यहाँ पर 'करण' का अर्थ है स्थूल, सूक्ष्म आदि शरीर में रहने वाले सभी तत्व और 'हसिगे' का अर्थ होता है विभाग, अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म शरीर में रहने वाले सभी तत्वों को विभक्त करके उनके स्वरूप को यथार्थ रूप से जान लेना ही 'करण-हसिगे' कहलाता है। वस्तुत: दर्शनांतर में जिसे 'पंचीकरण' कहते हैं, उसे ही यहाँ 'करण-हसिगे' कहा गया है। जैसे परमात्मा को जानने के लिए ब्रह्माण्ड का ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मा को जानने के लिये पिण्डाण्डस्थित सभी तत्वों का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है। पिण्डाण्ड के यथार्थ ज्ञान से ही उससे भिन्न रहने वाली आत्मा का भी यथार्थ ज्ञान होता है।
वीरशैव संत साहित्य में इस पिण्डाण्ड-विज्ञान के प्रतिपादक ग्रंथ को भी 'करण-हसिगे' कहा गया है। श्री चन्नबसवेश्वर अपने 'करण-हसिगे' नामक लघु ग्रंथ में ऊँकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति बता कर उन भूतों से स्थूल, सूक्ष्म आदि शरीरों के सभी तत्वों की उत्पत्ति को विस्तार रूप से आगम की दृष्टि से समझाया है। स्थूल शरीर में रहने वाले अस्थि, मांस, चर्म, नाड़ी और रोम ये पाँच गुण पृथ्वी के हैं; क्षुधा, तृष्णा, निद्रा, आलस्य और संग ये पाँच गुण तेज के हैं; धावन, बलन, आकुंचन, प्रसारण तथा वियोग ये पाँच गुण वायु के हैं। इस प्रकार पंचीकृत पंचमहाभूतों के पच्चीस गुणों से इस स्थूल शरीर की उत्पत्ति बताई गयी है। उसके बाद सूक्ष्म शरीर में रहने वाले श्रोत्र आदि पंच ज्ञानेन्द्रियों की; वाक् आदि पंच कर्मेन्द्रियों की; प्राण, अपान आदि दशविध वायुओं की; मन, बुद्धि आदि अंतःकरण की उक्त पंचमहाभूतों के ही परस्पर मिश्रण से उत्पत्ति बताकर, शरीर में उनसे होने वाले कार्य, उनके अधिष्ठातृदेवता का स्वरूप एवं तत्तत् इंद्रियों के विषयों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद आत्मा का निरूपण आता है। पंचमहाभूत, पंचप्राण, दशविध इंद्रियाँ तथा अंतःकरण-चतुष्टय इन चौबीस अनात्मतत्वों से भिन्न जो पच्चीसवाँ तत्व है और जिसके कारण इन सब में चेतन का व्यवहार होता है वह चिद्रूप 'आत्मा' ही है। यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है। परशिव ही इसके अधिष्ठातृदेवता है।
यह आत्मा जब देह से संपृक्त होता है, तो उसको अष्टमद, सप्तव्यसन, षडर्मियाँ, अरिषड्वर्ग, षड्विकार, पंचक्लेश, तापत्रय इत्यादि की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसका विस्तार से यहाँ वर्णन किया गया है। इस प्रकार शरीर आदि की उत्पत्ति, उससे आत्मा का संपर्क तथा शरीर के संपर्क से आत्मा में होने वाले विकारों का विवरण बताकर पिण्डाण्ड का संपूर्ण विज्ञान इस ग्रंथ में प्रतिपादित है। इसके अध्ययन से अनात्मतत्वों को पंचमहाभूतों के विकार जानने से निर्विकार आत्मा का यथार्थ बोध उत्पन्न होता है। इस प्रकार देह के सभी तत्वों का विभाग करके उनके स्वरूप का बोध कराने वाले इस ग्रंथ को 'करण-हसिगे' कहा गया है। (च.ब.व. पृष्ठ 669-685; व.वी.ध. पृष्ठ 113-115)।
(वीरशैव दर्शन)
कर्तृ- सादाख्य
देखिए 'सादाख्य'।
(वीरशैव दर्शन)
कर्मयोग
देखिए 'कायक'।
(वीरशैव दर्शन)
कर्म-सादाख्य
देखिए 'सादाख्य'।
(वीरशैव दर्शन)
कला
परशिवनिष्ठ शक्ति का ही दूसरा रूप कला है। जब परशिव अपने में ही उपास्य-उपासक-लीला की इच्छा करता है, तब स्वयं ही 'लिंग' और 'अंग' बन जाता है। तब वह शक्ति भी अपने स्वातंत्र्य से 'कला' और 'भक्ति' का रूप धारण करती है। 'कला' लिंग के आश्रित रहती है और 'भक्ति' अंग के। इस तरह लिंग-स्थल में आश्रित शक्ति ही कला कहलाती है। (अनु.सू. 2/13, 22,23)।
यह कला 'निवृत्ति', 'प्रतिष्ठा', 'विद्या', 'शांति', 'शांत्यतीत' और 'शांत्यतीतोत्तरा' के नाम से छः प्रकार की है। यह कलाओं का आरोहण-क्रम है। जब अंग (जीव) इन कलाओं के आश्रयभूत लिंगरूपी शिव की उपासना करता है, तब शिव इन कलाओं के द्वारा उस जीव में प्रसुप्त सर्वज्ञत्व आदि शक्तियों को जाग्रत् करके अपने स्वरूप में समरस कर लेता है। इस प्रकार ये कलाएँ उपासक जीव की अमृतत्व की प्राप्ति में सहायक बनती हैं (सि.शि. 1/10, 12 तत्व प्रदीपिका टीका सहित पृ. 4; सू.सं. भाग 2 पृष्ठ 456; त.ज्ञा. पृ. 41)।
क. निवृत्ति कला -
जिस कला की सहायता से साधक का कर्मभोग निवृत्त हो जाता है, उसको निवृत्ति कला कहते हैं। निवृत्ति कला का पर्याय क्रियाशक्ति है, अर्थात् क्रियाशक्ति का ही दूसरा रूप निवृत्ति कला है (अनु. सू. 3/26; सू.सं. बाग 2 पृष्ठ 456; त.ज्ञा. 41)।
ख. प्रतिष्ठा-कला -
जिसके द्वारा अचेतन तत्वों की चेतन तत्व में प्रतिष्ठा होती है, उसको प्रतिष्ठा-कला कहते हैं। यह एक तरफ प्रपंच की स्थिति में सहायक बनती है और दूसरी तरफ साधकों में शिव के प्रति अनुराग की ऐसी भावनाओं को स्थापित करती है, जिनसे साधकों का संसार के प्रति राग निवृत्त हो जाता है। इसी कला का पर्याय ज्ञानशक्ति है (अनु.सू. 3/25; सू.सं भाग 2 पृष्ठ 456;त.ज्ञा. पृष्ठ 42)।
ग. विद्या-कला -
जिसकी सहायता से साधक माया और उसके कार्यभूत इस प्रपंच से विविक्त आत्मतत्व को जानता है, उसको विद्या-कला कहते हैं। इच्छा-शक्ति इस विद्या-कला का पर्याय है (अनु. सू. 3/25; सू. सं. भाग 2 पृ. 457; त ज्ञा. पृ. 42)
घ. शांतिकला -
जिस कला की सहायता से साधक के मल, आणव, मायीय और कर्मरूपी पाश, उपशांत हो जाते हैं, उसको शांतिकला कहते हैं। इस कला का पर्याय 'आदि शक्ति' है (अनु.सू. 3/25; सू.सं. भाग-2 पृष्ठ 457; त. ज्ञा. पृष्ठ 42)।
ड. शांत्यतीत-कला -
पाश-जाल के उपशम के अनंतर अद्वितीय सत्-चित्-आनंदैकरस रूप परशिव का बोध जिस कला से साधक को प्राप्त होता है, उसको शांत्यतीत कला कहते हैं। इसका पर्याय 'पराशक्ति' है (अनु.सू. 3/25; सू.सं. भाग 2 पृष्ठ 457; त.ज्ञा. पृष्ठ 42)।
च. शांत्यतीतोत्तरा कला -
सच्चिदानन्दैकरस-रूप परशिव का जो बोध है, उससे भी अतीत अत्यंत सूक्ष्म परमतत्व में साधक जिस कला के द्वारा समरस हो जाता है उसको शान्त्यतीतोत्तरा कला कहते हैं। इसका पर्याय है चिच्छक्ति (अनु.सू. 3/24)।
(वीरशैव दर्शन)
कायक
सत्य और पवित्र भाव से जीविकोपार्जन करना अनिवार्य है। इस प्रकार की जीविका के लिए किये गये उद्योग को 'कायक' कहते हैं। इस उद्योग को करने का प्रधान उद्देश्य व्यक्तिगत उपभोग और भोगविलास न होकर गुरु, लिंग, जंगम आदि अतिथियों का सत्कार करना है। इस अतिथि-सत्कार को 'दासोടहं' भाव से करना चाहिए, अर्थात् 'मैं सब सत्पुरुषों का तथा शिव का दास हूँ', इस पवित्र भाव को मन में रखकर करना चाहिए। इस तरह की अतिथि-सेवा से अवशिष्ट अन्न को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए। अतिथि-सत्कार रूप इस महान् उद्देश्य को सामने रखकर किया जाने वाला शरीरिक या बौद्धिक परिश्रम 'कायक' कहलाता है और इसे 'कर्मयोग' भी कहते हैं।
प्रतिदिन संपादिंत द्रव्य उसी दिन इस महान् उद्देश्य के लिए लगाना चाहिए और इसके लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। इस तरह कायक-तत्व में 'असंग्रह' और 'अपरिग्रह' ये दो महत्वपूर्ण अंश हैं। इसमें अतिथि-सत्कार और स्वावलंबन का समन्वय है।
12 वीं शताब्दी के वीरशैव संतों ने 'कायक' तत्व पर ज्यादा जोर दिया। कायक को उपासना का एक अंग माना, क्योंकि अहंकार-रहित भाव से किये गये सब कार्य-कलाप भगवान की तरफ से जाने में सहायक होते हैं। 'कायक' का यह संदेश है कि उद्योग के बिना जीने, रहने तथा पूजा करने का अधिकार नहीं है। कायक के बिना पूजाविधि पूरी नहीं होती, अतः यह पूजा का ही एक अंग है। समाज और व्यक्ति इन दोनों के उद्धार की कल्पना इस कायक-तत्व में निगूढ है। (व.वी.धर्म पृष्ठ 150, 158, 185; शू.सं.प. पृष्ठ 674-711)।)