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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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वृत्‍ति
जीवन निर्वाह का साधन।
पाशुपत साधक के भोजन अर्जन करने के उपाय वृत्‍तियाँ कहलाती हैं तथा त्रिविध होती हैं- भैक्ष्य, उत्सृष्‍ट तथा यथोपलब्ध। (ग.का.श.)। पाशुपत साधक जीवन निर्वाह के लिए किसी भी व्यवसाय को ग्रहण नहीं कर सकता है।
धनोपार्जन के समस्त उपायों कों छोड़कर जिन भिक्षा आदि के द्‍वारा वह अन्‍नप्राप्‍ति आदि करता है वे भिक्षा आदि उसकी वृत्‍तियाँ कहलाती हैं। वृत्‍तियों को गणकारिका में पाशुपत दर्शन के मुख्यतया प्रतिपाद्‍य विषयों में गिना गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

व्यक्‍ताचार
स्पष्‍ट आचरण वाला।
पाशुपत विधि के विधान में बारंबार कहा गया है कि पाशुपत साधक के अच्छे अच्छे साधना संबंधी कार्य गूढ़ होने चाहिए, तथा सबके समक्ष उसे ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि जिसको देखकर सभी उसकी निन्दा करें, अपमान करें। पाशुपत मत के अनुसार ऐसे में जो उसका अपमान करेगा, उसके सभी गुण तथा पुण्य पाशुपत साधक में संक्रमित होंगे और बदले में सधक के बचे खुचे दोष तथा पाप उस निंदक को जाएँगें।
यहाँ पर 'व्यक्‍त' से स्फुट अथवा दिन का अर्थ लिया गया है और 'चार' से क्राथन अर्थात् व्यक्‍ताचार का अर्थ 'दिन में ही ऊँघना' लिया गया है। पाशुपत साधक के लिए एक विधि यह है कि वह दिन के प्रकाश में अर्थात् सबके समक्ष ही ऊँघता रहे जबकि वास्तव में वह जाग रहा हो। अतः ऊँघने का अभिनय करे। लोग उसके इस तरह के व्यवाहर से उसका अपमान व निन्दा करेंगें जिससे उसके पाप नष्‍ट हो जाएंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.78)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

व्यक्‍तावस्था
अवस्था का प्रथम प्रकार।
पाशुपत सादक की प्रातिपदावस्था अथवा प्रथमावस्था व्यक्‍तावस्था कहलाती है। क्योंकि योग साधना के आरंभ में साधक प्रत्यक्ष रूप में सबके सामने ही भस्मस्‍नान, भस्मशयन, अनुस्‍नान, लिंगधारण आदि पाशुपत धर्म के चिह्नों को धारण करता है और पाशुपत साधना का अभ्यास स्पष्‍ट रूपता से करता है। अतः सभी चिह्नों के स्पष्‍ट होने के कारण यह अवस्था व्यक्‍तावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.8)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

विद्‍याकला
देखिए 'कला'।
(वीरशैव दर्शन)

विभूति
देखिए 'अष्‍टावरण'।
(वीरशैव दर्शन)

विशेषाद्‍वैत
देखिए 'द्‍वैताद्‍वैतात्मक विशेषाद्‍वैत'।
(वीरशैव दर्शन)

वीर
देखिए 'वीरशैव'।
(वीरशैव दर्शन)

वीर-माहेश्‍वर
देखिए 'अंग-स्थल' शब्द के अंतर्गत 'महेश्‍वर'।
(वीरशैव दर्शन)

वीरशैव
वीरशैव उन्हें कहते हैं, जो निरंतर अहर्निश मृत्युपर्यंत शिवलिंग को गले में धारण किये रहते हैं और अपने को 'वीर', 'नंदि', 'भृङि्ग, 'वृषभ' तथा 'स्कंद' इन पाँच गणाधीश्‍वरों के गोत्र में उत्पन्‍न बतलाते हैं। ये लोग शिवलिंग को अपने प्राण से भी अधिक मानते हैं तथा उसको देह से कदापि अलग नहीं करते। इन्हें प्राकृत भाषा (कन्‍नड) में 'लिंगायत' कहते हैं। (हिं. पृष्‍ठ 694-95)।
वीरशैव' शब्द में जो 'वीर' विशेषण है, वह इतर शैवों से इनको अलग करता है। 'वीर' शब्द की दार्शनिक और सांप्रदायिक दो परिभाषायें है। दार्शनिक परिभाषा 'वी' का अर्थ है विद्‍या, जो शिव और जीव का अभेद या लिंगांग के सामरस्य का प्रतिपादन करने वाली है; 'र' का अर्थ है रमण, अर्थात् शिव-जी-वैक्य-बोधन करने वाली विद्‍या में जो आनंद को प्राप्‍त करता है वह 'वीर' कहलाता है। और इस 'वीर' विशेषण वाला शैव ही वीरशैव है। (सि.शि. 5/15,16,18 पृष्‍ठ 57,58)।
सांप्रदायिक परिभाषा : वीरव्रत या वीरधर्म वाला शैव ही वीरशैव है। वीरशैवों को अपने इष्‍टलिंग (शिवलिंग) का देह से कदापि वियोग नहीं करना चाहिए, प्रमाद से कदाचित् इष्‍टलिंग के शरीर से गिर जाने पर प्राण त्याग करने का आदेश है (सि.शि. 6/5-7 पृष्‍ठ 90)। इस आदेश के अनुसार जो विकल्परहित होकर प्राण त्याग देता है उसमें रहने वाली शिवलिंग-निष्‍ठा ही वीर-व्रत या वीरधर्म कहलाती है और उस वीरधर्म वाला शैव ही वीरशैव है (चं.ज्ञा.आ.क्रियापाद 10/33,34; पा.तं. 1/66-67; वि.प्र. 2/31; क्रि.सा. 1/3)।
इसके अलावा यदि कहीं मंदिर में स्थापित शिवलिंग के अथवा शिवभक्‍त के नष्‍ट होने का या बाधा का भय हो, तो हिंसात्मक आक्रमणों को रोकने के लिये एक वीरशैव को अपने प्राण को भी संकट में डाल देना चाहिये। यह भी 'वीरधर्म' कहलाता है। इस धर्म का पालन करने वाला 'वीरशैव' है। (सि.शि. 9/34,35 पृष्‍ठ 147-48)।
इस प्रकार इसका तात्पर्य यह हुआ कि इष्‍टलिंग को गले में सदा धारण करने वाला, प्रसंग होने पर शिव के लिये अपना प्राण भी त्याग देने वाला और शिव-जीवैक्य-बोधक विद्‍या में रमण करने वाला 'वीर' कहलाता है। इन लक्षणों से युक्‍त शैव ही वीरशैव है।
वीर-शैवों में वर्णाश्रम संपूर्ण माना जाता है। इस संप्रदाय के ब्राह्मण को 'भूरुद्र', 'वीरमाहेश्‍वर' या 'जंगम' कहते हैं और शेष वीर-शैव 'शीलवंत', 'बणजिग' और 'पंचम शाली' कहलाते हैं। वीरशैवों का भी वैवाहिक संबंध समान गोत्रसूत्र वालों के साथ न होकर अपने से भिन्‍न गोत्रसूत्र वालों के साथ किया जाता है (हिं. पृष्‍ठ 694-697)।
(वीरशैव दर्शन)

वीरशैव-सिद्‍धांत
साक्षात् श्री शिव के मुख से शैव, पाशुपत, सोम और लाकुल सिद्‍धांत के अनेक आगम निःसृत हुये हैं। उनमें शैवतंत्र-वाम, दक्षिण, मिश्र और सिद्‍धांत-शैव के नाम से चार प्रकार के हैं। इनमें से सिद्‍धांत-शैव के 'कामिकादि वातुलांत' 28 आगम हैं। इन आगमों के उत्‍तर भाग में वीरशैव सिद्‍धांत प्रतिपादित है (सि.शि. 5/9-14, पृष्‍ठ 55-57)।
आगमों में प्रतिपादित वीरशैव-सिद्‍धांत का 'शिवयोगि शिवाचार्य' ने अपने 'सिद्‍धांत-शिखामणि' ग्रंथ में संग्रह किया है। यह ग्रंथ 'जगद्‍गुरुरेणुकाचार्य' और 'महर्षि अगस्त्य' के संवाद के रूप में है। यह वीरशैव सिद्‍धांत का प्रमुख और प्रामाणिक ग्रंथ है।
वीरशैव सिद्‍धांत में जीव, शिव और जगत् ये तीनों सत्य हैं (ब्र. सूत्र 2-3-40 श्रीकर. भा. पृष्‍ठ 274)। 'जीव' शिव का अंश और अणु परिमाण है (सि.शि. 5/34 पृष्‍ठ 63; अनु.सू. 5/3)। शिव सर्वव्यापक और शक्‍तिविशिष्‍ट है (सि.शि. 20/4 पृष्‍ठ 202)। यह जगत् शिव और शक्‍ति का ही विकास है। अतएव जीव और जगत् को भी शिवस्वरूप माना जाता है (सि.शि. 10/2-9, पृष्‍ठ 187-190)।
गुरु से दीक्षा प्राप्‍त करके अष्‍टावरणों से संयुक्‍त हुआ शुद्‍ध जीव ही इस सिद्‍धांत का अधिकारी है (श्रीकर. भा. 1-1-1; ब्र.सू.वृ. पृष्‍ठ 17-34)। यहाँ मोक्ष के लिये 'अंधपंगुन्याय' से ज्ञान और कर्म इन दोनों का सम-समुच्‍चय माना जाता है, अर्थात् ज्ञान और कर्म ये दोनों समान रूप से मोक्ष के कारण हैं (सि.शि. 16/11-14 पृष्‍ठ 74-75)।
यह जगत् शिवात्मक है, शिव से भिन्‍न नहीं; और मैं भी शिवस्वरूप हूँ। इस प्रकार की उत्कृष्‍ट भावना को ज्ञान कहते हैं (सि.शि. 16/8 पृष्‍ठ 81)। इस सिद्‍धांत में अपने-अपने इष्‍टलिंग की पूजा की 'कर्म' कहा गया है (सि.शि. 16/5 पृष्‍ठ 73)। स्वस्वरूप का ज्ञान होने पर भी इष्‍टलिंग की पूजा के आमरण अनुष्‍ठान करने का विधान है। अतएव वीरशैव-सिद्‍धांत ज्ञान, कर्म का सम-समुच्‍चय माना जाता है (सि.शि. 16/12-14, पृष्‍ठ 75)।
इस सिद्‍धांत में संसारदशा में शिव और जीव का भेद और मुक्‍तावस्था में उन दोनों का अभेद माना जाता है। अतः इस सिद्‍धांत को 'भेदाभेद' कहते हैं (श.वि.द. पृष्‍ठ 115-117)। इस सिद्‍धांत के 'शक्‍तिविशिष्‍टाद्‍वैत', 'विशेषाद्‍वैत', 'द्‍वैताद्‍वैत', 'भेदाभेद' और 'शिवाद्‍वैत' ये पाँच नाम हैं।
(वीरशैव दर्शन)


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