परिशुद्ध अंतःकरण वाले जीव को 'पिंड' कहते हैं। वीरशैव दर्शन में 'आणव' आदि मल-त्रय से आवृत परशिव का अंश ही जीव कहलाता है। यह अपने कर्मानुसार जन्म-मरण-चक्र में भ्रमण करता हुआ अनेक जन्मों में मन, वाणी तथा शरीर से जन्य पापों के प्रशमनार्थ यदि अनेक मनुष्य-जन्मों में पुण्य कार्य ही करता रहता है, तो उसके प्राक्तन नानाविध पाप ध्वस्त हो जाते हैं और वह पुण्यदेही बन जाता है, तथा उसमें शिवभक्ति का अंकुर उदित हो जाता है।
शुद्ध अंतःकरण वाले इसी जीव को वीरशैव संतों ने 'आदिपिंड' कहा है। आदिपिंड कहने का उनका तात्पर्य यह है कि पहली बार इसका अंतःकरण शुद्ध हुआ है और उसमें शिवभक्ति का उदय हुआ है। यह अन्य जीवों से विलक्षण है। इसको 'चरम-देही' कहा जाता है, अर्थात् यही इसका चरम अंतिम देह है। अब इसका पुनर्जन्म नहीं होने वाला है। इसी जन्म में यह विवेक और वैराग्य को प्राप्त करके वीरशैवों की उपासना के क्रम से मुक्त हो जाता है-(सि. शि. 5/31-33 तथा 52-54, पृष्ठ 62,63, 72; तो.व.को. पृष्ठ 43)।
(वीरशैव दर्शन)
पिंड-ज्ञानी
आत्मानात्म-विवेक-संपन्न जीव को वीरशैव दर्शन में 'पिंडज्ञानी' कहते हैं। शरीर आदि से आत्मा के पार्थक्य का ज्ञान ही 'पिंडज्ञान' है, अर्थात् नश्वर शरीर, इंद्रिय, मन तथा बुद्धि को अनात्मा जानकर उससे भिन्न सनातन और मुख्य अहं-प्रत्यय (मैं इस प्रकार के ज्ञान) के विषयीभूत चैतन्य को ही आत्मा समझना पिंडज्ञान है। इसे 'आत्मानात्म विवेक' और 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विज्ञान' भी कहा गया है। इस विवेक से युक्त शुद्ध अंतःकरण वाला जीव ही 'पिंड-ज्ञानी' कहलाता है। यह शरीर आदि से अपने को भिन्न मानता हुआ भी शिव को भी अपने से भिन्न तथा अपना प्रेरक मानता है। इस तरह इसमें अभी भेदबुद्धि बनी रहती है (सि.शि. 5/1-6 पृष्ठ 73-75)।
इस 'पिंडज्ञानी' को वीरशैव संतों ने 'मध्य-पिंड' कहा है। इसको 'मध्य-पिंड' इसलिये कहा जाता है कि अविवेकी-जीव और मुक्त जीव इन दोनों के बीच में इसकी स्थिति रहती है, अर्थात् आत्मानात्मा के विवेक का उदय होने से यह सामान्य संसारी जीवों से श्रेष्ठ है, और इसको अभी परशिव के साथ सामरस्य (एकता) का बोध नहीं हुआ है, अतः उन मुक्तात्माओं से यह कनिष्ठ है। इस प्रकार उन दोनों के मध्य अवस्थित होने से यह 'मध्य-पिंड' कहलाता है (तो.व.को. पृ.283)।
(वीरशैव दर्शन)
पुरातनरु
तमिलनाडु प्रदेश में 63 शैवसंत हो गये हैं। इन संतों को ही कन्नड़ भाषा में 'पुरातनरु' कहा जाता है। इन सबका आविर्भाव-काल नवीं शताब्दी माना जाता है। इनमें अठारह ब्राह्मण, बारह क्षत्रिय, पाँच वैश्य, चौबीस शूद्र, एक हरिजन तथा तीन स्त्रियाँ हैं। इस प्रकार इन तिरसठ संतों में सभी वर्णो के स्त्री-पुरुष पाये जाते हें। तमिल भाषा में इन्हें '63 नायनार्' कहा गया है। बारहवीं सदी में तमिल भाषा के सुप्रसिद्ध कवि 'शेक्किलार'ने 'तिरुत्तोण्डार-पुराणम्' या 'पेरियपुराणम्' नामक बृहद् ग्रंथ की रचना की, जिसमें इन 63 संतों का विस्तृत चरित्र पाया जाता है। इस 'पेरिय पुराणम्' को तमिल साहित्य का पाँचवाँ वेद कहा गया है।
इन संतों की जीवनी से ज्ञात होता है कि इनमें से कुछ शिवलिंग की पूजा से तथा अन्य गुरुजनों के ज्ञानोपदेश से मुक्त हो गये हैं। कर्नाटक के अनेक वीरशैव संत तथा कवियों ने इन शैव संतों की स्तुति की है तथा इनके चरित्र का वर्णन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि वीरशैव संतों पर उन पुरातन शैव संतों का गहरा प्रभाव रहा है। कन्नड़ भाषा में इन शैव संतों के चरित्र-प्रतिपादक अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनमें वीरभद्र कवि का 'अरवत्तु-मूवर-पुराण', निजगुण शिवयोगी का 'अरवत्तुमूरुमंदि-पुरातन-स्तोत्र', अण्णाजी का 'सौंदर-विलास' आदि प्रसिद्ध है। उपमन्यु मुनि के 'भक्तिविलास सम्' नामक संस्कृत ग्रंथ में भी इन सबका चरित्र वर्णित है। (वी.त.प्र. पृष्ठ 212-220; द.भा.इ.पृष्ठ 320, 328)।