अणिमादि अष्टसिद्धियों में ईशित्व या ईशिता षष्ठ सिद्धि है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)। 'ईशितृत्व' शब्द का भी प्रयोग होता है। भूत और भौतिक (भूतनिर्मित पाँच भौतिक द्रव्य) के उत्पत्ति-नाश-अवयवसंस्थान को संकल्पानुसार नियंत्रित करने की शक्ति ईशित्व है - यह व्यासभाष्य से जाना जाता है। शरीर एवं अन्तःकरण को अपने वश में रखना भी ईशित्व के अन्तर्गत है - ऐसा व्याख्याकारों ने कहा है। भूत -भौतिक पदार्थों की शक्ति का यथेच्छ उपयोग करने की शक्ति ही ईशित्व है - ऐसा भी कहा जाता है। कोई-कोई भूत-स्रष्टत्व-मात्र को ईशित्व कहते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
ईश्वर
सांख्ययोग का मूल दृष्टिकोण यह है कि ईश्वरादि सभी पदार्थ प्रकृति-पुरुष के मिलन के फल है। इस शास्त्र के अनुसार ईश्वर का स्वरूप है - ईश्वरता-विशिष्ट अन्तःकरण या बुद्धितत्त्व या चित्त तथा उसके द्रष्टा-रूप निर्गुण पुरुष तत्त्व - इन दोनों का समष्टिभूत पदार्थ। ईश्वरता (जो ऐश्वर्य भी कहलाता है) अन्तःकरण का धर्म है, जिसके कई अवान्तर भेद हो सकते हैं, अतः ऐश (ऐश्वर्य-युक्त) चित्त भी कई प्रकार के होते हैं और इस प्रकार सांख्ययोगीय दृष्टि में ईश्वर कई प्रकार के हो सकते हैं।
ऐश चित्त प्रधानतः तीन प्रकार का हो सकता है - (1) अनादि-मुक्त चित्त, (2) अणिमादिसिद्धियुक्त चित्त जो ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने में समर्थ है, तथा (3) विभिन्न प्रकार के अभिमानों से युक्त चित्त, जिनके उदाहरण हैं भूताभिमानी, तन्मात्राभिमानी देव आदि। इनमें तृतीय प्रकार को ईश्वर के रूप में प्रायः नहीं माना जाता; ये ब्रह्माण्डसृष्टिकारी प्रजापति हिरण्यगर्भ से निम्न कोटि में आते हैं और ब्रह्माण्ड के स्थूल विकास में इनके अभिमान का सहयोग रहने के कारण इनको भी ईश्वरकल्प माना जाता है।
प्रथम प्रकार के सोपाधिक पुरुष का चित्त अनादिकाल से ही क्लेशादि-शून्य है, अतः उनमें सृष्टि करने का संस्कार नहीं रहता। यही कारण है कि योगसूत्रोक्त अनादिमुक्त ईश्वर (1/24 -26) सृष्टिकर्त्ता नहीं है। वह अनादिकाल से प्रचलित मोक्षविद्या का अंतिम आधार है। यही कारण है कि यह ईश्वर गुरुओं का भी गुरु माना जाता है। इस ईश्वर के द्वारा प्रकृति-पुरुष का संयोग कराए जाने की बात सर्वथा भ्रान्त है। इच्छा स्वयं संयोगज है, अतः वह संयोग का हेतु नहीं हो सकती। प्रकृति-पुरुष-संयोग किसी के द्वारा कराया नहीं जाता - वह अनादि है। अनादिमुक्त ऐश चित्तों की संख्या बताई नहीं जा सकती। उन चित्तों की मुक्तता चूंकि अनादि है अतः उनमें भेद करने का उपाय भी नहीं है। ये चित्त यद्यपि अव्यक्तिभूत नहीं हैं तथापि क्लेशादिशून्य होने के कारण मुक्त हैं, इनकी सर्वज्ञता की कोई सीमा न होने से ये 'निरतिशय सर्वज्ञ' हैं।
सृष्टिकर्त्ता ईश्वर (प्रजापति हिरण्यगर्भ) सृष्टि करने के संस्कार से युक्त है, अतः उसमें विवेकख्याति अपनी पराकाष्ठा में नहीं होती, यद्यपि अणिमादि ऐश्वर्य (धर्म, ज्ञान, वैराग्य के साथ) का असीम -प्राय विकास उसमें है। सांख्यकारिका में इसको 'ब्रह्मा' कहा गया है (54)। सांख्यसूत्र (3/56 -57) में इस ईश्वर का शब्दतः उल्लेख है तथा शान्तिपर्वस्थ सांख्यप्रकरणों में इस ईश्वर के गुणकर्मों का प्रतिपादन किया गया है।
सांख्य चूंकि अन्तःकरण के चार धर्मों में ऐश्वर्य (या ईश्वरता) की गणना करता है, तथा यह कहता है कि किसी सोपाधिक पुरुष के भूतादि अहंकार से तन्मात्र सृष्ट होता है जो ब्रह्माण्ड का उपादान है, अतः सांख्य सदैव ईश्वरवादी है; यह सर्वथा संभव है कि ईश्वरविषयक सांख्यीय दृष्टि अन्य ईश्वर -वादियों की दृष्टि के अनुरूप न हो। यह सत्य है कि सांख्य ईश्वर को अन्तिम तत्त्व नहीं मानता, क्योंकि ईश्वर भी प्रकृति -पुरुष में विश्लिष्ट हो जाता है। ईश्वर साम्यावस्था त्रिगुण का आश्रय भी नहीं है और न उससे त्रिगुण की सृष्टि होती है। ईश्वर का ऐशचित त्रैगुणिक है - त्रिगुणातीत नहीं है।
(सांख्य-योग दर्शन)
ईश्वरप्रणिधान
समाधिलाभ के वैकल्पिक उपाय के रूप में ईश्वर प्रणिधान का उल्लेख योगसूत्र (1/23) में किया गया है। ये प्रणिधान उपाय मात्र है, अंतिम लक्ष्य नहीं है। योगसूत्रकार की दृष्टि में ईश्वर प्रणिधान का स्थान बहुत ही उच्च है। ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग के अन्तर्गत माना गया है, जिसका साक्षात् फल है समाधि की प्राप्ति तथा क्लेशों का क्षय (योगस. 2/1 -2)। ईश्वरप्रणिधान पाँच प्रकार के नियमों में से एक है और कहा गया है कि इससे समाधिसिद्धि सरलता से होती है (योगसू. 2/45)। यह प्रणिधान भक्ति का एक रूप है (द्र. व्यासभाष्य 1/23)। ईश्वर को परम गुरु के रूप में समझकर उनमें सब कर्मों का अर्पण करना तथा कर्मफल का त्याग करना ही ईश्वर-प्रणिधान है (द्र. व्यासभाष्य 2/1, 2/32)।
(सांख्य-योग दर्शन)
उत्क्रांति
मरणकाल में अर्चिरादिमार्ग से गमन उत्क्रान्ति कहलाता है (उद् = ऊर्ध्व; क्रान्ति = गमन)। उदान नामक प्राण को वश में करने वाले योगी की ही ऐसी उत्क्रान्ति होती है (द्र. 3/39 योगसूत्रभाष्य)।
(सांख्य-योग दर्शन)
उदान
उदान वायु के पाँच प्रकारों में से एक है (योगसू. भाष्य 3.39)। उन्नयन करने के कारण यह उदान कहलाता है। उन्नयन का सरल अर्थ है - रस आदि पदार्थों को ऊर्ध्वगामी करना, पर यह अस्पष्ट कथन है। योगग्रन्थों में उदानसंबंधी वचनों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि (1) उदान मेरुदण्ड के अभ्यन्तरस्थ बोधवाही स्रोतों में प्रधानतः स्थित है, (2) उदान तेज अर्थात् शरीर ऊष्मा का नियन्त्रक है, (3) उदान मरणव्यापार का साधक है, (4) स्वस्थता बोध और पीड़ा बोध उदान पर आश्रित है। शरीरधातुगत सभी नाड़ियाँ उदान के स्थान हैं, यद्यपि हृदय, कण्ठ, तालु और भ्रूमध्य में इसका व्यापार विशेष रूप से लक्षित होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
उदार
अविद्या से उत्पन्न अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक जो चार क्लेश हैं, उनकी चार अवस्थाएँ हैं - प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार। उदार वह अवस्था है जो विषय में लब्धवृत्ति (अर्थात् स्वभावतः विषय -व्यवहार के साथ संयुक्त) है। क्लेश की सर्वाधिक स्फुट अभिव्यक्ति इस अवस्था में होती है। सहकारी का सान्निध्य पाकर ये क्लेश प्रबल रूप से अपने-अपने कार्य को निष्पन्न करते हैं। व्युत्थान-दशा में ही इस अवस्था का उदाहरण देखा जा सकता है। उदाहरण के रूप में कहा जा सकता है कि क्रोध रूप वृत्ति के काल में द्वेष रूप क्लेश उदार अवस्था में रहता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
उपभोग
सुख-दुःख बोध या कर्म फलभोग के अर्थ में 'उपभोग' शब्द का प्रयोग सांख्य योगशास्त्र में प्रायः मिलता है। सांख्य सू. 3/5 तथा 3/77 के अनुसार उपभोग अविवेकी तथा मध्यविवेकी को होता है। सांख्यशास्त्र का कहना है कि लिंग (सूक्ष्म शरीर) उपभोगहीन रहकर ही संसरण करता रहता है (सा. का. 40) तथा स्थूलशरीर के साथ संयुक्त होने पर ही उपभोग को प्राप्त करता है। सांख्ययोग शास्त्र में 'उपभोगदेह' की बात आयी है; द्र. देह शब्द।
(सांख्य-योग दर्शन)
उपभोगदेह
जिस शरीर में पाप-पुण्य कर्मजनित दुःख-सुख भोग मात्र किया जाता है - पुरुषकारपूर्वक नूतन कर्म करने की संभावना नहीं रहती, उस देह को उपभोगदेह कहा जाता है; जैसे नारकीयों का देह उपभोगदेह है, क्योंकि नारकी प्राणी नरक में दुःख भोगमात्र करता रहता है। वहाँ न दुःख का प्रतीकार किया जा सकता है और न अन्य प्रकार का नूतन कर्म ही, जिससे आगामी जन्म में उस कर्म का फल मिले। सांख्यसूत्र 5/124 में कर्मदेह, उपभोगदेह एवं उभयदेह की चर्चा है। उपभोग-शरीरी प्राणियों के अन्तर्गत किसी विशेष प्रकार के प्राणी में अल्पाधिक मात्रा में पुरुषकारपूर्वक कर्म करने की शक्ति रहती है - ऐसा शास्त्रों से जाना जाता है। यह उपभोगदेह स्थूल शरीर नहीं है - एक प्रकार का सूक्ष्म शरीर है पर यह लिंगदेह नहीं है।
(सांख्य-योग दर्शन)
उपराग
'बाह्य वस्तु के साथ चित्त का संबन्ध इन्दियों के माध्यम से होने पर वस्तु का उपराग होता है'। व्यासभाष्य (17) के इस कथन से तथा 'विषय के साथ संपर्क होने पर चित्त का उपरंजन विषय करता है' - इस योगसूत्र (4/17) से 'उपराग' चित्त की अर्थाकारता (अर्थ के आकार में आकारित होना) है - यह जाना जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
उपष्टम्भ
रजोगुण को उपष्टम्भ कहा गया है (सांख्यका. 13)। उपष्टम्भ का अर्थ है - उत्तेजन अर्थात् वह गुण (सामर्थ्य) जो शिथिलीभूत को प्रवृत्त करता है या अवसन्न को प्रेरित करता है। व्यासभाष्य में 'रजसा प्रवर्तितम् उद्घाटितम्' कहा गया है (4/31)। यह उद्घाटन रजोगुण का व्यापार है। इस उद्घाटन-सामर्थ्य के कारण ही तमोगुण से आवृत वस्तु का प्रकटन होता है। इस उपष्टम्भ शक्ति के प्रावल्य के अनुसार ही अन्य दो गुण अपने -अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं।