्ञान और कार्य = कार्य का ज्ञान - ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि कार्यविशेष और कारण-विशेष के ज्ञान से ही अनुमान होता है। वाचस्पति के अनुसार पूर्ववत् अन्वयव्याप्ति पर आधारित एवं विधायक होता है (तत्त्वको. 5)। अन्वय = तत्सत्वे तत्सत्वम् - किसी के कहने पर किसी (साध्य) का रहना। पूर्ववत् में साध्य के समानजातीय किसी दृष्टान्त के आधार पर व्याप्ति बनती है। उदाहरणार्थ - पर्वत में जिस वह्नि का अनुमान किया जाता है, उस वह्नि के सजातीय वह्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान पाकशाला में (धूम के साथ) पहले हो गया होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo