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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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निष्कल लिंग
देखिए 'शून्य'।
(वीरशैव दर्शन)

निष्‍ठा भक्‍ति
देखिए 'भक्‍ति'।
(वीरशैव दर्शन)

नेनहु
यह कन्‍नड़ शब्द है। वीरशैव संत-साहित्य में इसका प्रयोग मिलता है। 'नेनहु' शब्द का अर्थ होता है 'महासंकल्प', अर्थात् इस विश्‍व की उत्पत्‍ति के पूर्व परशिव में 'एकोടहं बहु स्यां प्रजायेय' (मैं अकेला ही अनंतरूप में हो जाऊं) इस प्रकार के जिस 'महासंकल्प' का उदय होता है, उसे वीरशैव संतों ने 'नेनहु' कहा है। इस संकल्प से ही वह शिव स्वयं अनंतरूपों में हो जाता है। (तों.व.को. पृष्‍ठ 200) इस शब्द का एक दूसरे अर्थ में भी प्रयोग होता है। वह है साधक का चिंतन, अर्थात् निश्‍चल मन से साधक जब शिव का चिंतन करता है, तब उस चिंतन को भी 'नेनहु' कहा जाता है। किंतु प्रधानतया यह शब्द शिव के उक्‍त संकल्प के अर्थ में ही रूढ़ है (तों.व.को.पृ. 201)।
(वीरशैव दर्शन)

नैष्‍ठिक-भक्‍ति
देखिए 'भक्‍ति'।
(वीरशैव दर्शन)

पंचम
भगवान् शिव के ईशानमुख से पंचवक्‍त्र गणाधीश्‍वर का प्रादुर्भाव बताया जाता है। इस गणाधीश्‍वर के पाँचों मुखों से एक-एक महापुरुष प्रकट हुये। उनके नाम हैं- 'मखारि', 'कालारि', 'पुरारि', 'स्मरारि' और 'वेदारि'। इन्हीं को 'पंचम' कहते हैं। इनमें प्रत्येक पंचम से बाहर-बारह उपपंचमों की उत्पत्‍ति बतायी जाती है।
वीरशैव संप्रदाय में 'पंचम' नाम की एक जाति भी है। बताया जाता है कि इस जाति के सभी व्यक्‍ति उन मूल पंचमों और उपपंचमों के वंश में उत्पन्‍न हुये हैं। मूल पुरुष के नाम से ही इनकी जाति का नाम भी पंचम है। इनको व्यवहार में 'पंचमशाली' कहा जाता है। वीरशैव धर्म के जो प्रमुख पाँच आचार्य हैं, जिन्हें पंचाचार्य' कहते हैं, वे यही इन पंचमों के गुरु होते हैं। पंचम जाति में उत्पन्‍न प्रत्येक व्यक्‍ति के गोत्र, सूत्र, प्रवर, शाखा आदि अपने-अपने गुरु के अनुसार होते हैं। इन पंचमों का वैवाहिक संबंध समान गोत्र वालों में न होकर अपने से भिन्‍न गोत्र-सूत्र वालों के साथ किया जाता है (वी.स.सं. 5/4-55)।
(वीरशैव दर्शन)

पंचसूतक
धर्मशास्‍त्रों में जनन, मरण, रज, उच्छिष्‍ठ तथा जाति से पाँच प्रकार के सूतक माने गये हैं, अर्थात् घर में किसी का जन्म या मृत्यु होने पर, घर की किसी स्‍त्री के रजस्वला होने पर सूतक की प्राप्‍ति होती है। अतः इस सूतक के समय उस घर में पूजा आदि वैदिक कर्मो का निषेध किया गया है। उसी प्रकार उच्छिष्‍ठ का ग्रहण तथा कुछ विशिष्‍ट जाति के लोगों के साथ संपर्क न करने का भी विधान है। किंतु वीरशैव आचार्य एवं संतों ने विशेष परिस्थितियों में उपर्युक्‍त सूतकों को स्वीकार नहीं किया है, जैसे कि इष्‍टलिंग का धारण तथा उसकी पूजा के लिये जनन, मरण और रज इन तीन प्रकार के सूतकों की प्रवृत्‍ति नहीं होती। इसी प्रकार पादोदक और प्रसाद के सेवन के प्रसंग में 'उच्छिष्‍ठ-सूतक' को भी नहीं माना जाता। इसका तात्पर्य यह है कि वीरशैव-धर्म में दीक्षा के समय गुरु अपने शिष्य को इष्‍टलिंग देता है और उसे आमरण शरीर पर धारण करने का आदेश करता है। यह दीक्षा स्‍त्री तथा पुरुषों के लिये समान रूप से होती है। दीक्षा-संपन्‍न स्‍त्री यदि रजस्वला अथवा प्रसूता होती है, तो उस समय उस स्‍त्री को इष्‍टलिंग की पूजा करने का अधिकार है या नहीं ? यह शंका होने पर वीरशैव आचार्ये ने इष्‍टलिंग धारण करने वाली स्‍त्री को इष्‍टलिंग की पूजा का अधिकार प्रदान किया है। जैसे पौण्डरीक आदि दीर्घकालीन सत्रों का संकल्प करके त्याग करते समय यजमान की पत्‍नी यदि रजस्वला हो जाती है, तो भी वह स्‍नान करके गीला वस्‍त्र पहनकर पुन: याग में सम्मिलित होती है, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में दीक्षित स्‍त्री रजस्वला या प्रसूता होने पर भी उसी दिन स्‍नान एवं गुरु के चरणोदक का प्रोक्षण करके शुद्‍ध होकर अपने नित्यकर्म इष्‍टलिंग की पूजा करने के लिये अधिकारी होती है। इष्‍टलिंग की पूजा के अतिरिक्‍त पाक आदि अन्य कार्यों के लिए वीरशैव धर्म में भी सूतक माना जाता है। जैसे हस्तस्पर्श के अयोग्य होने पर भी जिह्वा मंत्रोच्‍चारण के लिये योग्य है, उसी प्रकार रजस्वला या प्रसूता स्‍त्री पाक आदि अन्य लौकिक कर्म करने के लिये अयोग्य और अपवित्र होने पर भी इष्‍टलिंग के धारण एवं उसकी पूजा के लिये वह अग्‍नि, रवि तथा वायु के समान सदा पवित्र रहती है। घर में किसी की मृत्यु होती है, तो उस घर के लोग भी शव संस्कार के बाद स्‍नान एवं गुरु के चरणोदक के प्रोक्षण से घर को शुद्‍ध करके अपने अपने इष्‍टलिंग पूजा रूप नित्यकर्म को बिना किसी बाधा के यथावत् अवश्‍य पूरा करते हैं। अतः वीरशैवों को इष्‍टलिंग की पूजा में मरणसूतक भी नहीं लगता (सि.शि. 9/43-45 पृष्‍ठ 150-151; वी.मा.सं. 47/25-26; ब्र.सू. 1-1-1) श्रीकर.भा.पृष्‍ठ 11-12; सि.शि.वी.भा.पृष्‍ठ 41-56)।
वीरशैव संप्रदाय में प्रतिदिन गुरु या जंगम की पादपूजा करके एक पात्र में पादोदक (चरणमृत) तैयार किया जाता है और उस पादपूजा में सम्मिलित सभी शिवभक्‍त उसी एक पात्र में से पादोदक का सेवन करते हैं। यहाँ प्रथम व्यक्‍ति के ग्रहण करने के बाद वह पादोदक उच्छिष्‍ठ हो जाता है, तो दूसरा उसका ग्रहण करें या नहीं ? यह शंका होती है। वीरशैव आचार्यो ने इस प्रसंग में भी उच्छिष्‍ठ सूतक को नहीं माना है। जैसे सोमयाग में हविःशेषभूत सोमरस को चमस नामक पात्र में संग्रह करके यज्ञशाला के सभी ऋत्विज उस चमस पात्र से सोमरस का सेवन करते हैं, तो भी वहाँ उच्छिष्‍ठ-सूतक नहीं माना जाता, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में भी एक पात्र से अनेक लोगों के द्‍वारा पादोदक स्वीकार करने पर भी उच्छिष्‍ठ-सूतक नहीं होता। गुरु या जंगम के भोजन से अवशिष्‍ट अन्‍न को प्रसाद कहते हैं। इस प्रसाद के स्वीकार करने में भी उच्छिष्‍ठ सूतक नहीं है (वी.आ.चं. पृष्‍ठ 119; सि.शि.वी.भा. पृष्‍ठ 56-57)।
बारहवीं शताब्दी के वीरशैव संतों ने जाति-सूतक का भी निषेध किया है। उन्होंने शिवदीक्षा-संपन्‍न व्यक्‍ति किसी भी जाति का हो, उनके साथ समता का व्यवहार करने को कहा है- (व.शा.सा. भाग 1 पृष्‍ठ 380-381)।
इस प्रकार धर्मशास्‍त्र-सम्मत पाँच प्रकार के सूतकों को वीरशैव धर्म में सीमित रूप में ही मान्यता दी गयी है। तब भी लोकव्यवहार में इनका पालन आवश्यक है।
(वीरशैव दर्शन)

पंचसूत्रलिंग
पंचसूत्र' स्थूल लिंग के निर्माण की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से निर्मित सामान्य शिला या स्फटिक के लिंग को 'पंचसूत्र लिंग' कहा जाता है। उसका विधान यह है- सामान्यत: लिंग में 'बाण', 'पीठ' और 'गोमुख' ये तीन भाग होते हैं। ऊपर के गोलाकार को 'बाण', उस बाण के आश्रयभूत नीचे के भाग को 'पीठ' और जलहरी को 'गोमुख' कहा जाता है। शिलामय लिंग का निर्माण करते समय पहले 'बाण' तैयार करके उस बाण के वर्तुल परिमाण सदृश पीठ की लंबाई और पीठ के ऊपर की तथा नीचे की चौड़ाई होनी चाहिये। बाण के वर्तुल के आधे माप का गोमुख तैयार करना चाहिये। इस प्रकार बाण का वर्तुल, पीठ की लंबाई, पीठ के नीचे की चौड़ाई इन चारों का माप समान होना चाहिये और गोमुख का माप मात्र बाण के वर्तुल का आधा रहना चाहिये। यही 'पंचसूत्र' प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से निर्मित लिंग को ही 'पंचसूत्र लिंग' कहा जाता है।
इस परिणाम में न्यनाधिक्य होने पर, अर्थात् यदि बाण अधिक परिमाण का हो तो, उस लिंग की पूजा से अपमृत्यु और पीठ का परिमाण अधिक होने पर धन का क्षय बताया गया है। बाण और पीठ का परिमाण समान होने पर ही उस लिंग से भोग तथा मोक्ष की प्राप्‍ति होती है (वी.आ.प्र. 1-94-95; क्रि.सा.भाग.3 पृष्‍ठ 41)।
इस प्रकार से निर्मित 'पंचसूत्रलिंग' ही वीरशैवों को क्रियादीक्षा के समय संस्कार करके आचार्य के द्‍वारा दिया जाता है।
(वीरशैव दर्शन)

पंचाचार
लिंगाचार, सदाचार, शिवाचार, गणाचार और भृत्याचार इन पाँच प्रकार के आचारों को 'पंचाचार' कहते हैं। यहाँ पर 'आचार' का अर्थ है- वेद और शास्‍त्र के प्रवर्तक एवं निवर्तक आदेशों को क्रियान्वित करना, अर्थात् शास्‍त्रविहित कर्मों को करना और निषिद्‍ध कर्मो को छोड़ना ही 'आचार' है। वेद कहता है 'सत्यं वद' (सत्य बोलो) और 'सुरां न पिवेत्' (मद्‍यपान मत करो)। इन प्रवर्तक और निवर्तक आदेशों के अनुसार 'सत्य बोलना' तथा मद्‍यपान छोड़ देना' ये आचार हैं। इस प्रकार के आचार अनंत हैं। उन सबको पाँच भागों में विभक्‍त करके वीरशैव धर्म में 'पंचाचारों' का प्रतिपादन किया गया है। ये पाँच प्रकार के आचार साधकों को दुर्मार्ग से रोककर उनके अंतःकरण की शुद्‍धि में कारण बनते हैं। अतः प्रत्येक वीरशैव को अपने जीवन में इनका पालन करना आवश्यक है। (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद 9/4; श. वि. द. पृष्‍ठ 210)।
क. लिंगाचार
अंग (जीव) को लिंगस्वरूप की प्राप्‍ति के लिये बताये गये आचार को 'लिंगाचार' कहते हैं, अर्थात् जिस आचार के पालन से अंग लिंगस्वरूप हो जाता है, वही 'लिंगाचार' है। शरीर, मन तथा भावना से क्रमशः लिंग की पूजा, लिंग का चिंतन एवं लिंग का निदिध्यासन करना ही लिंगाचार का स्वरूप है।
वीरशैव संप्रदाय में गुरु अपने शिष्य को क्रियादीक्षा के द्‍वारा 'इष्‍टलिंग' प्रदान करता है, मंत्रदीक्षा के द्‍वारा 'प्राणलिंग' के स्वरूप को समझाता है और वेध-दीक्षा के माध्यम से 'भावलिंग' का बोध कराता है। इस प्रकार त्रिविध दीक्षा से प्राप्‍त इष्‍ट, प्राण तथा भावलिंग की गुरु के उपदेश के अनुसार क्रमशः शरीर से अर्चन, मन से चिंतन और भावना से निदिध्यासन करना ही लिंगाचार कहलाता है। इस संप्रदाय में दीक्षा-संपन्‍न जीव को अपने इष्‍ट, प्राण तथा भावलिंग के अतिरिक्‍त अन्य देवी-देवताओ की अर्चना आदि का निषेध हैं। यह निषेध उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, किंतु इष्‍टलिंग आदि में निष्‍ठा बढ़ाने के लिये है। अतः गुरुदीक्षा से प्राप्‍त उन लिंगों को ही अपना आराध्य समझ कर उन्हीं की अर्चना आदि में तत्पर रहना लिंगाचार है। इस लिंगाचार के निष्‍ठापूर्वक पालन करने से अंग (जीव) लिंग स्वरूप हो जाता है (चं.ज्ञा.आ.क्रिया पाद. 9/5,11; सि.शि. 9-31-33 पृष्‍ठ 147)।
ख. सदाचार
जिस आचरण से सज्‍जन तथा शिवभक्‍त संतुष्‍ट होते हैं और जिससे अंतरंग तथा बहिरंग की शुद्‍धि होती है, उसे सदाचार कहते हैं (सू.आ.क्रियापाद. 8/7)। सदाचार में धर्ममूलक अर्थार्जन और उस धन का यथाशक्‍ति गुरु, लिंग और जंगम के आतिथ्य में विनियोग करना, सदा शिवभक्‍तों के साथ रहना आदि विशुद्‍ध आचारों का समावेश किया गया है (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 9/6)।
सदाचार में आठ प्रकार के 'शीलों' का भी समावेश किया गया है। वीरशैव संप्रदाय में शिव-ज्ञान की इच्छा की उत्पत्‍ति में कारणीभूत नैतिक आचरणों को 'शील' कहते हैं। वे हैं- अंकुरशील, उत्पन्‍नशील, द्‍विदलशील, प्रवृद्‍धशील, सप्रकांडशील, सशाखाशील, सपुष्पशील और सफलशील। इन्हीं को 'अष्‍टशील' कहते हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं-
1. अंकुरशील
गुरु-कृपा प्राप्‍त करके उनसे दीक्षा लेकर अपने शरीर को शुद्‍ध कर लेना तथा इष्‍टलिंग की पूजा आदि करना ही 'अंकुरशील' कहलाता है। शील की प्रथम अवस्था होने से इसे 'अंकुरशील' कहा गया है।
2. उत्पन्‍नशील
जब साधक स्वयं दीक्षित होकर पूजा आदि में प्रवृत्‍त हो जाता है और उसी प्रकार अपने पुत्र आदि परिवार के लोगों को भी प्रवृत्‍त कराता है तब उसे 'उत्पन्‍नशील' कहते हैं।
3. द्‍विदलशील
भस्म, रुद्राक्ष आदि को, जो कि शिव के अलंकार कहे जाते है, सदा शरीर पर धारण करना ही 'द्‍विदलशील' है।
4. प्रवृद्‍धशील
शिव के माहात्म्य को सुनकर उसका मनन करना ही 'प्रवृद्‍धशील' कहलाता है। साधक की भक्‍ति की वृद्‍धि में यह कारण होता है।
5. सप्रकांडशील
अपने इष्‍टलिंग की पूजा किये बिना अन्‍न, जल आदि का सेवन न करना ही 'सप्रकांडशील' कहा जाता है।
6. सशाखाशील
इष्‍टलिंग के अनिवेदित पदार्थो का सेवन नन करना ही 'सशाखाशील' है।
7. सपुष्पशील
शिव को समर्पित वस्तुओं को, जिन्हें प्रसाद कहते हैं, न त्यागना, अर्थात् शिवप्रसाद की अवज्ञा न करना ही सपुष्पशील है।
8. सफलशील
गुरु, लिंग और जंगम में, जो वीरशैव धर्म में पूजनीय है, भेद-बुद्‍धि को त्यागकर, उनको शिवस्वरूप समझकर उनकी आराधना करना ही 'सफलशील' कहलाता है।
इस प्रकार इन आठ 'शील' नामक अंगों से युक्‍त यह आचार ही 'सदाचार' है (चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद 9/19-31)।
ग. शिवाचार
सृष्‍टि, स्थिति, संहार आदि पंचकृत्यों को करनेवाले शिव को ही अपना अनन्य रक्षक मानना 'शिवाचार' कहलाता है (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद 9/7)। शिवाचार में द्रव्य, क्षेत्र, गृह, भांड, तृण, काष्‍ठ, वीटिका, पाक, रस, भव, भूत, भाव, मार्ग, काल, वाक् और जन इन सोलह पदार्थो को शिवशास्‍त्रोक्‍त विधि से शुद्‍ध कर लेने का विधान है।
इन सोलह पदार्थो की शुद्‍धि के लक्षण शास्‍त्रों में इस प्रकार वर्णित हैं- शिवभक्‍त के हाथ से प्राप्‍त फल, मूल आदि का ग्रहण करना और अभक्‍त के हाथ से प्राप्‍त होने पर उसे भस्म-प्रेक्षण विधि से शुद्‍ध कर लेना द्रव्यशुद्‍धि है। अपने खेत के चारों कोनों में नंदि-अंकित एक-एक शिला की स्थापना करना क्षेत्रशुद्‍धि है। घर के महाद्‍वार पर शिवलिंग को उत्कीर्ण कराना गृहशुद्‍धि है। उसी प्रकार अपने उपयोग के बर्तनों पर भी शिवलिंग को उत्कीर्ण कराना 'भांड-शुद्‍धि' कहलाती है। गाय, बैल आदि को खिलाए जाने वाले घास को भस्म-प्रेक्षण से शुद्‍ध कर लेना 'तृण-शुद्‍धि' है और इसी प्रकार जलाने की लकड़ियों को भी भस्म-प्रेक्षण से शुद्‍ध कर लेना 'काष्‍ठ-शुद्‍धि' है। केवल शिवभक्‍त के हाथ से ताम्बूल ग्रहण करना 'वीटिका-शुद्‍धि' कहलाता है। शिवदीक्षा-संपन्‍न व्यक्‍ति के बनाये भोजन को ग्रहण करना 'पाक-शुद्‍धि' है। केवल गोरस का सेवन करना 'रसशुद्‍धि' है। पुनर्जन्म के कारणीभूत काम्यकर्मो को त्यागकर निष्काम कर्म करना ही 'भवशुद्‍धि' है। सभी प्राणियों में दया रखना 'भूतशुद्‍धि' है। सभी कामनाओं को त्यागकर मन में सदा शिव का ही चिंतन करना 'भावसुद्‍धि' है। मार्ग में किसी प्राणी की हिंसा किये बिना सावधानी से चलना 'मार्गशुद्‍धि' है। शास्‍त्रोक्‍त ब्रह्म मुहूर्त में शिवलिंग की पूजा करना 'कालशुद्‍धि' हे। मुख से अनृत, पुरुष, बीभत्स तथा दांभिक वचनों का प्रयोग न करना 'वाकशुद्‍धि' है। सदा सज्‍जनों के सहवास में रहना 'जनशुद्‍धि' है। इस प्रकार अपने दैनिक जीवन में उपर्युक्‍त सोलह प्रकार की शुद्‍धियों को अपने आचरण में लाना ही 'शिवाचार' है (चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद 9/32-50)।
घ. गणाचार
इस आचार में कायिक, वाचिक तथा मानस 64 प्रकार के शीलों का अर्थात् उत्‍तम आचरणों का समावेश किया गया है। उनमें प्रमुख हैं- शिव या शिवभक्‍तों की निंदा न सुनना, यदि कोई निंदा करता है, तो उसको दंडित करना; दंडित करने की सामर्थ्य न रहने पर उस स्थान को त्याग देना; इंद्रियों से शास्‍त्र-निषिद्‍ध विषयों का सेवन न करना; मन से निषिद्‍ध भोग का संकल्प भी न करना; किसी पर क्रोधित न होना; धन आदि का लोभ त्याग देना; संपत्‍ति आने पर भी मदोन्मत्‍त न होना; शत्रु और अपने पुत्र में विषमता को त्यागकर समता भाव रखना; निगमागम-वाक्यों में श्रद्‍धा रखना; काया, वाचा, मनसा कदापि प्रमाद नहीं करना; अनुपलब्ध वस्तुओं का व्यसन छोड़कर प्राप्‍त वस्तुओं से ही संतुष्‍ट रहना; पंचाक्षरी मंत्र का सदा मन में जप करना, 'सोടहं' भाव से शिव का चिंतन करना, विश्‍व के समस्त प्राणियों को शिव के ही अनंत रूप समझना। इस प्रकार के 64 शीलों (आचरणों) का समष्‍टि-स्वरूप ही 'गणाचार' कहलाता है। इस गणाचार के पालन से साधक के त्रिकरण (शरीर, मन, वाणी) परिशुद्‍ध हो जाते हैं- और उसे शिव सायुज्‍य की प्राप्‍ति हो जाती है (सि.शि. 9/36,37 पृष्‍ठ 148; चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 9/51-123)।
ङ भृत्याचार
शिव-भक्‍त ही इस पृथ्वी में श्रेष्‍ठ हैं और मैं उनका भृत्य अर्थात् दास हूँ, ऐसा समझकर उनके साथ विनम्रता से व्यवहार करना ही 'भृत्याचार' कहलाता है (चं. शा. आ. क्रियापद 9/9)। 'भृत्यभाव' और 'वीरभृत्य भाव' के भेद से यह भृत्याचार दो प्रकार का है। अपने को गुरु, लिंग तथा जंगम का सेवक समझकर श्रद्‍धा से निरंतर उनकी सेवा में तत्पर रहने की भावना को 'भृत्य-भाव' कहते हैं। जिस भाव से युक्‍त साधक गुरु को तन, अपने इष्‍टलिंग को मन तथा जंगम को अपना सर्वस्‍व अत्यंत आनंद से समर्पित कर देता और उसके प्रतिफल पारलौकिक सुख से निःस्पृह होकर केवल मोक्ष की अभिलाषा रखता है, उसे 'वीरभृत्य-भाव' कहते हैं। इस वीरभृत्यभाव के साधक को 'वीरभृत्य' कहा जाता है। यही शिवानुग्रह को प्राप्‍त करता है। (चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद 9/124-126)।
(वीरशैव दर्शन)

पंचाचार्य
वीरशैव धर्म के संस्थापक पाँच आचार्यो को 'पंचाचार्य' कहते हैं। ये पंचाचार्य ही वीरशैवों के गोत्र प्रवर्तक हैं। आगमों की मान्यता है कि इन पंचाचार्यों ने प्रत्येक युग में शिव के सद्‍योजात, वामदेव, अद्‍योर, तत्पुरुष और ईशान मुखों से प्रकट होकर वीरशैव धर्म की स्थापना की है। प्रत्येक युग में इनके नाम भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं। कृतयुग में इनके नाम इस प्रकार थे- एकाक्षर-शिवाचार्य तथा द्‍वयक्षर शिवाचार्य, त्र्यक्षरशिवाचार्य, चतुरक्षर-शिवाचार्य तथा पंचाक्षर-शिवाचार्य (सु.पं.पं. प्र. पृष्‍ठ 2)।
त्रेतायुग में- एकवक्‍त्र शिवाचार्य, द्‍विवक्‍त्र शिवाचार्य, त्रिवक्‍त्र शिवाचार्य, चतुर्वक्‍त्र शिवाचार्य और पंचवक्‍त्र शिवाचार्य (सु.पं.पं.प्र. पृष्‍ठ2)।
द्‍वापरयुग में- रेणुक शिवाचार्य, दारुक शिवाचार्य, घंटाकर्ण शिवाचार्य, धेनुकर्ण शिवाचार्य एवं विश्‍वकर्ण शिवाचार्य (सु.पं.पं.प्र. पृष्‍ठ 2)।
कलियुग में- रेवणाराध्य, मरुलाराध्य, एकोरामाराध्य, पंडिताराध्य और विश्‍वाराध्य (वी.स.सं. 1/26-34)। कलियुग के इन पंचाचार्यों का आविर्भाव पाँच शिवलिंगों से माना जाता है। उन सबका विवरण इस प्रकार है-
1. रेवणाराध्य
रेवणाराध्य ने कोनलुपाक (आंध्र) क्षेत्र के सोमेश्‍वरलिंग से प्रादुर्भूत होकर धर्मप्रचार के लिये बालेहोन्‍नूर (कर्नाटक) में एक मठ की स्थापना की, जो कि 'रंभापुरी पीठ' के नाम से प्रसिद्‍ध है। ये ही 'वीरगोत्र' 'पंडिविडिसूत्र' के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को 'रेणुका शाखा' कहते हैं और इनका सिंहासन 'वीर सिंहासन' कहलाता है (वी.स.सं. 1/37-39; हिं. पृष्‍ठ 695-696; वी.म. पृष्‍ठ 1)।
2. मरुलाराध्य
अवंतिकापुरी (मध्यप्रदेश) के वटक्षेत्र के सिद्‍धेश्‍वरलिंग से, अर्थात् भगवान् के वामदेव मुख से, मरुलाराध्य जी प्रकट हुये। कहते हैं कि वे अवंती के राजा से अनबन हो जाने के कारण बल्लारी जिले (कर्नाटक) के एक गाँव में जाकर बस गये। इनके बसने के कारण उस गाँव का नाम भी उज्‍जयिनी पड़ गया। यहाँ पर एक मठ की स्थापना हुई, जिसे उज्‍जयिनी पीठ कहते हैं। इस पीठ के आचार्य मरुलाराध्य जी वृष्‍टि सूत्र और नंदिगोत्र के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को 'दारुक शाखा' कहते हैं और इनका सिंहासन 'सद्‍धर्म सिंहासन' के नाम से प्रसिद्‍ध है। उज्‍जैन (मध्य प्रदेश) में भी इनका एक शाखा मठ बहुत दिन तक अस्तित्व में रहा (वी.स.सं. 1/40-43; हिं.पृष्‍ठ 695-696; वी.म.पृष्‍ठ 26-28)।
3. एकोरामाराध्य
द्राक्षाराम क्षेत्र के रामनाथ लिंग से, अर्थात् भगवान् के अघोर मुख से, एकोरामाराध्य जी प्रकट हुये और उन्होंने उत्‍तराखंड के श्री केदारेश्‍वर के पास ओखीमठ (उ.प्र.) में एक पीठ की स्थापना की। इसे 'केदारपीठ' कहते हैं। इस पीठ के मूल आचार्य एकोरामाराध्य 'भृङ्गिगोत्र' और 'लंबनसूत्र' के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा का नाम घंटाकर्ण (शंकुकर्ण) है। इनके सिंहासन को 'वैराग्य सिंहासन' कहते हैं (वी.स.सं. 1/44-46)। यह केदारपीठ भी अत्यंत प्राचीन है। इसकी प्राचीनता का प्रमाण एक ताम्र शासन है, जो उसी पीठ में मौजूद है। हिमवत् केदार में महाराजा जनमेजय के राज्यकाल में स्वामी आनंदलिंग जंगम वहाँ के मठ के जगदगुरु थे। उन्हीं के नाम जनमेजय ने मंदाकिनी, क्षीरगंगा, सरस्वती आदि नदियों के संगम के बीच जितना क्षेत्र है, जिसे 'केदारक्षेत्र' कहते हैं, इसका दान इस उद्‍देश्य से किया कि ओखीमठ के आचार्य गोस्वामी आनंदलिंग जंगम के शिष्‍य श्री केदार क्षेत्र वासी श्री ज्ञानलिंग जंगम इसकी आय से भवान् केदारेश्‍वर की पूजा-अर्चा किया करें। उन्होंने सूर्यग्रहण के अवसर पर श्री केदारेश्‍वर को साक्षी करके अपने माता-पिता की शिवलोक-प्राप्‍ति के लिये उन्हें इस क्षेत्र के पूरे अधिकार समेत दान दिया। यह दान महाराज जनमेजय ने मार्गशीर्ष अमावस्या सोमवार को युधिष्‍ठिर के राज्यारोहण के नवासी बरस बीतने पर प्लवंगनाम संवत्सर में किया। अतः केदारेश्‍वर का यह मठ पाँच हजार बरसों से अधिक पुराना है। टेहरी नरेश इस पीठ के शिष्य हैं। इस पीठ के जगद्‍गुरु को 'रावल' उपाधि से संबोधित किया जाता है। टेहरी नरेश इनके पट्‍टाधिकार के समय तिलकोत्सव समारंभ में उनको यह 'रावल' उपाधि देते हैं (हि. पृष्‍ठ 695-696; वी.म. पृष्‍ठ 29-32)।
4. पंडिताराध्य
श्रीशैलम् (आंध्र) के मल्लिकार्जुन लिंग से, अर्थात् भगवान् के तत्पुरुष मुख से, पंडिताराध्य प्रकट हुये और श्रीशैलम् में ही उन्होंने एक पीठ की स्थापना की। इस पीठ को श्रीशैलपीठ कहते हैं। यह पंडिताराध्य 'वृषभगोत्र' तथा 'मुक्‍तागुच्छ' सूत्र के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को 'धेनुकर्णशाखा' कहते हैं और इनका सिंहासन 'सूर्य सिंहासन' नाम से प्रसिद्‍ध है (वी.स.सं. 1/47-50; हि. पृष्‍ठ 695-696; वी.म. पृष्‍ठ 33-34)।
5. विश्‍वाराध्य
श्री काशीक्षेत्र (उत्तर प्रदेश) के विश्‍वनाथ से, अर्थात् भगवान् के ईशानमुख से, जगद्‍गुरु विश्‍वाराध्य जी प्रकट हुये और उन्होंने काशी में ही एक पीठ की स्थापना की, जिसे 'ज्ञानपीठ' कहते हैं। वह आजकल 'जंगम वाड़ीमठ' के नाम से प्रसिद्‍ध है। यह विश्‍वाराध्य 'स्कंदगोत्र' और 'पंचवर्णसूत्र' के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनकी शाखा को 'विश्‍वकण 'शाखा' कहते हैं। इनका सिंहासन 'ज्ञानसिंहासन' के नाम से प्रसिद्‍ध है (वी.स.सं. 1/51-54; वी.म. पृष्‍ठ 35)। काशी का यह जंगमवाड़ी मठ भी अत्यंत प्राचीन है। इस मठ के 'मल्लिकार्जुनजंगम' नामक जगद्‍गुरु के समय में उस समय के काशी के राजा जयनंददेव ने विक्रम संवत् 631 में प्रबोधिनी एकादशी को भूमि दान किया था। इस तरह यह ताम्र शासन चौदह सौ तीन वर्ष प्राचीन है। हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब आदि मुगल राजओं के दानपत्र भी इस मठ में मौजूद हैं।
नेपाल देश में 'भक्‍तपुर' में भी इसका एक शाखा-मठ है। वहाँ भी वह जंगमवाड़ी मठ के नाम से ही प्रसिद्‍ध है। उस मठ के लिये भी विक्रम संवत 692 ज्येष्‍ठ सुदी अष्‍टमी के दिन नेपाल के राजा विश्‍वमल्ल ने श्री मल्लिकार्जुन यति को भूमिदान किया था। शिला पर उत्कीर्ण वह दानपत्र उसी मठ में आज भी उपलब्ध है (हिं. पृष्‍ठ 695-696)।
उपर्युक्‍त ये पंचाचार्य वीरशैवों के प्रधान गुरु माने जाते हैं। इन्हें महाचार्य या जगद्‍गुरु भी कहते हैं। वीरशैवों के दीक्षा, विवाह आदि धार्मिक तथा सामाजिक कार्य इन्हीं महाचार्यो की साक्षी में संपन्‍न किये जाते हैं। (वी. स.सं. 1-55-63)। कर्नाटक, आंध्र तथा महाराष्‍ट्र में प्रायः प्रत्येक गाँव में एक एक मठ है, जो इन पंचाचार्यो में से किसी एक की शाखा से संबंध रखता है। उन शाखा मठों के अधिकारियों को 'आचार्य' या 'पट्‍टाधिकारी' कहते हैं।
(वीरशैव दर्शन)

परजंगम
देखिए 'अष्‍टावरण' शब्द के अंतर्गत 'जंगम'।
(वीरशैव दर्शन)


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