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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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दोष
पतंजलि कहते हैं कि दोष-बीज का क्षय होने पर कैवल्य होता है (योगसूत्र 3/50)। व्याख्याकारों ने दोष का अर्थ क्लेश (अविद्या आदि) किया है, जो संगत प्रतीत होता है। `दोष के कारण ही मोक्षमार्ग पर शंका होती है` (4/25 व्यासभाष्य में उद्धृत) - इस पूर्वाचार्यवचन में भी दोष का अर्थ अस्मितारागादि क्लेश ही हैं। अशुद्धि -अर्थ में दोष शब्द प्रायः प्रयुक्त होता है, जैसे विषयदोष (विषय में रहने वाला दोष जिससे वह मन को चंचल करता है), संगदोष (अनभीष्ट वस्तु या व्यक्ति के साथ संसर्ग जो चित्त को एकाग्र नहीं होने देता) आदि शब्द इस अर्थ के उदाहरण हैं। आयुर्वेद के वात -पित्त -कफ को दोष कहा जाता है; योगग्रन्थों में भी ऐसा कथन उपलब्ध होता है (व्यासभाष्य 3/29)।
(सांख्य-योग दर्शन)

दौर्मनस्य
योगविघ्नों में से एक (द्र. योगसू. 1/31)। इच्छा के विघात होने पर चित्त में जो क्षोभ (= चांचल्य) उत्पन्न होता है, वह दौर्मनस्य कहलाता है। यह क्षोभ या चांचल्य समाहित चित्त में उत्पन्न नहीं होता। दौर्मनस्य रजः प्रधान है और इसके मूल में रागद्वेषादिमूलक संस्कार हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

द्रष्टा
बुद्धि के साक्षीभूत जो पुरुष (तत्त्व) हैं; वे 'द्रष्टा' कहलाते हैं। ये अपरिणामी कूटस्थ एवं निर्धर्मक हैं। दृश्य (बुद्धि) की अपेक्षा से ही पुरुष द्रष्टा कहलाते हैं। दृश्य सम्बन्धहीन पुरुष के लिए भी द्रष्टा शब्द प्रयुक्त होता है, यद्यपि यहाँ 'चित्त', 'चित्ति' आदि शब्द अधिक संगत हैं। 'द्रष्टा' का शब्दार्थ यद्यपि 'दर्शनक्रिया का कर्त्ता' है, तथापि पुरुष-रूप द्रष्टा में किसी भी प्रकार का कर्तृत्व नहीं है।
सर्वविशेषणशून्य, विषयहीन, परिणामहीन ज्ञातामात्र द्रष्टा है। क्रियाकारकशून्यता को दिखाने के लिए ही योगसूत्रकार ने द्रष्टा के लक्षण में 'दृशिमात्र' शब्द का प्रयोग किया है (2/20)। इस द्रष्टा के योग से ही अचेतन त्रिगुणजात बुद्धि चेतन-सी होती है और भोग-अपवर्ग का साधन करती रहती है।
योगसूत्र 2/20 में द्रष्टा को प्रत्ययानुपश्य कहा गया है, अर्थात् परिणामी बुद्धिवृत्ति में प्रतिबिम्बित होकर वह वृत्तिसाक्षी के रूप में रहता है, वृत्तियों के आकार में परिणत नहीं होता (जैसे चित्त एवं उसकी वृत्तियाँ स्व-स्व विषयाकार से आकारित होती हैं)। बुद्धि का द्रष्टा होने के कारण ही अविवेकियों को पुरुष द्रष्टा -सदृश प्रतीत होता है और यह भ्रम ही बन्धन का हेतु है।
(सांख्य-योग दर्शन)

द्वंद्व
द्वंद्व का अर्थ है - युगल, जोड़ी। पर योगशास्त्र में द्वंद्व का अभिप्राय विशिष्ट युगलों से है। कुछ युगल परस्पर विरोधी होते हैं, जैसे - शीत-ऊष्ण; स्थान-आसन (उठना-बैठना)। कुछ ऐसे भी युगल हैं, जो परस्पर विरोधी के रूप में प्रसिद्ध नहीं हैं, पर दोनों का एक साथ कथन होता है, जैसे भूख-प्यास। द्वंद्वों का सहन करना ही तपः का स्वरूप है - 'तपो द्वंद्वसहन्म्' (व्यासभाष्य 2/32)। योगशास्त्र की मान्यता है कि प्राणायाम करने पर योगी इन द्वंद्वों से अभिहत नहीं होता। यहाँ उपर्युक्त दो प्रकार के द्वंद्वों का ग्रहण अभीष्ट है।
(सांख्य-योग दर्शन)

द्वेष
पाँच क्लेशों में से एक (द्र. योगसू. 2/3)। दुःख का अनुभव करने वाले प्राणी को दुःख की स्मृति के कारण दुःख में या दुःख के साधन में जो प्रतिघ (= अभीष्टप्राप्तिबाधा-जनित दुःख के विनाश की इच्छा), मन्यु (= मानसिक दृढ़ क्षोभ), जिघांसा (=हनन करने की इच्छा) या क्रोध (=मन्यु का बाह्य रूप) होता है वह द्वेष है (योगसू. 2/8)।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्म
बुद्धि के चार सात्विक रूपों में यह एक है। अन्य तीन हैं - ज्ञान, विराग (वैराग्य) और ऐश्वर्य (सिद्धि)। (द्र. सांख्यका. 23)। यह धर्म यम-नियम ही है - ऐसा माठर आदि वृत्तिकार कहते हैं। अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि विवेकज्ञान के साक्षात् साधनभूत कर्म (जो भोग की निवृत्ति करते हैं) तथा यज्ञादिकर्म - ये दो धर्म के भेद हैं। यज्ञादिकर्मों में यमादि का जो पालन किया जाता है, वह यज्ञादि के अनुष्ठान की तुलना में अधिकतर सात्त्विक हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्मपरिणाम
धर्मी द्रव्य के जो तीन प्रकार के परिणाम होते हैं - धर्म -परिणाम उनमें से एक है (लक्षण और अवस्था अन्य दो परिणाम हैं)। धर्मपरिणाम का अर्थ है - धर्मी द्रव्य में एक धर्म का उदय। उसके बाद वह धर्म लीन होता है एवं अन्य धर्म उदित होता है (जो उदित होता है, वही इन्द्रिय द्वारा साक्षात् विज्ञेय होता है)। यथा - सुवर्ण रूप धर्मी का पिंडाकार एक धर्म है; पिंडाकार परिवर्तित होकर जब कोई अलंकार-विशेष बनता है तब धर्मान्तर का उदय होता है (पिंडाकार का नाश होने के अनन्तर)। यह ज्ञातव्य है कि धर्मपरिणाम किसी एक धर्मी का ही होता है, धर्मी से सर्वथा निरपेक्ष कोई परिणाम नहीं होता। विभिन्न अलंकार सुवर्णपिंडा के ही धर्म हैं, क्योंकि उन धर्मरूप अलंकारों में सुवर्णरूप धर्मी का अन्वय देखा जाता है। धर्मपरिणाम में धर्मी अपने स्वरूप में ही रहता है - यह माना जाता है।
धर्मी का जो धर्म है, वह अन्य धर्म की तुलना में धर्मी भी होता है। जब एक धर्म का पुनः परिणाम होता है तो वहाँ वह धर्म उदित परिणाम की दृष्टि में धर्मी होगा। धर्मों का परिणाम लक्षण (कालभेद) की अन्यता से होता है - यह पूर्वाचार्यों ने कहा है (द्र. लक्षण-परिणाम)। सांख्ययोग की मान्यता है कि धर्मी और धर्म यद्यपि परमार्थतः अभिन्न हैं (धर्मसमष्टि ही धर्मी है) तथापि व्यवहारतः भिन्न ही माने जाते हैं। प्रसंगतः यह जानना चाहिए कि धर्म शब्द कभी-कभी लक्षण-परिणाम और अवस्था-परिणाम का भी वाचक होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्ममेघसमाधि
जिस समाधि के द्वारा क्लेशों एवं कर्मों की निवृत्ति होती है, वह धर्ममेघसमाधि है। सर्वज्ञता -रूप प्रसंख्यान पर भी जब योगी का वैराग्य होता है, तभी यह समाधि आविर्भूत होती है (योगसू. 4/29)। इस अवस्था में विवेकख्याति की पूर्णता हो जाती है और योगी इस ख्याति को भी निरुद्ध करने के लिए उद्यत हो जाता है। धर्ममेघ रूप ध्यान को 'पर प्रसंख्यान' कहा जाता है। आत्मज्ञान रूप धर्म का ही मेहन (= वर्षण) करने के कारण ही इस समाधि का 'धर्ममेघ' नाम है। योगियों का कहना है कि इस समाधि का लाभ होने पर अनायास कैवल्य की प्राप्ति होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्मी
सांख्ययोग शास्त्र के अनुसार धर्मों के समाहारभूत पदार्थ धर्मी हैं - धर्मों का आश्रयभूत पदार्थ नहीं, जैसा कि वैशेषिक शास्त्र में माना जाता है। एक धर्मी के धर्म बहुसंख्यक होते हैं, जो कालभेद की दृष्टि से त्रिधा विभक्त हैं - शान्त (जो धर्म नष्ट हो गया), उदित (जो धर्म वर्तमान है - इन्द्रियवेद्यरूप में अवस्थित है) तथा अव्यपदेश्य (अर्थात् जो विशेष रूप से ज्ञातव्य नहीं है; यह अनागत है)। धर्मी के जो शान्त एवं अव्यपदेश्य धर्म हैं, वे सामान्य धर्म कहलाते हैं और जो उदित धर्म हैं, वे विशेष धर्म कहलाते है। यही कारण है कि धर्मी को सामान्य -विशेषात्मा कहा जाता है (धर्मी के लिए कभी-कभी 'द्रव्य' अथवा 'अर्थ' शब्द प्रयुक्त होता है)। प्रत्येक धर्म में धर्मी का अनुगम रहता है - रुचक, स्वस्तिक आदि अलंकारों में सुवर्ण रूप धर्मी के अनुगम की तरह धर्मों की भिन्नता होने पर भी उनमें धर्मी अभिन्न रूप से रहता है - यही धर्मी का अनुगम या अन्वय है (भिन्नेषु अभिन्नात्मा धर्मी, विवरणटीका 3/13)।
धर्म -धर्मी में भेद व्यावहारिक है; पारमार्थिक नहीं; परमार्थतः धर्म -धर्मी में अभेद है। यही कारण है कि धर्म -धर्मी के सम्बन्ध में सांख्य एकान्तवादी (भेदवादी या अभेदवादी) नहीं है (द्र. व्यासभाष्य 3/13 का वाक्य एकान्तानम्भुपगमात्)। इसी दृष्टि के कारण व्याख्याकारगण सदैव कहते हैं कि धर्म -धर्मी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। प्रत्येक धर्म की अपनी योग्यता होती है, जो धर्मी में नहीं देखा जाता। मृत्पिंड से उत्पन्न घट में जल-आहरण की योग्यता है, जो मृत्पिंड में नहीं है। इस योग्यता के कारण ही धर्म-धर्मी में भेद मानना पड़ता है। धर्मी में धर्म की योग्यता सूक्ष्म रूप से रहती है, पर उस सूक्ष्म भाव से व्यक्त धर्म द्वारा निष्पन्न होने वाला कार्य निष्पन्न नहीं होता। यह सूक्ष्म रूप या अनभिव्यक्त रूप से रहना शक्ति कहलाता है। धर्मी में जो एसी शक्तियाँ रहती हैं, यह विभिन्न प्रकार के व्यक्त फलों को देखकर अनुमित होता है - ऐसा माना जाता है। यदि धर्म -धर्मी -भाव न माना जाए (अर्थात् प्रत्येक धर्म स्वप्रतिष्ठ है, परस्पर असंबद्ध है - ऐसा माना जाए, तो दार्शनिक दृष्टि से कई दोष होते हैं, द्र. व्यासभाष्य 3/14)।
(सांख्य-योग दर्शन)

धातु
शरीर के उपादानभूत (शरीर के मुख्य घटक) धातुओं की चर्चा योगग्रन्थों में मिलती है। यह विषय आयुर्वेदशास्त्र में मुख्यतया प्रतिपादित हुआ है। धातु सात हैं - (1) रस (आहार का प्रथम परिणाम), (2) लोहित या रक्त, (3) मांस, (4) स्नायु, (5) अस्थि, (6) मज्जा तथा (7) शुक्र। कहीं-कहीं रस के स्थान पर त्वक् शब्द का प्रयोग मिलता है; ऐसे स्थलों में त्वक् का लक्ष्यार्थ रस ही समझना चाहिए; त्वक् या चमड़ा कोई धातु नहीं है। ये सात उत्तरोत्तर अधिक आभ्यंतर हैं - रस सर्वाधिक बाह्य है और शुक्र सर्वाधिक अन्तस्तल में अवस्थित है (द्र. व्यासभाष्य 3/21)। धातु का शब्दार्थ है - धारण करने वाला। योगग्रन्थों में कदाचित् उपधातुओं की चर्चा मिलती है; स्तनदुग्ध, आर्तव आदि सात उपधातु हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)


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