धरण-पाषाण
भवन बनाते समय किसी गर्डर के सिरे या छत के त्रिकोण को आधार देने के लिए दीवार में जड़ा पत्थर, जिस पर पाटन (छत आदि) या बोझ ठहर सके।
pagoda
पैगोडा
बर्मा, चीन, जापान आदि सुदूर पूर्व के देशों में विद्यमान एक बहुस्तरीय अलंकृत मीनार जैसी संरचना। बौद्ध मंदिरों की मीनार जैसी संरचनाओं को प्रायः पैगोडा कहा जाता है। प्रत्येक देश के पैगोडाओं में देश विशेष की कला का प्रभाव होता है और इनके वास्तुकलात्मक विन्यास में पर्याप्त वैभिन्य के दर्शन होते हैं।
pai-loo
अलंकृत तोरण
चीनी वास्तुकला में, द्वार विशेष, जिसमें मूर्तियाँ और अलंकरण बने होते थे। इस तोरण में, किसी नायक या नायिका की कीर्ति का विवरण अंकित होता था।
Painted Black and Red Ware
चित्रित काले-लाल भांड
ई. पू. द्वितीय सहस्त्राब्दि परंपरा। इन भांडों का बाहरी भाग लाल और भीतरी भाग काला होता था। पकने से पूर्व सामान्यतः अंवठ के नीचे की बाहरी सतह पर श्वेत रंग से चित्रित किया जाता था। कभी-कभी भीतरी सतह पर भी चित्रण मिलते हैं। चित्रण सीधी, लहरियादार, आड़ी-तिरछी रेखाओं तथा बिंदुओं से निर्मित किए जाते थे। इन मृद्भांडों को आवे में उल्टा रखकर पकाया जाता था। इस मृद्भांड परंपरा का प्रमुख क्षेत्र बनास नदी की घाटी था।
यह मृद्भांड सर्वप्रथम 1952-53 में माहेश्वर और नवदाटोली की खुदाई में मालवा भांड के साथ मिले थे। इससे संबंधित 50 से अधिक पुरास्थल प्रकाश में आए हैं। मृद्भांड प्रकारों में विभिन्न प्रकार के कटोरे और तश्तरियाँ मिली हैं। ये मृद्भांड बनास क्षेत्र के अलावा भगवानपुरा (चितौड़), एरण (सागर), कायथा (उज्जैन), पांडु राजार धीबी (जिला बर्दवान), चिराद (बिहार), राजघाट (वाराणसी) और सोहगोरा (गोरखपुर) आदि स्थलों से मिले हैं। गुजरात में अनेक स्थलों में हड़प्पाकालीन मृद्भांडों के साथ ये मृद्भांड भी प्राप्त हुए हैं। सामान्यतः इनकी स्वीकृत तिथि ई. पू. 1800 से ई. पू. 1200 के बीच मानी जाती है।
Painted Grey Ware
चित्रित धूसर भांड
धूसर तल पर काले रंग से चित्रित चाकनिर्मित मृद्भांड। आजकल यह भांड परंपरा इसी नाम की संस्कृति का द्योतक बन गई है। चिकनी मिट्टी से बने इन पात्रों को नियमित ताप (controlled firing) से बंद आँवों में पकाया जाता था। इन हलके विशिष्ट (deluxe) भांडों की दीवारें पतली होती थीं। प्रमुख पात्र-प्रकारों में कटोरियाँ, थालियाँ, तश्तरियाँ हैं। कभी-कभी लोटेनुमा पात्र तथा मंडलाकार आधार वाले टोंटीयुक्त पात्र भी मिलते हैं। इन पर पकाने से पूर्व रेखाएँ (सीधी, सर्पिल एवं आड़ी-तिरछी आदि), बिंन्दु तथा ज्यामितिक और वानस्पतिक आकृतियाँ चित्रित की जाती थीं। इस भांड परंपरा के साथ अचित्रित धूसर भांड एवं लाल भांड भी मिलते हैं।
सर्वप्रथम यह मृद्भांड 1944 ई. में अहिच्छत्र की खुदाई में प्राप्त हुआ था। परंतु इसका महत्व हस्तिनापुर के उत्खनन के बाद ही स्थापित हुआ। अब तक यह मृद्भांड उत्तर में थाप्ली (गढ़वाल) से दक्षिण में उज्जैन तथा पश्चिम में घरेंडा (अमृतसर) से पूर्व में वैशाली तक पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार प्रांतों से प्रतिवेदित हो चुके हैं। भारत से बाहर यह मृद्भांड पाकिस्तान में लखियोपीर, हड़प्पा तथा चोलिस्तान क्षेत्र में प्राप्त हुए हैं।
इसकी प्राचीनतम तिथि भगवानपुरा (हरियाणा) के उत्खनन से ई. पू. द्वितीय सहस्राब्दि के उत्तरार्ध तथा मध्य गंगाघाटी में अत्रंजीखेड़ा तथा हस्तिनापुर से ई. पू. 1100-ई. पू. 500 आँकी गई है।
Painted Grey Ware Culture
चित्रित धूसर भांड संस्कृति
वह संस्कृति जो मुख्यतः चित्रित धूसर भांड परंपरा द्वारा पहचानी जाती हैं। इस संस्कृति से संबंधित अनेक पुरास्थल ज्ञात हैं, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण उत्खनित स्थल रोपड़, भगवानपुरा, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, अत्रंजीखेड़ा, झखेड़ा, श्रावस्ती, सरदारगढ़ तथा नोह हैं। यह मुख्यतः पशुपालन तथा कृषि पर आधारित ग्राम्य संस्कृति थी। ये लोग नरकुल और मिट्टी से बनी झोपड़ियों और कच्चे मकानों में रहते थे। भगवानपुर के उत्खनन में पकी ईंटों का भी प्रयोग मिलता है। ये मुख्यतः चावल और मांस खाते थे।
भारत में काँच के प्रयोग के सर्वप्रथम प्रमाण इसी संस्कृति के संदर्भ में भगवानपुर से मिले हैं। ये ताम्र से परिचित थे और आगे चलकर लौह के प्रयोग का समारंभ भी इन्ही के द्वारा किया गया। ये लोग अस्थि निर्मित उपकरण, मिट्टी से बनी चक्रिका एवं खिलौने, मनके, आदि का भी प्रयोग करते थे और मृतकों को दफनाते थे (भगवानपुरा)।
इस संस्कृति के दो चरण स्पष्टतः दिखाई पड़ते हैं- प्रथम चरण में यह संस्कृति परवर्ती हड़प्पाकालीन संस्कृति से संबद्ध प्रतीत होती है जिसके प्रभाव भगवानपुर, दधेड़ी, काटपालोन, नगर और संघोल आदि के उत्खनन में मिले हैं। इन स्थलों पर चित्रित धूसर भांड के साथ-साथ उत्तर हड़प्पाकालीन भांड, ताम्र उपकरण और शवाधान मिलते हैं।
द्वितीय चरण में इस संस्कृति में लौह का प्रयोग दिखाई पड़ता है। हस्तिनापुर, अत्रंजीखेड़ा आदि स्थलों के उत्खनन से यह ज्ञात होता है कि गंगा घाटी में इस संस्कृति के लोग गेरूए भांड (OCP) से संबंधित लोगों के बाद आकर बसे थे। हस्तिनापुर में इस संस्कृति के गंगा में बाढ़ में विनष्ट होने के प्रमाण मिले हैं। स्तरीकरण के आधार पर इस संस्कृति की तिथि ई. पू. 1100-ई. पू. 500 वर्ष आँकी जाती है। बाढ़ से हस्तिनापुर के विनष्ट होने से साहित्यिक साक्ष्य तथा महाभारत में उल्लिखित स्थलों से इस भांड के मिलने के आधार पर कतिपय पुरावेत्ता इस संस्कृति को उत्तर वैदिककालीन संस्कृति मानते हैं।
palaeobiology
पुराजीव विज्ञान
प्राचीन जीवों का अध्ययन। इस विज्ञान में विशेषतया प्राचीन जीवों के उस पक्ष का अध्ययन किया जाता है जो विकास तथा अन्य जीवन पहेलियों से संबंधित होता है।
palaeobotany
पुरावनस्पति विज्ञान
अश्मीभूत पादपों का अध्ययन। इसका संबंध भूविज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान दोनों से है। इसका उपयोग प्रागैतिहास के अध्ययन में विशेष रूप से किया जाता है।
palaeoclimatology
पुराजलवायु विज्ञान
पृथ्वी के इतिहास में भूवैज्ञानिक कल्पों की जलवायवी परिस्थितियों की विवेचना से संबंधित विज्ञान।
palaeo-dendrology
पुरावृक्षविज्ञान
जीवाश्मित वृक्षों के अध्ययन से संबंधित पुरावनस्पति विज्ञान की एक शाखा।