शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध रूप विषयों में कर्ण, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका रूप पाँच ज्ञानेन्द्रियों की जो वृत्ति है, वह 'आलोचनमात्र' है, ऐसा सांख्यकारिका (28) में कहा गया है। वाचस्पति के अनुसार यह आलोचन 'संमुग्धवस्तुमात्रदर्शन' है, जो नैयायिकों का निर्विकल्प ज्ञान है। आलोचनमात्र में जो मात्र शब्द है, उससे ज्ञापित होता है कि आलोचनज्ञान में सामान्य -विशेष के विवेचन का अभाव रहता है। यह विवेचन आलोचनज्ञान के बाद उत्पन्न सविकल्प ज्ञान में होता है।
आलोचन अथवा निर्विकल्प प्रत्यक्ष का स्पष्टीकरण यह है - वस्तु के साथ इन्द्रिय-सन्निकर्ष होने पर जो बोध होता है, वह निर्विकल्प प्रत्यक्ष है। जलरूप वस्तु में सन्निकर्ष होने पर 'यह जलत्वविशिष्ट जल है' यह बोध जब नहीं होता है तब वह आलोचन कहलाता है। यह 'अविशिष्ट प्रत्यक्ष' है - इसमें जल और जलत्व का ज्ञान तो होता है, पर उनके सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता। यह विशेषणहीन ज्ञान है। विशेष्य-विशेषण-भाव का ज्ञान न होने के कारण ही यह 'निर्विकल्प' कहलाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
आवरण
योगशास्त्र में आवरण से वह पदार्थ लिया जाता है जो किसी को आवृत करता है। इस शब्द से 'अशुद्धि' (मलविशेष) ही प्रायेण लक्षित होती है। (द्र. व्यासभाष्य 1/47, 2/27)। यह मल मुख्यतया तामस होता है, कदाचित् राजस भी। प्रायेण यह राजस-तामस होता है। अशुद्धिरूप आवरण के अपगत हुए बिना ज्ञान या क्रिया का उत्कर्ष नहीं होता।
(सांख्य-योग दर्शन)
आशी
[संस्कृत में आशिस् सकारान्त प्रातिपदिक है, इसका पदरूप है - आशीः, हिन्दी में आशी भी लिखा जाता है]। आशीः को 'आत्मविषयक प्रार्थना' कहा जाता है। 'मेरा अभाव न हो, बल्कि मैं सदा रहूँ', इस प्रकार का मनोभाव आशीः कहलाता है। पूर्वाचार्यो ने इस आशीः को नित्य अर्थात् 'प्राणी के सभी जन्मों में नियतरूप से विद्यमान' कहा है। आशीः की इस नित्यता के कारण वासना की अनादिता सिद्ध होती है। इस आशीः के आधार पर पुनर्जन्मवाद की सिद्धि होती है। यह आशीः स्वाभाविक नहीं है। जिसने मरण का अनुभव नहीं किया है, उसमें यह आत्मप्रार्थना रूप आशीः नहीं हो सकता। अतः आशीः का होना सिद्ध करता है कि प्राणी की मुत्यु पहले कभी हुई थी। इस प्रकार पुनर्जन्मवाद सिद्ध होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
आसन
प्राणायाम आदि योगांगों को उचित रूप से करने के लिए एक निश्चित रूप से (योगशास्त्रोक्त निगमों के अनुसार) उपवेशन करना (=बैठना) आवश्यक होता है। यह उपवेशन ही आसन है (आस् धातु का अर्थ उपवेशन है)। योगांगभूत आसन के अभ्यास के लिए कई बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है शरीर को त्रिरुन्नत रखना (वक्ष, कण्ठ और शिर को उन्नत रखना अर्थात् समरेखा में रखना) आवश्यक है। प्रयत्न -शैथिल्य एवं अनन्तसमापत्ति पूर्वक आसन का अभ्यास करना चाहिए (द्र. योगसूत्र 2/47)। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि आसनाभ्यासी को यह सदैव देखना चाहिए कि आसन का अभ्यास अत्यन्त पीड़ाकारक न हो और वह आसन मानसिक स्थैर्य का विघातक भी न हो (द्र. योगसू. 2/46)।
आसन दो प्रकार के हैं - (क) योगांग रूप आसन जो एकाग्रतादि के सहायक होते हैं तथा (ख) शारीरिक अवयवों को सबल बनाने एवं शारीरिक रोगों का नाश करने में समर्थ हठयोग शास्त्रोचित आसन। पद्मासन, सिद्धासन आदि प्रथम प्रकार के हैं। कुक्कुटासन, मयूरासन आदि द्वितीय प्रकार के हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
आस्वाद
स्वार्थसंयम से पुरुष ज्ञान का आविर्भाव होने से पहले जो सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं, आस्वाद उनमें से एक है (योगसूत्र 3/36)। इस सिद्धि से दिव्य रस -संविद् होती है। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि 3/36 सूत्रोक्त प्रातिभ, श्रावण आदि सिद्धियाँ विवेकजज्ञान के आविर्भाव से पहले आविर्भूत होती हैं। अन्यों के अनुसार ये सिद्धियाँ पुरुष -साक्षात्कार होने पर ही होती हैं। इस दृष्टि से ये सिद्धियाँ पुरुषज्ञान की सूचक हैं। विषयवती प्रवृत्ति (योगसूत्र 1/35) के प्रसंग में भी रस -संविद् का उल्लेख है (द्र. भार्ष्य)। यद्यपि दोनों ही रस दिव्य हैं, तथापि दोनों में अवान्तर भेद हैं - ऐसा प्रतीत होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
इन्द्रिय
बाह्य एवं आन्तरविषयों से व्यवहार करने के लिए बुद्धि को जिन साधनों (कारणों) की आवश्यकता होती है, वे इन्द्रिय कहलाते हैं। विषय के द्वैविध्य के कारण इन्द्रिय भी द्विविध हैं - आन्तर इन्द्रिय (अर्थात् मन) और बाह्य इन्द्रिय जो ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय के नाम से द्विधा विभक्त हैं। ज्ञानेन्द्रिय का व्यापार है - विषयप्रकाशन और कर्मेन्द्रिय का व्यापार है - विषयों का स्वेच्छया चालन। (द्र. ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय शब्द)। स्वरूपतः इन्दियाँ भौतिक (भूत द्वारा निर्मित, अर्थात् शारीरिक यन्त्र रूप) नहीं हैं - ये अभौतिक हैं - अहंकार से उत्पन्न होने के कारण आहंकारिक कहलाती हैं। स्थल अंग-विशेष इन्द्रियों के अधिष्ठानमात्र हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
इन्द्रियजय
योगशास्त्र में इन्द्रियों (बाह्य एवं आन्तर) की जय का प्रसंग दो स्थलों में किया गया है - प्रत्याहार के प्रसंग में तथा विभूति के प्रसंग में। दोनों प्रकार की जयों का फल भिन्न है। प्रत्याहार का अभ्यास करने पर जो इन्द्रियजय होती है, वह इन्द्रिय -वश्यता (इन्द्रिय को वश में रखता) है। श्रेष्ठ इन्द्रिय वश्यता वह है जिसमें चित्त की एकाग्रता के कारण इन्द्रियाँ विषयसंपर्क से शून्य हो जाती हैं - विषयाकारा इन्द्रियवृत्ति नहीं होती है। कई प्रकार के गौण इन्द्रियजय भी हैं, जैसे शास्त्र द्वारा विहित विषयमात्र का ग्रहण करना। गौण इन्द्रियजय सदोष हैं क्योंकि इनमें प्रवृत्ति रहती है (द्र. योगसूत्र 2/54 -55)।
इन्द्रियों के पाँच रूपों (ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय एवं अर्थतत्त्व) पर संयम करने पर भी इन्द्रियजय होता है (द्र. योगसू. 3/47)। इस जय से मनोजवित्व, विकरणभाव एवं प्रधानजय नाम की तीन सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं (इन सिद्धियों का पारिभाषिक नाम 'मधुप्रतीक' है (द्र. योगसू. 3/48)। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस इन्द्रियजय में इन्द्रिय का अर्थ महत् तत्त्व एवं अहंकार भी है (द्र. योगवार्त्तिक 3/48)।
(सांख्य-योग दर्शन)
इन्द्रिय-प्रवृत्ति
आन्तर इन्द्रिय तथा बाह्य इन्द्रियों की जो प्रवृत्ति (अपने-अपने विषयों में) होती हैं, वह क्रमशः भी होती है, युगपद् भी (द्र. सांख्यकारिका 30; सांख्यसूत्र 2/32)। तात्पर्य यह है कि ज्ञानेन्द्रिय की वृत्ति में इन्द्रिय के साथ-साथ मन, अहंकार एवं बुद्धि के भी व्यापार होते हैं। उदाहरणार्थ रूप के ज्ञान में चक्षुरूप ज्ञानेन्द्रिय के साथ उपर्युक्त तीन अंतःकरण के संकल्प, अभिमान एवं अध्यवसाय रूप व्यापार भी होते हैं। ये चार कभी-कभी युगपद् होते हैं (जैसा कि व्याघ्रदर्शनमात्र से पलायन करना) और कभी-कभी क्रमशः (जैसा कि मन्द आलोक में किसी पदार्थ को यह समझकर कि यह चोर है, अतः यह हत्या करेगा, यह समझकर पलायन करना)। ज्ञानेन्द्रिय के साथ विषय का साक्षात् योग होता है, अतः दृष्ट विषय में यह द्विविधता होती है, यह माना जाता है। टीकाकारों ने कहा है कि यह युगपद्वृति भी वस्तुतः युगपद् नहीं है, युगपद् की तरह प्रतीत होती है - वृत्तियों का क्रम लक्षित नहीं होता।
स्मृति, चिन्तन आदि अन्तःकरण के व्यापार हैं; ये परोक्ष विषय में प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि स्मृति आदि के लिए विषय को विद्यमान (इन्द्रिय संबंध मुक्त) रहना आवश्यक नहीं है। परोक्ष विषय में केवल आन्तर इन्द्रियों की वृत्ति होती है। यह वृत्ति युगपद् भी होती है, क्रमशः भी, यद्यपि यह वृत्ति पूर्वदृष्ट विषय को लेकर ही उठती है।
(सांख्य-योग दर्शन)
इन्द्रियवध
सांख्य शास्त्र में जो चार प्रकार का प्रत्ययसर्ग माना गया है, उसमें अशक्ति नामक सर्ग के साथ इन्द्रियवध का सम्बन्ध है। सांख्य-कारिका (का. 46, 49) में कहा गया है कि यह अशक्ति 28 प्रकार की है जिसमें 11 इन्द्रियवध हैं, और 17 बुद्धिवध हैं। वध वह दोष है जिससे इन्द्रिय -व्यापार की अपटुता होती है। इन्द्रियाँ 11 हैं (5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ तथा 1 मन); अतः वध भी 11 प्रकार का है। पूर्वाचार्यों ने 11 वधों के नाम इस प्रकार दिखाए हैं - वाधिर्य = वधिरता (कर्ण की अशक्ति, शब्द श्रवण में), कुष्ठिता (स्पर्शग्रहण में त्वक् की अशक्ति), अन्धत्व (चक्षु की अशक्ति), जड़ता (रसना की अशक्ति), अजिघ्रता (नासिका की अशक्ति), मूकता (वाक् की अशक्ति), कोण्यता -कुणिता (पाणि की अशक्ति), पंगुत्व (पाद की अशक्ति), उदावर्त (वायु की अशक्ति), क्लैव्य (उपस्थ की अशक्ति), मन्दता या विक्षिप्तता अथवा मुग्धता (मन की अशक्ति)। वस्तुतः ये अशक्तियाँ बुद्धि की हैं; बुद्धि का अध्यवसाय इन इन्द्रियदोषों के कारण कुंठित हो जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
इष्ट देवता
स्वाध्याय अर्थात् जप से इष्ट देवता का संप्रयोग होता है - ऐसा योगसूत्र (2/44) में कहा गया है। देवता के साथ योग अर्थात् देवता सत्ता की प्रत्यक्ष उपलब्धि होना ही संप्रयोग है। जिस देवता के प्रति एकाग्र होकर मन्त्र जप किया जाता है, वह इष्ट देवता है। मुख्यतया ये इष्ट देवता वे हैं, जो भूतों, तन्मात्रों एवं इन्द्रियों के अभिभावी (भूत आदि को आत्मभाव के अंगरूप से उपासना करने के कारण) कहलाते हैं। ये अभिभावी देव योगसाधक को उच्चतर साधना मार्ग की सूचना भी दे सकते हैं। इन देवों से पृथक् जो प्रजापति हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्मांडाधीश हैं, वे भी उच्च साधकों के इष्ट देवता हो सकते हैं और उनसे भी आत्मविद्या का उपदेश प्राप्त होता है। यह उपदेश भाषाश्रित नहीं है। योगसूत्रोक्त अनादिमुक्त ईश्वर भी इष्ट देवता हैं।