बुद्धि के धर्म, ज्ञान आदि जो आठ रूप हैं (द्र. सांख्यका. 23)। वे दो प्रकार के होते हैं - प्राकृतिक (= स्वाभाविक) तथा वैकृत (=निमित्त विशेष से उत्पन्न)। देवताराधन आदि निमित्तों से धर्म-ज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य रूप चार सात्त्विक भाव उत्पन्न होते हैं; तथा कृष्णकर्म रूप निमित्त से अधर्मादि तामस भाव उतपन्न होते हैं। (ये भाव 'रूप' भी कहे जाते हैं; द्र. सांख्यकारिका 231)। तपस्या आदि के कारण ज्ञानादि का जो उत्कर्ष होता है, वह वैकृत का उदाहरण है। इन भावों के आश्रय बुद्धि एवं अन्यान्य करण हैं। शरीर भी इन धर्मों का आश्रय माना जाता है क्योंकि शरीर रूप आश्रय के बिना बुद्धि आदि सक्रिय रूप से व्यक्त नहीं रह सकते।
(सांख्य-योग दर्शन)
वैराग्य
वैराग्य का शब्दार्थ है - विराग = रागहीनता। चित्तवृत्ति-निरोध के लिए अभ्यास और वैराग्य रूप दो उपाय योगसूत्र (2/12) में तथा सांख्यसूत्र (3/36) में कहे गए हैं। वैराग्य एक प्रकार की 'मानसिक अवस्था' है, जो उस योगाभ्यासी में होती है जो इन्द्रियगम्य एवं शास्त्रोक्त विषय में वितृष्ण है (योगसूत्र 1/15)। वैराग्य का स्वरूप है - 'वशीकार संज्ञा', अर्थात् 'विषय मेरे वश में है, मैं विषय के वश में नहीं हूँ' इस प्रकार की संज्ञा = निश्चय ज्ञान।
बुद्धि के चार रूपों में अन्यतम वैराग्य है, यह सांख्यकारिका (23) में कहा गया है। इस वैराग्य में विषय-ग्रहण का वर्जन ही मुख्य है - तत्त्वज्ञान नहीं। तत्त्वज्ञान न रहने के कारण इस वैराग्य का अभ्यासी योगी को प्रकृतिलय-अवस्था ही प्राप्त होती है, कैवल्य नहीं और वैराग्यसंस्कार क्षीण होने पर उसकी पुनरावृत्ति भी होती है। यह ज्ञातव्य है कि योगसूत्र सम्मत वैराग्य विषयों के प्रति द्वेष करना नहीं है - विषयों के प्रति उपेक्षाबुद्धि करना है।
वशीकार-संज्ञा वैराग्य की सर्वोच्च अवस्था है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए पहले यथाक्रम जिन तीन अवस्थाओं का अधिगम करना पड़ता है, वे यतमान, व्यतिरेक और एकेन्द्रिय नामक अवस्थाएँ हैं। विषयराग को दूर करने के लिए जब चेष्टा की जाती है तब वह यतमान-अवस्था है। जब कुछ विषयों से राग हट जाता है (यह हटना सामयिक है) तब यह अवस्था व्यतिरेक कहलाता है। जब विषयराग औत्युक्य के रूप में मन में रह जाता है - इन्द्रिय का प्रयोग विषय के साथ नहीं होता - तब वह अवस्था एकेन्द्रिय कहलाती है।
उपर्युक्त चार अवस्थाओं से भिन्न एक पंचम अवस्था भी है, जो 'परवैराग्य' कहलाती है। पुरुषख्याति होने पर जो त्रिगुण पर वितृष्णता होती है, वह परवैराग्य है (योगसूत्र 1/16)। पूर्वोक्त अपरवैराग्य में गुणविकारों पर ही वितृष्णता होती है। यह वैराग्य एक प्रकार का ज्ञानप्रसाद है, यह भाष्यकार ने कहा है।
(सांख्य-योग दर्शन)
व्यक्त
सांख्य में त्रिगुणजात निम्नोक्त 23 पदार्थ व्यक्त नाम से कहे जाते हैं - बुद्धि, अहंकार, मनस्, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्र, पाँच भूत। चूंकि ये पदार्थ ध्यान का आलम्बन हो सकते हैं, अतः ये व्यक्त (= अभिव्यक्त, प्रकटित) कहलाते हैं। इन 23 पदार्थों का उपादान 'अव्यक्त' कहलाता है जो गुणत्रय की साम्यावस्था -रूप प्रकृति है। प्रत्येक व्यक्त पदार्थ हेतु से उत्पन्न, अनित्य, अव्यापी, सक्रिय, अनेक कारणों में आश्रित, अपने कारण का गमक (= ज्ञापक चिह्नस्वरूप), बहुअवयवों से युक्त तथा कारणपरतन्त्र हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
व्याधि
चित्त के जो नौ विक्षेप माने जाते हैं (द्र. योगसू. 1/30), व्याधि उनमें से एक है। धातु (वात-पित्त-कफ), रस (आहार-परिणाम विशेष) एवं करणों की विषमता व्याधि है - ऐसा भाष्यकार कहते हैं। इस विषमता से होने वाले ज्वर आदि ही व्याधि हैं - ऐसा भी कोई-कोई कहते हैं। सांख्यशास्त्रोक्त प्रत्ययसर्ग का अशक्तिनामक जो भेद है, उसमें व्याधि का अन्तर्भाव होता है, क्योंकि इन्द्रियों की अकर्मण्यता रूप जो अशक्ति है, वह व्याधिरूप ही है।
(सांख्य-योग दर्शन)
व्यान
पाँच वायुओं में यह एक है (योगसूत्र भाष्य 3.39)। 'व्यान व्यापी है,' 'व्यान त्वग्-वृत्ति है', इस प्रकार के वचनों से तथा प्रश्नोपनिषद् आदि में उक्त प्राणसंबंधी मतों से यह ज्ञात होता है कि व्यान बलप्रधान कर्म करने वाले शरीरयन्त्रों में अर्थात् चालनमन्त्रों में प्रधानतः अवस्थित हैं तथा हृदय से सर्वशरीर में व्याप्त नाडियों में (विशेषतः शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाडियों में) व्यान संचरण करता है। आधुनिक दृष्टि के अनुसार हम कह सकते हैं कि धमनी एवं शिरा में जो चालिकाशक्ति है, वह व्यान है।
(सांख्य-योग दर्शन)
व्युत्थान
विशेष प्रकार का आविर्भाव या उदय व्युत्थान है (वि + उत्थान)। वृत्ति का उदय होना या संस्कार का व्यक्त होना - दोनों ही व्युत्थान हैं। योगशास्त्रीय दृष्टि के अनुसार असंप्रज्ञातसमाधि की तुलना में संप्रज्ञातसमाधि भी व्युत्थान है। दार्शनिक दृष्टि से यह कहना होगा कि जब तक 'वृत्तिसारूप्य' है तब तक व्युत्थान है। यह वृत्तिनिरोध की विरोधी अवस्था है (तत्त्ववैशारदी 1.3)।
(सांख्य-योग दर्शन)
व्युत्थानसंस्कार
सदैव इन्द्रिय द्वारा विषय का ग्रहण करते रहना ही चित्त की व्युत्थित-अवस्था है। वस्तुतः चित्त की अनिरुद्ध अवस्था ही व्युत्थान है। अतः असंप्रज्ञातरूप सर्ववृत्तिनिरोध-अवस्था की दृष्टि से संप्रज्ञातसमाधि भी व्युत्थान है। इस व्युत्थित-अवस्था का भी संस्कार होता है जिसके कारण व्युत्थान होना सहज होता है तथा यह अवस्था दीर्घसमय तक विद्यमान रहती है। चित्त की समाहित अवस्था जब दृढ़भूमि-अवस्था में पहुँच जाती है तभी यह व्युत्थान-संस्कार से अभिभूत नहीं होती है (या अत्यल्प होती है)। समाधिप्रज्ञाजात संस्कार ही व्युत्थानसंस्कार की वासना को नष्ट करने में समर्थ होता है, और इस संस्कार का अभिभव हो जाने पर व्युत्थान का तिरोभाव होने लगता है। व्युत्थानसंस्कार प्रत्ययरूप (= ज्ञायमान अवस्था रूप) नहीं है, और प्रत्यय के निरोध से उसका निरोध नहीं होता; संस्कारनिरोध पृथक् प्रयत्नसाध्य है। व्युत्थानसंस्कार का अभिभव होने पर (निरोधसंस्कार के द्वारा) चित्त का निरोध-परिणाम होता है। (योगसूत्र 3/9)।