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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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शिवाचार
देखिए 'पंचाचार'।
(वीरशैव दर्शन)

शिवोടहं-भावना
मैं शिवस्वरूप हूँ' इस प्रकार की शुद्‍ध मानसिक चेष्‍टा को 'शिवोടहं भावना' कहा जाता है। शिव-ज्ञान के अनंतर इस भावना की आवश्यकता होती है, क्योंकि ज्ञान ज्ञाता को ज्ञेय का परिचय कराता है और भावना ज्ञाता को ज्ञेय स्वरूप बना देती हे। जैसे कीट को भृंग का ज्ञान होने मात्र से वह भृंग नहीं होता, किंतु अनवरत उसी का ध्यान करते रहने से वह भी भृंग बन जाता है। उसी प्रकार शिवज्ञान होने मात्र से जीव शिवस्वरूप नहीं होता, किंतु शिवोടहं भावना से वह भी शिव बन जाता है। यहाँ पर भावना का अर्थ है निदिध्यासन। इससे ध्याता के विपरीत ज्ञान की संपूर्ण निवृत्‍ति हो जाती है, अर्थात् इस शिवोടहं-भावना से 'मैं अणु हूँ,' 'मैं अल्पज्ञ हूँ' इस प्रकार का उसका विपरीत ज्ञान निवृत्‍त हो जाता है और ध्याता जीव शिवस्वरूप बन जाता है। इसीलिये इस भावना को आंतरिक चक्षु कहा गया है। जैसे चक्षुरहित व्यक्‍ति रूप के साक्षात्कार में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार इस भावना से रहित ज्ञानी भी स्वांतं स्थित शिव को नहीं देख पाता।
अतः शिवज्ञान के साथ शिवोടहं भावना की भी आवश्यकता वीरशैव दर्शन में बताई गयी है। इस 'शिवोടहं भावना' को भावलिंग की अर्चना कहा गया है (सि.शि. 16/2-8 पृष्‍ठ 76-78)।
(वीरशैव दर्शन)

शील-संपादन
शिवज्ञान, शिवध्यान और शिव की ही प्राप्‍ति के लिए साधक में रहने वाली उत्कट उत्कंठा (प्रबल इच्छा) को 'शील' कहते हैं। मन में इस प्रकार की उत्कंठा का उदय होना ही 'शील-संपादन' कहलाता है। जिस साधक के मन में शिव-संबंधी यह प्रबल इच्छा रहती है, उसे 'शीलवान्' कहते हैं और वही शिवत्व को प्राप्‍त कर लेने का उत्‍तम अधिकारी होता है। जैसे पतिव्रता स्‍त्री सदा पतिपरायण रहती है, उसी प्रकार यह शीलवान् सद्‍भक्‍त भी शिव की ही पूजा, ध्यान आदि में आसक्‍त रहता है और वह किसी अन्य देवता की पूजा आदि में अनुरक्‍त नहीं होता (सि.शि. 13/1-7 पृष्‍ठ 28-29)।
(वीरशैव दर्शन)

शून्य
वीरशैव मत में 'शून्य' शब्द अभाववाचक न होकर एक अव्यक्‍त एवं सब तत्वों के आश्रयभूत पूर्ण तत्व का वाचक है। वीरशैव संतों ने अपनी वाणियों (वचनशास्‍त्र) में प्रपंच के प्रकट होने से पहले की शिव की स्थिति को 'शून्य' शब्द से संकेतित किया है। इस शून्य को ही कन्‍नड भाषा में 'बयलु' कहते हैं। परशिव के सत्-चित्-आनंद-स्वरूप के तथा अन्य सभी तत्वों के भी स्फुरण से पहले की अवस्था को शून्य कहते हैं। साधारणतया वीरशैव संत सब तत्वों के आविर्भाव के पहले इस तत्व की स्थिति मानते हैं। इस तत्व को शून्य इसलिये कहते हैं कि इसमें अभी कारणता नहीं आई है और यह किसी का कार्य भी नहीं है। यह मन और वाणी का विषय नहीं है। इस प्रकार इस तत्व के बारे में किसी प्रकार का व्यवहार न होने के कारण इसे शून्य कहते हैं।
इस शून्य स्थिति के भी सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम के भेद से तीन प्रकार कल्पित हैं। इनमें 'सर्वशून्य निरालंब' स्थिति सूक्ष्मतम अवस्था है। 'शून्यलिंग' सूक्ष्मतर है और 'निष्कल लिंग' सूक्ष्म है (व.वी.ध.पृ. 100-101; शि.श.को. पृष्‍ठ 1, 16; वी.ध.त.सि.पृष्‍ठ 89)।
क. सर्वशून्य-निरालंब
परशिव की वह सूक्ष्मतम और सहज अवस्था है, जिसका इदमित्थं करके निरूपण नहीं किया जा सकता। यह वह तत्व है, जो कि आदि-अनादि, शून्य-निशून्य और भेद-अभेद से परे है। इसका आलंब (आधार) दूसरा कोई नहीं है, किंतु यही सर्वाधार है। अतएव इसे निरालंब कहते हैं। इसी को 'निःशून्यवस्तु' 'सर्व-वू-शून्यवागि', 'निर्बयलु' इत्यादि पर्याय नामों से कहा गया है (व.वी.ध.पृष्‍ठ 100-101;शि.श.को. पृष्‍ठ 16; वी.ध.त. सि.पृ. 86)।
ख. शून्यलिंग
यह 'सर्वशून्य निरालंब' के बाद की अवस्था है। अतः यह सूक्ष्मतर है। इस समय यह निरालंब न होकर शून्यालंब होती है। यह भी वाणी, मन तथा भाव का अगोचर ही है। सर्वशून्य-निरालंब अवस्था में वह पूर्ण स्वरूप अपने में आप है, अतएप शून्य को आलंब नहीं करता। यह एक अव्यक्‍त महासंकल्प-अवस्था है। उसमें जब संकल्प व्यक्‍त होता है, तब उसको अपने संकल्प के कारण शून्य को आलंबन बनाना पड़ता है। तब वह सर्वशून्य निरालंब ही शून्यलिंग बन जाता है। यह शून्यलिंग ही एक प्रकार से भावी शुद्‍ध तत्वोत्पत्‍ति का पूर्वाभास है। इसमें सब कुछ शून्य स्थिति में है (अ.वी.सा.सं. 4/1-18;व.वी.ध. पृष्‍ठ 101)।
ग. निष्‍कल-लिंग
शून्यलिंग के बाद की अवस्था है निष्कल-लिंग। इस अवस्था में परशिव सत्-चित्-आनंद, नित्यपरिपूर्ण और निरंजन स्वरूप में रहता है। यह सब तत्वों की गर्भावस्था है, अर्थात् निष्कल-लिंग के गर्भ में भावी सभी तत्व शून्य रूप छोड़कर सूक्ष्मरूप में रहते हैं। इस तत्व को 'निष्कल' इसलिए कहा जाता है कि इसमें सब कलायें अव्यक्‍त रूप में रहती हैं। दृश्य प्रपंच के कारणीभूत अखंड गोलाकार महालिंग की उत्पत्‍ति का स्थान ही निष्कल लिंग है (व.वी.ध.पृ. 101; अ.वी.सा.सं. 5/1-21; शि.श.को.पृष्‍ठ 16)।
(वीरशैव दर्शन)

शून्य-संपादन
शून्य की प्राप्‍ति या अनुभूति को 'शून्य-संपादन' कहते हैं। अत्यंत सूक्ष्म मूलतत्व को, जो न किसी का कार्य है और न वह अभी कारणता को ही प्राप्‍त हुआ है, वीरशैव-संतों ने 'शून्य' कहा है। उसको शून्य इसलिये भी कहा जाता है कि उस अखंड तत्व को वाणी, मन तथा अशुद्‍ध बुद्‍धि से नहीं जाना जा सकता। उस तत्व के विषय में वे बाह्य और आंतरिक इंद्रियाँ व्यापार-शून्य हो जाती हैं। इस प्रकार अशुद्‍ध मन, बुद्‍धि आदि के लिये अगोचर होने के कारण उस परमतत्व को 'शून्य' कहा गया है। मन और वाणी के अगोचर उस तत्व को शुद्‍ध बुद्‍धि से प्राप्‍त करना ही शून्य-संपादन है।
वीरशैव संत साहित्य में 'शून्य संपादने' नाम का एक कन्‍नड भाषा का ग्रंथ है। इसमें उस अगोचर शून्य तत्व के विषय में संतों के अमूल्य विचारों का संग्रह है। इस ग्रंथ में 'प्रभुदेव', 'अक्क-महादेवी', 'बसवेश्‍वर', 'चन्‍न बसवेश्‍वर' आदि प्रमुख वीरशैव संतों का, जिन्होंने अपने-अपने अहंकार को शून्य करके उस परम शून्य तत्व का स्वात्मरूप से अनुभव किया था, परस्पर तात्विक संवाद बहुत ही सुंदर रूप में चित्रित है। यह ग्रंथ बारहवीं शताब्दी के वीरशैव संतों के धार्मिक, सामाजिक तथा नैतिक जीवन का भी परिचायक है। यह कथात्मक होने पर भी गंभीर विचारों से भरा हुआ है। कथाओं के माध्यम से यहाँ 'शून्य' प्रभृति तत्वों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। वीरशैव संत-साहित्य में यह ग्रंथ प्रमुख माना जाता है।
इस ग्रंथ का 'शिवगण-प्रसादीमहादेवय्या', 'गुम्मलापूर- सिद्‍धलिंगयति', 'गुलूरु-सिद्‍धवीरणाचार्य' और 'केंच-वीरण्णोडये' आदि विद्‍वानों ने अपनी-अपनी पद्‍धति से संपादन किया है। इन ग्रंथों का समय 15वीं शताब्दी माना जाता है (वी.त.प्र.पृ. 151; व.वी.ध. पृष्‍ठ 129-130)।
(वीरशैव दर्शन)

श्रद्‍धाभक्‍ति
देखिए 'भक्‍ति'।
(वीरशैव दर्शन)

षट्‍स्थल
देखिए 'अंग-स्थल'।
(वीरशैव दर्शन)

षट्‍स्थल-संप्रदाय
जीव को मोक्ष की प्राप्‍ति कराने वाली षट्‍स्थल-प्रक्रिया के प्रतिपादक वीरशैव दर्शन को षट्‍स्थल-संप्रदाय कहते हैं। इस संप्रदाय में उपासक अंग (जीव) के मोक्षमार्ग में प्रवृत्‍त होने पर क्रमशः भक्‍त, महेश्‍वर, प्रसादी, प्राणलिंगी, शरण तथा ऐक्य नाम की छः अवस्थाओं की प्राप्‍ति बताई गयी है इन अवस्थाओं की परिभाषा 'अंग-स्थल' शब्द में प्रतिपादित है। जैसे उपासक जीव की छः अवस्थायें हैं, उसी प्रकार उपास्य लिंग (शिव) की भी आचारलिंग, गुरुलिंग, शिवलिंग, जंगम-लिंग, प्रसादलिंग और महालिंग के नाम से छः लीला-अवस्थायें मानी गयी हैं (इन अवस्थाओं की परिभाषा के लिये 'लिंग-स्थल' शब्द देखिये)।
शिव के इन लीला-विग्रहों की उपासना करता हुआ जीव अपनी उपासना के बल से तथा शिव के अनुग्रह के क्रमशः भक्‍त, महेश्‍वर आदि अवस्थाओं को प्राप्‍त करता हुआ अंत में 'ऐक्य-स्थल' में महालिंग के साथ समरस हो जाता है। इस प्रकार छः प्रकार की उपासनाजन्य अवस्थाओं की प्राप्‍ति के द्‍वारा उपासक जीव के लिये मोक्षमार्ग के प्रतिपादक इस वीरशैव दर्शन को षट्‍स्थल-संपदाय कहा गया है।
(वीरशैव दर्शन)

सत्याचार
देखिए 'सप्‍ताचार'।
(वीरशैव दर्शन)

सदाचार
देखिए 'पंचाचार'।
(वीरशैव दर्शन)


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