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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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वीर
देखिए 'वीरशैव'।
(वीरशैव दर्शन)

वीर-माहेश्‍वर
देखिए 'अंग-स्थल' शब्द के अंतर्गत 'महेश्‍वर'।
(वीरशैव दर्शन)

वीरशैव
वीरशैव उन्हें कहते हैं, जो निरंतर अहर्निश मृत्युपर्यंत शिवलिंग को गले में धारण किये रहते हैं और अपने को 'वीर', 'नंदि', 'भृङि्ग, 'वृषभ' तथा 'स्कंद' इन पाँच गणाधीश्‍वरों के गोत्र में उत्पन्‍न बतलाते हैं। ये लोग शिवलिंग को अपने प्राण से भी अधिक मानते हैं तथा उसको देह से कदापि अलग नहीं करते। इन्हें प्राकृत भाषा (कन्‍नड) में 'लिंगायत' कहते हैं। (हिं. पृष्‍ठ 694-95)।
वीरशैव' शब्द में जो 'वीर' विशेषण है, वह इतर शैवों से इनको अलग करता है। 'वीर' शब्द की दार्शनिक और सांप्रदायिक दो परिभाषायें है। दार्शनिक परिभाषा 'वी' का अर्थ है विद्‍या, जो शिव और जीव का अभेद या लिंगांग के सामरस्य का प्रतिपादन करने वाली है; 'र' का अर्थ है रमण, अर्थात् शिव-जी-वैक्य-बोधन करने वाली विद्‍या में जो आनंद को प्राप्‍त करता है वह 'वीर' कहलाता है। और इस 'वीर' विशेषण वाला शैव ही वीरशैव है। (सि.शि. 5/15,16,18 पृष्‍ठ 57,58)।
सांप्रदायिक परिभाषा : वीरव्रत या वीरधर्म वाला शैव ही वीरशैव है। वीरशैवों को अपने इष्‍टलिंग (शिवलिंग) का देह से कदापि वियोग नहीं करना चाहिए, प्रमाद से कदाचित् इष्‍टलिंग के शरीर से गिर जाने पर प्राण त्याग करने का आदेश है (सि.शि. 6/5-7 पृष्‍ठ 90)। इस आदेश के अनुसार जो विकल्परहित होकर प्राण त्याग देता है उसमें रहने वाली शिवलिंग-निष्‍ठा ही वीर-व्रत या वीरधर्म कहलाती है और उस वीरधर्म वाला शैव ही वीरशैव है (चं.ज्ञा.आ.क्रियापाद 10/33,34; पा.तं. 1/66-67; वि.प्र. 2/31; क्रि.सा. 1/3)।
इसके अलावा यदि कहीं मंदिर में स्थापित शिवलिंग के अथवा शिवभक्‍त के नष्‍ट होने का या बाधा का भय हो, तो हिंसात्मक आक्रमणों को रोकने के लिये एक वीरशैव को अपने प्राण को भी संकट में डाल देना चाहिये। यह भी 'वीरधर्म' कहलाता है। इस धर्म का पालन करने वाला 'वीरशैव' है। (सि.शि. 9/34,35 पृष्‍ठ 147-48)।
इस प्रकार इसका तात्पर्य यह हुआ कि इष्‍टलिंग को गले में सदा धारण करने वाला, प्रसंग होने पर शिव के लिये अपना प्राण भी त्याग देने वाला और शिव-जीवैक्य-बोधक विद्‍या में रमण करने वाला 'वीर' कहलाता है। इन लक्षणों से युक्‍त शैव ही वीरशैव है।
वीर-शैवों में वर्णाश्रम संपूर्ण माना जाता है। इस संप्रदाय के ब्राह्मण को 'भूरुद्र', 'वीरमाहेश्‍वर' या 'जंगम' कहते हैं और शेष वीर-शैव 'शीलवंत', 'बणजिग' और 'पंचम शाली' कहलाते हैं। वीरशैवों का भी वैवाहिक संबंध समान गोत्रसूत्र वालों के साथ न होकर अपने से भिन्‍न गोत्रसूत्र वालों के साथ किया जाता है (हिं. पृष्‍ठ 694-697)।
(वीरशैव दर्शन)

वीरशैव-सिद्‍धांत
साक्षात् श्री शिव के मुख से शैव, पाशुपत, सोम और लाकुल सिद्‍धांत के अनेक आगम निःसृत हुये हैं। उनमें शैवतंत्र-वाम, दक्षिण, मिश्र और सिद्‍धांत-शैव के नाम से चार प्रकार के हैं। इनमें से सिद्‍धांत-शैव के 'कामिकादि वातुलांत' 28 आगम हैं। इन आगमों के उत्‍तर भाग में वीरशैव सिद्‍धांत प्रतिपादित है (सि.शि. 5/9-14, पृष्‍ठ 55-57)।
आगमों में प्रतिपादित वीरशैव-सिद्‍धांत का 'शिवयोगि शिवाचार्य' ने अपने 'सिद्‍धांत-शिखामणि' ग्रंथ में संग्रह किया है। यह ग्रंथ 'जगद्‍गुरुरेणुकाचार्य' और 'महर्षि अगस्त्य' के संवाद के रूप में है। यह वीरशैव सिद्‍धांत का प्रमुख और प्रामाणिक ग्रंथ है।
वीरशैव सिद्‍धांत में जीव, शिव और जगत् ये तीनों सत्य हैं (ब्र. सूत्र 2-3-40 श्रीकर. भा. पृष्‍ठ 274)। 'जीव' शिव का अंश और अणु परिमाण है (सि.शि. 5/34 पृष्‍ठ 63; अनु.सू. 5/3)। शिव सर्वव्यापक और शक्‍तिविशिष्‍ट है (सि.शि. 20/4 पृष्‍ठ 202)। यह जगत् शिव और शक्‍ति का ही विकास है। अतएव जीव और जगत् को भी शिवस्वरूप माना जाता है (सि.शि. 10/2-9, पृष्‍ठ 187-190)।
गुरु से दीक्षा प्राप्‍त करके अष्‍टावरणों से संयुक्‍त हुआ शुद्‍ध जीव ही इस सिद्‍धांत का अधिकारी है (श्रीकर. भा. 1-1-1; ब्र.सू.वृ. पृष्‍ठ 17-34)। यहाँ मोक्ष के लिये 'अंधपंगुन्याय' से ज्ञान और कर्म इन दोनों का सम-समुच्‍चय माना जाता है, अर्थात् ज्ञान और कर्म ये दोनों समान रूप से मोक्ष के कारण हैं (सि.शि. 16/11-14 पृष्‍ठ 74-75)।
यह जगत् शिवात्मक है, शिव से भिन्‍न नहीं; और मैं भी शिवस्वरूप हूँ। इस प्रकार की उत्कृष्‍ट भावना को ज्ञान कहते हैं (सि.शि. 16/8 पृष्‍ठ 81)। इस सिद्‍धांत में अपने-अपने इष्‍टलिंग की पूजा की 'कर्म' कहा गया है (सि.शि. 16/5 पृष्‍ठ 73)। स्वस्वरूप का ज्ञान होने पर भी इष्‍टलिंग की पूजा के आमरण अनुष्‍ठान करने का विधान है। अतएव वीरशैव-सिद्‍धांत ज्ञान, कर्म का सम-समुच्‍चय माना जाता है (सि.शि. 16/12-14, पृष्‍ठ 75)।
इस सिद्‍धांत में संसारदशा में शिव और जीव का भेद और मुक्‍तावस्था में उन दोनों का अभेद माना जाता है। अतः इस सिद्‍धांत को 'भेदाभेद' कहते हैं (श.वि.द. पृष्‍ठ 115-117)। इस सिद्‍धांत के 'शक्‍तिविशिष्‍टाद्‍वैत', 'विशेषाद्‍वैत', 'द्‍वैताद्‍वैत', 'भेदाभेद' और 'शिवाद्‍वैत' ये पाँच नाम हैं।
(वीरशैव दर्शन)

वेध-दीक्षा
देखिए 'दीक्षा'।
(वीरशैव दर्शन)

शक्‍ति
वीरशैव दर्शन में 'शक्‍ति' परशिव का एक अविभाज्य स्वरूप है। जैसे चंद्रमा में वस्तुओं की प्रकाशिका चांदनी अविनाभाव संबंध से रहती है, उसी प्रकार समस्त विश्‍व को प्रकाशित करनेवाली यह शक्‍ति परशिव के साथ अविनाभाव-संबंध से रहती है (सि.शि. 20/4 पृष्‍ठ 202)। सृष्‍टि की रचना में यह शक्‍ति परशिव की सहायक बनती है, अतः इसे सर्वलोकों की प्रकृति तथा परशिव की सहधर्मचारिणी कहा गया है (सि.शि. 1/8 पृष्‍ठ)।
यह शक्‍ति वस्तुत: एक होने पर भी सृष्‍टि के समय स्व-स्वातंत्र्य बल से चिच्छक्‍ति, पराशक्‍ति, आदिशक्‍ति, इच्छाशक्‍ति, ज्ञानशक्‍ति तथा क्रियाशक्‍ति के नाम से छः प्रकार की हो जाती है। (अनु.सू. 3/26, 2/7)।
क. चिच्छक्‍ति
सूक्ष्म कार्य-कारण रूप प्रपंच की उपादानकारणीभूत शक्‍ति ही 'चिच्छक्‍ति' कहलाती है (शि.मं. पृष्‍ठ 27)। इसी को विमर्शशक्‍ति और परामर्श-शक्‍ति भी कहा जाता है। यह शक्‍ति बोधरूप है, अर्थात् इस चिच्छक्‍ति या विमर्श शक्‍ति से संयुक्‍त होने पर ही परशिव को 'अस्मि' (मैं हूँ), 'प्रकाशे' (मैं प्रकाशमान हूँ), 'नंदामि' (मैं आनंदरूप हूँ) इत्याकारक, सत-चित्-आनंदस्वरूप का बोध होता है। अपने प्रकाशमय स्वरूप का बोध न होने पर स्फटिक आदि की तरह परशिव को भी जड़ मानना पड़ेगा, जो कि अभीष्‍ट नहीं है (सि.शि. 2/12,13 पृष्‍ठ 14)।
इस विमर्श-शक्‍ति के कारण ही परशिव सर्वकर्ता, सर्वव्यापक और सर्व कर्मों का साक्षी बन जाता है (सि.शि. 20/4, पृष्‍ठ 199)। यह विमर्श-शक्‍ति ही 'शिवतत्व' से 'पृथ्वीतत्व' स्थिति एवं लय का भी कारण है (शि. मं. पृष्‍ठ 33-34; सि.श. 20/1 :5 पृष्‍ठ 198-199)।
ख. पराशक्‍ति
योगियों के ध्यान-योग्य अपने को बनाने के लिए चिच्छक्‍ति-युक्‍त परशिव जब चिंतन करने लगता है, तब परशिव के सहस्रांश से 'पराशक्‍ति' का प्रादुर्भाव होता है (वा.शु. तंत्र 1/24)। यह आनंद-स्वरूप है, इसे ही परशिव की अनुग्रह-शक्‍ति कहा जाता है। इसी शक्‍ति से युक्‍त होकर वह योगियों के ऊपर अनुग्रह करता है (शि. मं. पृष्‍ठ 27)।
ग. आदि-शक्‍ति
पराशक्‍ति के सहस्रांश से आदि-शक्‍ति का उदय होता है (वा.शु.तं. 1/25)। प्रपंच की कारणीभूत इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्‍ति के पहले इसकी स्थिति है, अर्थात् आदि-शक्‍ति से ही इनकी उत्पत्‍ति होती है। अतएव इसे आदिशक्‍ति कहा जाता है (शि.मं. पृष्‍ठ 27)। इस आदिशक्‍ति से संयुक्‍त होकर ही परशिव प्राणियों का निग्रह करते हैं, अर्थात् प्राणियों के निगृहीत करने की सामर्थ्य इस आदिशक्‍ति से यही प्राप्‍त है।
घ. इच्छा-शक्‍ति
आदि शक्‍ति के सहस्रांश से इच्छाशक्‍ति का उदय होता है (वा.शु.तं. 1/25)। ज्ञानशक्‍ति और क्रिया-शक्‍ति इन दोनों शक्‍तियों की साम्यावस्था को ही इच्छा-शक्‍ति कहते हैं। यह इच्छा-शक्‍ति ही अपने में विद्‍यमान ज्ञान और क्रियाशक्‍तियों के माध्यम से इस विश्‍व को उत्पन्‍न करती है। यही विश्‍व की बीज रूप है। संहार के समय यह विश्‍व पुन: इच्छाशक्‍ति में ही विलीन होकर रहता है, अतः इस इच्छाशक्‍ति को संहार-शक्‍ति भी कहा जाता है। इसी से युक्‍त होकर ही परशिव प्रपंच का संहार करता है (शि.मं. पृष्‍ठ 27,34)।
ड. ज्ञानशक्‍ति
इच्छा-शक्‍ति के सहस्रांश से ज्ञानशक्‍ति की उत्पत्‍ति होती है। (वा. शु. तं. 1/26)। इस ज्ञानशक्‍ति के कारण ही शिव सर्वज्ञ कहलाता है और उसको अपने में विद्‍यमान प्रपंच का 'इदं' (यह) इत्याकारक बोध होता है। अतएव इस ज्ञान-शक्‍ति को बहिर्मुख शक्‍ति भी कहते हैं। इस शक्‍ति से युक्‍त होकर शिव प्रपंच की उत्पत्‍ति में निमित्‍त कारण बनता है और उत्पत्‍ति के अनंतर उसका पालन भी करता है (शि.मं. पृ. 27, 34)।
च. क्रियाशक्‍ति
ज्ञान-शक्‍ति के सहस्रांश से क्रियाशक्‍ति का प्रादुर्भाव होता है (वा.शु. तंत्र 1/26)। यह क्रियाशक्‍ति इस प्रपंच का उपादान-कारण होती है। इस शक्‍ति से युक्‍त होने से शिव सर्वकर्ता बन जाता है। यही शिव की कर्तृत्वशक्‍ति है। इस शक्‍ति को स्थूल प्रयत्‍नरूपा भी कहते हैं (शि.मं. पृष्‍ठ 27, 34)।
(वीरशैव दर्शन)

शक्‍तिविशिष्‍टाद्‍वैत
वीरशैवदर्शन को 'शक्‍तिविशिष्‍टाद्‍वैत' नाम से संबोधित किया जाता है। 'शक्‍तिश्‍च शक्‍तिश्‍च शक्‍तीताभ्यां विशिष्‍टौ जीवेशौ तयोरद्‍वैतं = शक्‍तिविशिष्‍टाद्‍वैतम्' इस व्युत्पत्‍ति के अनुसार शक्‍ति-विशिष्‍ट जीव और शक्‍तिविशिष्‍ट शिव इन दोनों का अद्‍वैत, अर्थात् अभेद ही शक्‍तिविशिष्‍टाद्‍वैत है। यहाँ पर 'सूक्ष्मचिदचिद्रूपाशक्‍ति' तथा स्थूल चिदचिद्रूपाशक्‍ति के नाम से शक्‍ति के दो भेद हैं। सूक्ष्मचिच्छक्‍ति का अर्थ है सर्वज्ञत्व और सूक्ष्म अचिच्छक्‍ति का अर्थ सर्वकर्तृत्व है। इस तरह सर्वज्ञत्व और सर्वकर्तृत्वरूप शक्‍ति को 'सूक्ष्मचिदचिद्रूपाशक्‍ति' कहते हैं। यह शक्‍ति परशिवब्रह्म की है (शि.द. पृष्‍ठ 6-8)। इसी प्रकार स्थूलचिच्छक्‍ति का अर्थ है किंचिज्ज्ञत्व और स्थूलअचिच्छक्‍ति का अर्थ किंचित्-कर्तृत्व है। इस तरह किंचिज्ज्ञत्व और किंचित्-कर्तृव्य रूप शक्‍ति को 'स्थूलचिदचिद्रूपा शक्‍ति' कहते हैं। यह शक्‍ति जीव की है (शि.द. पृष्‍ठ 22-23)। इस प्रकार परस्पर शक्‍ति-विशिष्‍ट जीव तथा ईश्‍वर के सामरस्य, अर्थात् अभेद के प्रतिपादक इस दर्शन को 'शक्‍ति-विशिष्‍टाद्‍वैतदर्शन' कहते हैं।
यहाँ पर सर्वज्ञत्व आदि शक्‍ति-विशिष्‍ट को शिव और किंचिज्ज्ञत्व आदि शक्‍ति-विशिष्‍ट को जीव कहने का तात्पर्य यह है कि परशिव की लीलावस्था में दोनों का भेद है और शक्‍ति-विशिष्‍टों के अद्‍वैत का प्रतिपादन मुक्‍तिकाल में दोनों के अभेद को बतलाने के लिये है। इस तरह इस दर्शन में द्‍वैत और अद्‍वैत प्रतिपादक दोनों श्रुतियों का समन्वय हो जाता है (श.वि.द. पृष्‍ठ 17-19; क्रि.सा. 1-93-95)।
(वीरशैव दर्शन)

शरण
देखिए 'अंग-स्थल'।
(वीरशैव दर्शन)

शरण-स्थल
देखिए 'शरण'।
(वीरशैव दर्शन)

शांतिकला
देखिए 'कला'।
(वीरशैव दर्शन)


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