पश्चधमन
क्षारकीय बेसेमर प्रक्रम का अंतिम चरण/कार्बन को पूर्णतया पृथक कर देने के बाद तीन या चार मिनट तक हवा का प्रवाह जारी रखा जाता है। इस अवधि में अधिकांश फॉस्फोरस अलग हो जाता है। इस समय को सावधानीपूर्वक नियंत्रित किया जाना चाहिए ताकि लोह का अधिक ऑक्सीकरण न हो।
तुलना-- Fore blow
Age hardening
काल कठोरण
किन्हीं अलोह मिश्रातुओं की सामर्थ्य एवं कठोरता में काल प्रभावन और अवक्षेपण द्वारा वृदि्ध की जा सकती है। यह प्रभाव ठोस विलयन बनाने वाले मिश्रातुओं में ही पाया जाता है जैसे ताम्र-लोह, डूरेलिमिन, मॉलिब्डेनम-लोह और निकैलमूलक मिश्रातु। इस विधि में मिश्रातु को विशिष्ट उच्च ताप तक गर्म करके उसे शामित किया जाता है और फिर उसका ताप बढ़ाकर कृत्रिम काल प्रभावन द्वारा अवक्षेपण कठोरण किया जाता है जिससे कि अंसतृप्त ठोस विलयन से धात्विक यौगिक, सूक्ष्म अवक्षेप के रूप में अवक्षिप्त हो जाते हैं। इस प्रकम के फलस्वरूप मिश्रातुओं की सूक्ष्म संरचना में परिवर्तन हो जाते हैं। इसे अवक्षेपण कठोरण भी कहते हैं।
Ageing
काल प्रभावन
वायुमंडलीय ताप पर संग्रहित अनेक मिश्रातुओं में स्वतः कठोरण हो जाता है। यह प्रभाव अति संतृप्त ठोस विलयन से अवक्षेपण द्वारा उत्पन्न होता है। इस परिवर्तन को काल प्रभावन कहते हैं। इसे सर्वप्रथम डुरैलमिन में पाया गया था। काल प्रभावन के फलस्वरूप धातुओं का प्रमाणिक प्रतिबल, अधिकतम प्रतिबल एवं कठोरता बढ़ जाती है और भंगुरता किंचित कम हो जाती है। प्रायः काल प्रभावन शब्द का प्रयोग इस्पात के लिए और काल कठोरण शब्द का प्रयोग अलौह मिश्रातुओं के लिए किया जाता है। जब ताप बढ़ाकर काल प्रभावन किया जाता है तो इस कृत्रिम काल प्रभावन को प्रक्रम अवक्षेपण कठोरण कहते हैं।
Ageing index
कालप्रभावन सूचकांक
देखिए-- Ageing test
Ageing test
कालप्रभावन परीक्षण
इस प्रक्रिया में तनित परीक्ष्य वस्तु की विकृति द्वारा पराभव बिंदु के बाद 10 प्रतिशत तक दैर्ध्यवृद्धि की जाती है। इस अवस्था में भार को ज्ञात कर लिया जाता है और परीक्ष्य वस्तु को अलग कर 100˚C पर 24 घंटे के लिए काल-प्रभावन हेतु छोड़ दिया जाता है। परीक्ष्य वस्तु को फिर से तनन मशीन में रखकर भार लगाया जाता है। नए पराभव बिंदु पर भार को पुनः ज्ञात कर लिया जाता है। इस प्रकार भार में वृद्धि को आरंभिक भार के प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। प्राप्त परिणाम को कालप्रभावन सूचकांक कहते हैं।
Agglomeration
संपिंडन
एक या अधिक घटकों के चूर्णित कणों का संयोजन जो दाब द्वारा अथवा अवसिंटरन ताप से कम ताप पर गरम करने से परस्पर संयुक्त रहते हैं। संपिंडन के फलस्वरूप कणों के आमाप में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है। संपिंडन की प्रमुख विधियाँ इस प्रकार हैं--
1. गुलिकायन (Balling)-- यह सूक्ष्म कणों के संपिंडन की विधि है। डिस्क ड्रम अथवा शंकु के घूर्णन द्वारा कण परस्पर जुड़ जाते हैं। गुटिकाओं और ग्रंथिकाओं को बनाने के लिए कणों को परस्पर जोड़ने वाले आबंधों के प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं।
2. इष्टिकायन (Briquetting)-- इस प्रक्रम में अयस्क-चूर्ण को बंधक के साथ या बंधक के बिना दबाकर उपयुक्त आकार और आमाप की इष्टिकाएँ बनाई जाती हैं। इन इष्टिकाओं का कठोरण किया जाता है। प्रयुक्त बंधक का प्रकार और मात्रा, इष्टिकायन दाब और ताप और बाद में किया जाने वाला कठोरण प्रक्रम आदि कच्चे पदार्थ और उत्पाद के वांछित गुणधर्मों पर निर्भर करते हैं। आबंध का प्रकार बनने के तरीके पर भी निर्भर करता है। संपिंडन का यह प्रक्रम कोक-इष्टिकाओं को बनाने में अधिक तथा लोह-इष्टिकाओं को बनाने में कम प्रयुक्त होता है।
3. उत्सारण (Extrusion)-- इस प्रक्रम द्वारा अयस्क और कोयला-चूर्ण से बेलनाकार संपिंड बनाए जाते हैं। मिश्रण में पानी और उपयुक्त बंधक मिलाकर उसे वृत्ताकार छिद्र से बाहर निकाला जाता है। बाहर निकल रहे उत्पाद को कच्ची अवस्था में ही, चाकू से काटकर छोटे-छोटे बेलन बना लिए जाते हैं। इन बेलनाकार संहितियों को सुखा कर गरम किया जाता है जिससे वे कठोर हो जाते हैं।
4. ग्रंथिकरण (Nodulizing)-- इसमें लोह-अयस्क और कोक के बारीक चूर्ण को क्षैतिज से कुछ डिग्री पर झुके घूर्णी भट्टे में से निकाला जाता है। ज्वालक से उत्पन्न गरम गैसों की धारा को विपरीत दिशा में भेजा जाता है जिससे अयस्क के धातुमलघटक पिघल जाते हैं। इसके फलस्वरूप सघन, धातुमल युक्त ग्रंथिकाएँ बनती हैं जो गोलाकार न होकर संहत ग्रंथिकाएँ होती हैं। 5. गुटिकायन (Pelletization)-- इस प्रक्रम में दो क्रियाएँ होती हैं। पहली क्रिया में सामान्य ताप पर कच्ची गोलियाँ बनाई जाती हैं और दूसरी में उनका उन्नत ताप (1200°C के आसपास) पर ज्वालन किया जाता है। लगभग 200 मेश वाले अयस्क चूर्ण को बंधक के साथ अथवा बिना बंधक के, पानी में मिलाकर बेलने से कच्ची गोलियाँ बनाई जाती हैं। ये गोलियाँ क्षैतिज ड्रम शंकु अथवा नताघूर्णी-चक्रिका में बनाई जाती हैं। कच्ची गोलियों की मजबूती केशिका-बलों और कूटकर ठोस बनाने के कारण होती है। उच्च ताप पर ज्वालन करने पर धातुमल आबंधों के बनने के कारण ये गोलियाँ अधिक मजबूत हो जाती हैं। गुटिका बनाने की मशीन, चक्रिका, गुटिकायित्र एवं ड्रम गुटिकायित्र कहलाती है। 6. सिंटरण (Sintering)-- यह विधि साधारणतया स्थूल-कणों के लिए उपयुक्त होती है। इसमें कणों का संपिंडन आरंभी गलन के कारण होता है। इस प्रक्रम में लोह-अयस्क चूर्ण, कोक-धूलि और आवश्यकता होने पर चूने का पत्थर, डोलोमाइट आदि योज्यों को मिलाया जाता है। यह मिश्रण, गैसों के लिए पारगम्य होता है और उसे स्थिर या चल संस्तर में डाला जाता है। संस्तर के ऊपरी भाग का दहन करने पर कोक-धूलि जलती है जिससे सिंटरण के लिए आवश्यक ऊष्मा प्राप्त होती है। कोक-दहन से उत्पन्न गरम उत्पाद, प्रयुक्त चूषण के फलस्वरूप नीचे की पर्त में गिरते हैं जिससे उनका शुष्कन और संलयन हो जाता है। दहन-पर्त के संस्तर की तली पर पहुँचने तक सिंटरण होता रहता है। तत्पश्चात् उसे ठंडा करने के बाद उचित आमाप के टुकड़ों में तोड़कर चालनी में छान लिया जाता है। छोटे सिंटरों का पुनर्चक्रण किया जाता है जबकि बड़े सिंटरों को वात्या भट्टी में भेज दिया जाता है। एकीकृत लोह-संयंत्रों में अयस्क चूर्ण के उपयोग की यह सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली विधि है क्योंकि इसमें कोक-धूलि का ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है जो एक अपशिष्ट पदार्थ है। सिंटरण से वात्या भट्टियों में काम आने वाला उच्च क्षारकता सिंटर बनाया जा सकता है जिसे गुटिकायन द्वारा बनाना संभव नहीं है।
अक्रिय गैस रक्षित वेल्डिंग
देखिए-- Inert gas welding
Air hardening steel
वायु कठोरण इस्पात
वह इस्पात जिसे उसके क्रांतिक ताप-परास में अथवा उससे अधिक ताप से वायु में ही ठंडा कर कठोर किया जा सकता है और जिसमें कठोरता उत्पन्न करने के लिए उससे अधिक ताप में शमन करने की आवश्यकता नहीं होती है। इसका विशिष्ट उदाहरण निकल-क्रोमियम इस्पात है जिसमें 0.3% कार्बन, 4% निकैल और 1.5% क्रोमियम होता है। टंग्स्टन, मैंगनीज, वैनेडियम, निकैल और क्रोमियम के निम्न-मिश्रातु इस्पात (low alloy steel) इस वर्ग में आते हैं।
Aitch's metal
ऐच धातु
एक ताम्र मिश्रातु जिसमें 60% Cu, 38.2% Zn और 1.8% Fe होता है। इसके उत्तम संचकन गुण होते हैं। इसका उपयोग पंपों, वाल्वों, पाइप-फ्लेंज आदि में होता है।