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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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वशीकार
वशीकार=वशीकरण, जो वश में नहीं था, उसको वश में लाना। 'वशीकार' का जो प्रयोग है उससे वशीकार का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। योगसूत्र 1/40 के अनुसार योगशास्त्रीय उपायों से स्थिति प्राप्त होने पर योगी का चित्त परमाणुपर्यन्त सूक्ष्मविषय में तथा स्थूल-भूत-पर्यन्त परममहत् विषय में स्वेच्छ्या बाधाहीन होकर विचर सकता है। चित्त को अभीष्ट किसी भी विषय में निविष्ट करना जब सहजसाध्य हो जाता है, किसी से भी चित्त के संचार से बाधा नहीं होती, तब यह स्थिति वशीकार कहलाती है। यह वशीकार की सर्वोच्च अवस्था है, जो 'परवशीकार' कहलाती है। इससे निम्नकोटि का वशीकार भी है, जो 'अपरवशीकार' कहलाता है। वैराग्य को 'वशीकारसंज्ञा' कहा जाता है। वहाँ 'वशीकार' से 'विषयकृत मनोविकारशून्यता' का बोध होता है; विषय में हेय-एवं-उपादेय-बुद्धि न होकर जो उपेक्षा-बुद्धि होती है वहीं वशीकारसंज्ञा है (योगसूत्र 1/15 का भाष्य)।
(सांख्य-योग दर्शन)

वश्यता
'वश्यता' का अर्थ 'वश्य का भाव'; वश्य = वश में रहने वाला। योगशास्त्र में 'वश्यता' का अभिप्राय 'इन्द्रियवश्यता' से है, अर्थात् अपने-अपने विषयों की ओर इन्द्रिय की जो प्रवृत्ति है उस प्रवृत्ति पर इन्द्रियाधीश मन का पूर्ण आधिपत्य होना - अनभीष्ट विषय की ओर इन्द्रियों की प्रवृत्ति न होना ही वश्यता है। इस वश्यता के भी कई भेद हैं (द्र. व्यासभाष्य 2/55) और इसका सर्वोच्च उत्कर्ष तब होता है कि जब चित्त की एकाग्रता से ही (अन्य किसी उपाय से नहीं) इन्द्रियों की (विषय की ओर) अप्रवृत्ति होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

वार्ता
स्वार्थ-संयम' से पुरुष-ज्ञान उत्पन्न होने से पहले जो सिद्धियाँ प्रयास के बिना प्रकट होती हैं, वार्ता उनमें से एक है (योगसूत्र 3/36)। इस सिद्धि से दिव्यगन्धसंविद् होती है। ह्लादयुक्त अलौकिक गन्ध का ज्ञान इसका स्वरूप है। वर्तमान लेखक की दृष्टि में सिद्धि का नाम वार्ता न होकर वार्त (अकारान्त) है; अर्वाचीन काल के आचार्यों ने भ्रमवश 'वार्ता' नाम कल्पित किया है।
(सांख्य-योग दर्शन)

वासना
वासना को आशय भी कहा जाता है (चित्तभूमि में शयन करने के कारण)। जो संस्कार केवल स्मृति को उत्पन्न करते हैं, वे वासना कहलाते हैं (द्र. व्यासभाष्य 2/13); कर्माशय रूप वासना जन्म, आयु एवं सुखदुःखभोग की नियामक है। अनुभवमात्र की वासना होती है; यही कारण है कि मरण-भयरूप स्मृति से पूर्वजन्म का (पूर्वजन्म में संचित वासना का) अनुमान पूर्वाचार्यों ने किया है। वासना अपने अनुरूप कर्मों द्वारा अभिव्यक्त होती है। चित्त की वृत्तियों पर वासना का प्रभाव अत्यन्त प्रबल है।
वासना अनादि है और चित्त अनेक प्रकार की वासनाओं द्वारा सदैव अनुरंजित रहता है। जिस प्रकार के कर्म का जैसा फल होता है, उस फल के भोग के अनुरूप वासना होती है। कैवल्य में चित्त एवं चित्तगत वासना का अभाव (अव्यक्त भाव) हो जाता है। यह जिन उपायों से संभव होता है, उनका विवरण योगसूत्र 4/11 में द्रष्टव्य है।
(सांख्य-योग दर्शन)

विकरणभाव
इन्द्रिय जप से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें से यह एक है (योगसू. 3.48)। देह-संबन्धहीन इन्द्रियों का किसी भी अभीष्ट देश, काल और विषय में वृत्तिलाभ अर्थात् उस देशादि से संबन्धित हो जाना - व्याप्त हो जाना - ही विकरणभाव है। इन्द्रियों की इस 'विकीर्णता' के कारण ही 'विकरण' नाम दिया गया है - ऐसा प्रतीत होता है। किसी-किसी के अनुसार भवप्रत्यय-समाधि से युक्त विदेहों का ही यह विकरणभाव होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

विकल्प
पाँच प्रकार की वृत्तियों में विकल्प एक है। भाषाज्ञान पर आश्रित जो वास्तव में विषयशून्य बोध होता है, वह विकल्प है (योगसूत्र 1/9)। विपर्यस्त ज्ञान होने पर भी यह मिथ्याज्ञान-रूप विपर्यय से पृथक् है, क्योंकि मिथ्याज्ञान को जानने वाला उस मिथ्याज्ञान का व्यवहार नहीं करता। विपर्यय के लिए भाषा का आश्रय अनावश्यक है - विषय और इन्द्रिय ही अपेक्षित हैं। विकल्प-रूप भ्रान्ति ज्ञान का व्यवहार सदैव चलता रहता है, जब तक निर्विचारा समापत्ति अधिगत न हो। (इस समाधि से जात ऋतम्भरा प्रज्ञा में विकल्प की गन्ध भी नहीं है)। भाषाव्यवहार में ही विकल्पवृत्ति रहती है।
यह विकल्प वस्तु, क्रिया और अभाव के भेद से तीन प्रकार का होता है। वस्तुविकल्प का उदाहरण है - 'राहु का शिर'; जो राहु है, वही शिर है, अतः यहाँ अभिन्न पदार्थ में जो भाषाश्रित भेदज्ञान होता है, वह विकल्प है। 'राहु का शिर' ऐसा शब्दज्ञानजनित व्यवहार सिद्धवत् चलता ही रहता है। क्रियाविकल्प का उदाहरण यह है - 'बाण चल नहीं रहा है' इस वाक्य में वस्तुतः बाण न चलने की कोई क्रिया नहीं कर रहा है; वह अवस्थित ही है और उस अवस्थित भाव को 'न चलना' रूप क्रिया कहा जाता है। अभाव-विकल्प का उदाहरण है - पुरुष (तत्त्व) अनुत्पत्तिधर्मा है; यहाँ पुरुष में अनुत्पत्तिरूप धर्म की सत्ता कही गई है, यद्यपि वैसा कोई धर्म पुरुष में नहीं है - उनमें उत्पत्ति-धर्म का अभाव मात्र है। पुरुष ही चैतन्य है; पर 'पुरुष का चैतन्य' ऐसा जब कहा जाता है, तब वह वस्तुविकल्प का पारमार्थिक उदाहरण होता है। 'पुरुष निष्क्रिय (क्रिया का अतिक्रमणकारी) है' - यह वाक्य (अर्थात् वाक्यजनित ज्ञान) क्रियाविकल्प का उदाहरण है, क्योंकि पुरुष (तत्त्व), वस्तुतः अतिक्रमण क्रिया करते नहीं हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

विकृति
'विकृति' शब्द दो अर्थों में सांख्योगशास्त्र में प्रयुक्त होता है। एक अवस्था से अन्य अवस्था में जाना ही विकृति/विकार है जो 'परिणाम' शब्द से प्रायः अभिहित होता है (द्र. 'परिणाम')। 'विकृति' (या 'केवलविकृति') अथवा 'विकार' शब्द पारिभाषिक भी है, जो सांख्यशास्त्रीय सोलह विकारों (पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन) के लिए प्रयुक्त होता है। ये सोलह पदार्थ किसी तत्त्व के उपादान नहीं हैं, यद्यपि भूततत्त्व का भौतिक रूप अतात्त्विक परिणाम होता है (द्र. सां. का. 3 की तत्त्वकौमुदी टीका)।
(सांख्य-योग दर्शन)

विक्षिप्तभूमि
चित्त की पाँच भूमियों (= सहज अवस्थाओं) में विक्षिप्त भूमि एक है। इस भूमि में अवस्थित चित्त न क्षिप्तभूमि में स्थित चित्त की तरह सदैव चंचल रहता है और न मूढ़भूमि में स्थित चित्त की तरह तमःप्रधान मोह से युक्त रहता है। कभी-कभी स्थैर्य का उद्भव हो जाना ही इस भूमि का वैशिष्ट्य है तथा इस भूमि में तत्त्वज्ञान का एक अस्पष्ट रूप भी कदाचित् प्रकट हो जाता है। इस भूमि में भी समाधि हो सकती है, पर यह समाधि कैवल्य की दृष्टि से व्यर्थ होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

विक्षेप तथा चित्तविक्षेप
जब विभिन्न विषयों में संस्कारवश चित्त का संचरण स्वाभाविक-सा होता रहता है, तब वह विक्षेप कहलाता है। चित्त स्वभावतः यदि इस रूप में रहता है, तो उस चित्त को विक्षिप्त-भूमिक चित्त कहा जाता है। योगाभ्यासजात स्थैर्य उद्भूत होने पर भी यह विक्षेप नष्ट नहीं होता; यही कारण है कि विक्षिप्तभूमिक चित्त में उपायविशेष से समाधि आविर्भूत होने पर भी वह प्रकृत योग के पक्ष में नहीं आता - यह व्यासभाष्य में स्पष्टतया कहा गया है (1/1 भाष्य द्र.)। योगसूत्र में चित्त को विक्षिप्त करने वाले पदार्थ भी 'चित्तविक्षेप' शब्द से कहे गए हैं। ये चित्त-विक्षेपक पदार्थ योग के अन्तराय हैं, जो संख्या में नौ हैं (योगसूत्र 1/30)। दुःख, दौर्मनस्य, अङ्गमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास को विक्षेप के सहभू (= सहजात) के रूप में माना गया है (योगसूत्र 1/31)।
(सांख्य-योग दर्शन)

विच्छिन्न
अस्मिता आदि क्लेशों की चार अवस्थाओं में विच्छिन्न एक है (योगसू. 2/4)। किसी क्लेश का व्यापार जब कुछ क्षण के लिए रुद्ध हो जाता है तब वह क्लेश विच्छिन्न अवस्था में है, ऐसा कहा जाता है। उदाहरणार्थ, रागरूप क्लेश तब विच्छिन्न हो जाता है जब सम्बन्धित विषय पर द्वेष हो जाता है। जिस प्रकार यह विच्छिन्न-अवस्था अन्य क्लेश के द्वारा अभिभूत होने पर होती है उसी प्रकार एक विषय में किसी क्लेश का विच्छेद तब होता है जब अन्य विषय में वह क्लेश रहता है, जैसे एक स्त्री में अत्यधिक राग रहने पर अन्य स्त्री में (कुछ काल के लिए) राग नहीं रहता - राग विच्छिन्न हो जाता है, यद्यपि यह राग उस स्त्री पर भी बाद में हो ही सकता है। क्लेशों की प्रसुप्त अवस्था जिस प्रकार दीर्घकालस्थायी होती है, यह विच्छिन्न अवस्था वैसी दीर्घकालिक नहीं होती। जिस प्रकार प्राकृतिक हेतु से क्लेश विच्छिन्न हो सकता है, उसी प्रकार योगसाधन में भी विच्छिन्न हो सकता है।
(सांख्य-योग दर्शन)


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