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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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द्‌वंद्‍वजय पर
पाशुपत साधक के योग की काफी उच्‍च भूमि पर पहुँच जाने के अनंतर अति तीव्र शीत तथा आतप आदि सहन कर सकने पर पर द्‍वंद्‍वजय होता है, जो अधिक उत्कृष्‍ट होता है। (ग.का.टी.पृ.6)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

द्‍वार
चर्या के प्रकारों का एक अंग।
द्‍वार से यहाँ पर यह तात्पर्य है कि जिन कृत्यों के द्‍वारा पुरुष पाशुपत साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है तथा रुद्रतत्व की प्राप्‍ति के जो द्‍वार स्वरूप होते हैं, वे द्‍वार कहलाते हैं। (ग.का.टी.पृ.18)। ये द्‍वार हैं- क्राथन, स्पंदन, मंदन, श्रृंगारण, अपितत्करण और अपितत्भाषण। ये द्‍वार ही पाशुपत साधना के विशेष अंग है। इन द्‍वारों का अभ्यास केवल पाशुपत साधक ही करते हैं। अन्य किसी भी साधनाक्रम में इन्हें स्थान नहीं मिला है।
(पाशुपत शैव दर्शन)

द्‍वितीयावस्था
पाशुपत साधक की मध्यमा अवस्था।
पाशुपत साधना की जिस अवस्था में साधक भिक्षा मांगनी भी छोड़ देता है और उस अन्‍न पर निर्वाह करता है, जिसे लोगों ने बलि के रूप में वृक्षमूलों पर, देवस्थानों पर या चतुष्पथों पर छोड़ दिया होता है। उसे उत्सृष्‍ट कहते हैं। यदि करुणावशात् कोई स्वयमेव कुछ खाने को दे तो वह भी उत्सृष्‍ट ही कहलाता है। साधक को उसी से जीविका का निर्वाह करना होता है तथा एकांतवास को छोड़कर लोगों के बीच में निवास करना होता है। साधना की इस दूसरी अवस्था को द्‍वितीयावस्था कहते हें। (ग.का.टी.पृ.5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

दासोടहं भावना
वीरशैव धर्म का यह नियम है कि अपने तन, मन, धन को यथाशक्‍ति क्रमशः गुरु, लिंग एवं जंगम की सेवा में समर्पित करना चाहिये। समर्पण करते समय 'मैं करता हूँ' इस प्रकार के अहंकार को त्यागकर मैं गुरु, लिंग एवं जंगम का दास हूँ, इस भाव से युक्‍त होना ही 'दासोടहं भावना' है। वीरशैव संतों ने 'शिवोടहं' तथा 'सोടहं' इन दोनों भावनाओं से इस 'दासोടहं भावना' को अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है- 'शिवोടहं' तथा 'सोടहं' इन दोनों भावनाओं से साधक के मन में सूक्ष्म रूप से अहंकार प्रवेश कर सकता है। अतः उस ज्ञानजन्य अहंकार से भी दूर रहने के लिये इस 'दासोടहं' भावना' की आवश्यकता है।
शिवोടहं-भावना के अनंतर उत्पन्‍न यह दास-भावना वीरशैव दर्शन में एक हेय या निकृष्‍ट भावना न होकर एक ऐसी उत्कृष्‍ट भावना मानी जाती है, जिससे आत्मज्ञानी अपने में ही सेव्य-सेवक भाव के आनंद का अनुभव करता है। इसी को ज्ञानोत्‍तरा भक्‍ति कहते हैं (अनु.सू. 7/61; सि.रा.व. 306; व.वी.ध. पृष्‍ठ 184-185)।
(वीरशैव दर्शन)

दीक्षा
जिस संस्कार विशेष से शिवज्ञान की प्राप्‍ति और पाश (बंधन) का नाश हो जाता है, उसे दीक्षा कहते हैं (सि.शि. 6/11 पृष्‍ठ 85)। वीरशैव धर्म में सभी व्यक्‍तियों को दीक्षा लेना अनिवार्य हे। इस दीक्षा में पट्‍टाभिषिक्‍त आचार्य अपने गोत्र के शिष्यों को 'इष्‍टलिंग' प्रदान करके पंचाक्षरी मंत्र का उपदेश करते हैं। इस दीक्षा का पुरुष तथा स्‍त्रियों के समान अधिकार है।
जन्म के आठवें वर्ष में दी जाने वाली दीक्षा उत्‍तम मानी जाती है। सोलहवें वर्ष में दी जाने वाली दीक्षा मध्यम और उसके बाद दी जाने वाली को अधम कहा गया है (वी.स.सं. 11/2)।
दीक्षा के बिना कोई भी वीर-शैव लिंगांग सामरस्यात्मक मोक्ष के लिये अधिकारी नहीं बन सकता है। अतः 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' इस व्यास-सूत्र की व्याख्या में वीरशैव आचार्यो ने 'अथ' शब्द का 'दीक्षा द्‍वारा इष्‍टलिंग धारण आदि अष्‍टावरण प्राप्‍ति के अनंतर' इस प्रकार अर्थ किया है (श्रीकर.भा. 1-1-1) (क्रि.सा.1/66,84; ब्र.सू.वृ. पृष्‍ठ 17-34)।)
जैसे स्वाति नक्षत्र में शुक्‍ति (सीप) में गिरा हुआ जल मोती बन जाता है, पुन: पानी नहीं बनता, उसी प्रकार दीक्षित जीव पुन: भवचक्र में नहीं आता। उसका यही जन्म अंतिम है (वी.स.सं. 11/3-7)। यह दीक्षा 'वेध', 'मंत्र' और 'क्रिया' इस तरह से तीन प्रकार की होती है (सि.शि. 6/12 पृष्‍ठ 85)।)
क. वेध दीक्षा-
गुरु प्रथमत: शिष्य को अपनी शिवावह दृष्‍टि से देखता है और अपने हस्त से शिष्य के मस्तक का स्पर्श करता है। इस स्पर्श का मूल उद्‍देश्य शिष्य में शिवत्व समावेश करना रहता है। इस हस्त-मस्तक-संयोग-रूप क्रिया से उस समय शिष्य को क्षणभर के लिये शिव स्वरूप का आभास मिलता है, अर्थात् उसको 'मैं शिव हूँ' यह अनुभव होता है। वस्तुत: यह 'शिवोടहं' भावना ही भावलिंग है। गुरु-कृपा से प्राप्‍त इस भावलिंगानुभव को शिष्य पुन: अपनी साधना के द्‍वारा दृढ़ कर लेता है। इससे उसके आणव-मल की निवृत्‍ति हो जाती है। गुरु द्‍वारा किया जाने वाला आणव मल निवारक चिन्मय शिवस्वरूप का उपदेश ही 'वेध दीक्षा' है (सि.शि. 6/13 पृष्‍ठ 86; अनु.सू. 5/40, 57; वी.स.सं. 11/10)।)
ख. मंत्र दीक्षा
शिष्य के दाहिने कर्ण में अत्यंत गोपनीयता से शिवमय पंचाक्षर मंत्र का उपदेश देना ही मंत्र दीक्षा कहलाती है। यह लक्ष्य में रखना है कि जिसको वेध दीक्षा दी जाती है, उसी को मंत्रोपदेश दिया जाता है। यहाँ उपासना या मनन करने के लिये शिव के मंत्रमय स्वरूप का उपदेश होता है। 'शिव' पंचाक्षरी मंत्र स्वरूप ही है। अतः उस मंत्र की आवृत्‍ति से तथा तदाकार मनन करने से मन के माया-मल की निवृत्‍ति हो जाती है। मंत्रोपदेश के अनंतर गुरु शिष्य के हृदय में प्रकाश रूप प्राणलिंग का बोध कराता है। इस तरह माया-मल की निवृत्‍ति तथा 'प्राणलिंग' का बोध ही इस दीक्षा का फल है (सि.शि. 6/14 पृष्‍ठ 86) (अनु.स. 5/41,58) (वी.स.सं. 11/11)।
ग. क्रिया दीक्षा
शुभ मुहूर्त में मठ या मंदिर आदि पवित्र स्थानों में मंडप तैयार करके उसमें कलश-स्थापन-पूर्वक मंडल-रचना, मूर्तिपूजा आदि की जाती है। वीरशैव मत में पंच कलश स्थापन करने का विधान है। गुरु अपने आम्‍नाय के अनुसार प्रथमत: उन पाँच कलशों में वीरशैवों के पंच-सूत्र तथा गोत्र के मूल प्रवर्तक रेणुक, दारुक, घंटाकर्ण, धेनुकर्ण तथा विश्‍वकर्ण इन पाँच आचार्यो का आह्वान करके उनकी साक्षी में शिष्य को अपने सम्मुख बिठाकर पंचगव्य प्राशन, अभिषेक आदि से उसके शरीर को शुद्‍ध करता है (सि.शि. 6/15-19 पृष्‍ठ 86,87)। इस शुद्‍ध शरीर को मंत्रपिंड कहते हैं। इस प्रकार अंग-शुद्‍धि के अनंतर शिलामय पंचसूत्र समन्वित शिवलिंग में से शिलात्व की निवृत्‍ति के लिये जलाधिवास, धान्याधिवास आदि अधिवास् क्रियायें संपन्‍न की जाती हैं। इसके बाद उस लिंग में शिवकला-नियोजन द्‍वारा प्राणप्रतिष्‍ठा करते हैं (वी.स.सं. 10/47-68)। तब उस सुसंस्कृत शिवलिंग को शिष्य के हाथ में देकर गुरु यह शिक्षा देता है कि इसको अपने प्राण की तरह सदा गले में धारण करना चाहिये (सि.शि. 6/5 पृष्‍ठ 90)। अनंतर गुरु पंचाक्षरी मंत्र का उपदेश करते हैं तथा उस मंत्र के छंद, ऋषि और देवता का ज्ञान कराकर न्यास-पद्‍धति को भी सिखाते हैं (सि.शि. 6/20,21 पृष्‍ठ 87, 88)। इस तरह इष्‍ट लिंग-धारण के लिये किया जाने वाला संस्कार ही 'क्रियादीक्षा' है। इस दीक्षा से जीव के कार्मिक-मल (संचित कर्म) नष्‍ट हो जाते हैं (अनु.सू. 5/41, 58, 59)।
(वीरशैव दर्शन)

दीक्षागुरु
देखिए 'अष्‍टावरण' शब्द के अंतर्गत 'गुरु'।
(वीरशैव दर्शन)

द्‍वैताद्‍वैतात्मक-विशेषाद्‍वैत
वीरशैव दर्शन के अनेक नामों में यह भी एक नाम है। इस नाम से वीरशैव-सिद्‍धांत का प्रतिपाद्‍य विषय ज्ञात होता है। 'विश्‍चशेषश्‍च = विशेषौ = ईशजीवौ, तयोरद्‍वैतं = विशेषाद्‍वैतम्' यह इस शब्द की व्युत्पत्‍ति है। 'वि:' शब्द का पक्षी और परमात्मा, ये दो अर्थ होते हैं। 'द्‍वासुपर्ण सयुजा सखाया --- अभिचाकशीति' (मु. 3-1-1)' इस मंत्र में शिव का पक्षी के रूप में वर्णन किया गया है। अतः इस प्रमाण के आधार पर यहाँ 'वि:' शब्द का अर्थ परमात्मा अर्थात् 'शिव' लिया गया है। 'शेष' शब्द का अर्थ होता है 'अंश'। 'यथा सुदीप्‍तात्पावकाद्‍विस्फुलिङ् गा: सहस्रश: प्रभवंते सरूपा: ---- तत्र चैवापियंति (मुं. 2-1-1)' इस मंत्र में अग्‍निकणों के दृष्‍टांत से जीवों को शिव का अंश कहा गया है। अतः इस मंत्र के प्रमाण से यहाँ 'शेष' शब्द का अर्त शिव का अंशभूत जीव लिया जाता है। इस प्रकार 'वि:' का अर्थ 'शिव' और 'शेष' का अर्थ 'जीव' है। अतः शिव और जीव इन दोनों का अद्‍वैत ही 'विशेषाद्‍वैत' कहलाता है।
यहाँ पर शिव और जीव का अद्‍वैत 'यथा नद्‍य: स्यंदमाना: समुद्रടस्तं गच्छंति नाम रूपे विहाय ---- तथा ---- पुरुषमुपैतिदिव्यग् (मु. 3-2-8)' इस श्रुति के अनुसार समुद्र और नदी के दृष्‍टांत से प्रतिपादिप किया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जैसे समुद्र से भिन्‍न स्वरूपवाली नदियाँ समुद्र से मिलकर समुद्रस्वरूप हो जाती हैं, उसी प्रकार संसार-दशा में वस्तुत: शिव से भिन्‍न स्वरूप वाला जीव मुक्‍तावस्था में शिव के साथ सर्वथा अभिन्‍न अर्थात् समरस हो जाता है। अतः इस दर्शन में शिव और जीव के भेद तथा अभेद इन दोनों को सत्य मानते हैं। द्‍वैत तथा अद्‍वैत प्रतिपादक दोनों प्रकार की श्रुतियों का समन्वय करने के लिए इस दर्शन में भेद और अभेद दोनों को सत्य माना गया है। इसीलिये द्‍वैत श्रुतियों के आधार पर मुक्‍तावस्था में उन दोनों के अभेद के प्रतिपादक इस दर्शन को 'द्‍वैताद्‍वैतात्मक-विशेषाद्‍वैत' कहते हैं। (श्रीकर. भा. मंगलश्‍लोक 14,15 पृष्‍ठ 2)।
(वीरशैव दर्शन)


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