कालीबंगा
राजस्थान के गंगानगर जिले में, घग्गर (प्राचीन सरस्वती) नदी के तट पर प्राप्त आद्य ऐतिहासिक सांस्कृतिक स्थल। कालीबंगा के निचले स्तर में, हड़प्पा संस्कृति की पूर्ववर्ती संस्कृति मिली है। ऊपरी स्तरों पर हड़प्पा की परिपक्व संस्कृति के अवशेष मिले हैं। दोनों संस्कृतियों की कड़ी के रूप में कालीबंगा स्थल का विशेष महत्व है। पूर्व हड़प्पा संस्कृति के प्रथम काल में यहाँ रक्षा प्राचीरों के घिरी एक समांतर चतुर्भुज के प्रमाण मिले हैं। सामान्यतः मकान तथा रक्षा प्राचीर दोनों ही कच्ची ईटों के बने हैं। मृद्भांड 6 प्रकार के हैं जिनमें अधिक संख्या लाल मृद्भांडों की है। इन पर चित्रण भी मिलता है। हड़प्पाकालीन मृद्भांडों में इन्हें भिन्न कहा गाया है। अन्य विशेषताओं में कैल्सेडोनी एवं गोमेद के छोटे फलक, स्टीऐटाइट, शुक्ति (shell), कार्नीनियन, मिट्टी तथा तांबे, शुक्ति और मिट्टी की चूड़ियाँ, आकृतियाँ तथा तांबे की कुल्हाड़ियों का उल्लेख किया जा सकता है। बस्ती के दक्षिणपूर्व में हल से जुते हुए खेत के प्रमाण अद्वितीय हैं। रेडियोकार्बन तिथि के आधार पर इसका काल ई. पू. 2450-ई. पू. 2300 आँका गया है।
द्वितीय काल परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का है जिसमें बस्ती दो भागों में विभाजित थी। दुर्ग जो प्रथम काल के अवशेषों पर स्थापित था और निचला नगर भाग समांतर चतुर्भुज दुर्ग भी दो भागों में विभाजित था। दुर्ग के चारों ओर कच्ची ईंटों से बनी रक्षा प्राचीर थी जिसमें स्थान-स्थान पर बुर्ज भी हैं। दुर्ग के अंदर पाँच से छह कच्ची ईंटों के बने बृहदाकार चबूतरे प्राप्त हुए हैं जिनके ऊपर सम्भवतः भवन बने थे। निचले नगर की बस्ती समांतर चतुर्भज आकार की थी परन्तु यह दुर्ग की अपेक्षा छोटी थी। इसमें भी चारों ओर कच्ची ईंटों की रक्षा प्राचीर थी। सम्पूर्ण नगर उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम जाने वाली सड़कों के परिणामस्वरूप एक जालाकार योजना का स्वरूप धारण करता था। नगर में प्रविष्ट करने के लिए उत्तर और पश्चिम में दो द्वार थे। निचले नगर के चार या पाँच अग्निवेदिकाओं से युक्त एक छोटा भवन मिला है। दुर्ग के पश्चिम में शवाधान स्थल मिला है। इस काल को ई. पू. 2300 और ई. पू. 1750 से मध्य रखा गया है।
kaolin (= China clay)
केओलिन
एक सफेद या लगभग सफेद रंग का मृत्तिका शैल जो कि अतिफेल्सपारी शैलों के अपघटन के फलस्वरूप बनता है। इसे पोर्सिलेन का पेस्ट बनाने के काम में लाया जाता है। इसका प्रयोग मुख्यतः मिट्टी के बर्तन बनाने के काम में लाया जाता है।
Karewas
करेवा
कश्मीर धाटी की झीलों के किनारे बालू एवं सूक्ष्म कणिकाओं से बने जलोढक (एल्यूवियन) जमाव। इन जमावों को करेवा कहा जाता है। इन जमावों के ऊपर नवपाषाणकालीन महत्वपूर्ण अवशेष एवं गर्त-आवास के प्रमाण होते हैं। महत्वपूर्ण उत्खनित पुरास्थलों में बुर्जहाम एवं गुफकाल हैं।
Kassites
कैसाइट
मध्य जेग्रोस पहाड़ों के निवासी वे लोग, जिन्होंने हित्ती आक्रमण के उपरांत, लगभग सन् ई.पू. 1595 में बेबिलोन पर अधिकार किया था। चार शताब्दियों तक उनका बेबिलोन नगर पर लगभग ई.पू. 1157 तक अधिकार रहा। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर इनकी पहचान कठिन है, क्योंकि इन्होनें कुछ भारोपीय देवताओं की आराधाना प्रारम्भ की थी अतः इनके शासकों को कभी-कभी भारोपीय कहा जाता है।
Kayatha Culture
कायथा संस्कृति
जिला उज्जैन में छोटी काली सिंध नदी के किनारे उत्खनन में प्राप्त एक ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति जिसकी जिसकी खोज वी. एस. वाकणकर ने की थी। इसका सर्वप्रथम उत्खनन 1965-67 में किया गया। उत्खनन के आधार पर इस संस्कृति को पाँच कालों में विभक्त किया गया। प्रथम काल लगभग ई.पू.1800 माना गया है जो उपमहाद्वीप की एक विशिष्ट ताम्राश्म संस्कृति मानी जाती है। इस काल में विशिष्ट तीन प्रकार के मृद्भांड उद्योग मिले हैं जिनमें दो प्रकार के चित्रित मृद्भांड तथा एक कर्तित (incised) मृद्भांड उद्योग हैं। ताम्र तथा प्रस्तर के उपकरण मिले हैं। कायथा संस्कृति के लोगों को यहाँ पर बसने से पूर्व ताम्र प्रौद्योगिकी का ज्ञान था। द्वितीय काल बनास संस्कृति (लगभग ई.पू 1700-ई. पू. 1500) के नाम से जाना जाता है। कायथा संस्कृति के लुप्त होने पर क्षेत्र में बनास संस्कृति (अहाड़ संस्कृति) के लोगों ने लगभग ई.पू. 1800 में अधिकार कर लिया। जिनकी प्रमुख विशेषता काले और लाल-मृद्भांडों को सफेद रंग से चित्रित किया गया। तृतीय काल मालवा संस्कृति (लगभग ई.पू. 1500-ई.पू. 1200) है जो अपने विशिष्ट, चित्रित मालवा मृद्भांडों के लिए विख्यात है। चतुर्थ काल प्रारंभिक ऐतिहासिक (लगभग ई.पू. 600-ई.पू.200) है। तृतीय काल से चतुर्थ काल के बीच लगभग सात शताब्दियों का अंतराल मिलता है। पंचम काल शुंग, कुषाण और गुप्त कालीन (लगभग ई.पू. 200-ई.पू 600) है। इस काल के लाल और लाल-लेपित मृद्भांड विशिष्ट हैं। विशिष्ट प्रकार के मिट्टी के पान-पात्र, कर्णफूल, चम्मचें शकटिका (toy-cart) और शंखों की चूड़ियाँ उल्लेखनीय हैं।
देखिए: 'Kayatha ware'
kayatha ware
कायथा मृद्भांड
मध्य-प्रदेश की ताम्रपाषाणयुगीन एक मृद्भांड परंपरा। इसका नामकरण मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में छोटी काली नदी के दाँए किनारे पर स्थित कायथा नामक स्थल से मिले अवशेषों के आधार पर पड़ा। इन चाक निर्मित सुदृढ़ मृद्भांडों के बाहरी सतह पर गाढ़ा लेप लगाया जाता था जिसके ऊपर बैगनी रंग से खड़ी तथा सर्पिल रेखाओं के साथ-साथ फंदाकार अलंकरण बने मिले हैं। इनके प्रमुख पात्र, छोटी गरदन और चौड़े मुख वाले गोल लोटे, अंदर की ओर अंवठदार स्कन्धयुक्त नौ तलाकार चषक तथा विशाल अंवठदार जार हैं। इस मृद्भांड परंपरा का काल ई. पू. 2000-ई. पू. 1800 आँका गया है।
देखिए : 'kayatha culture'
keeled scraper
निधरणाकार क्षुरक, निधरणाकार खुरचनी
यूरोपीय उच्च पूर्व पाषाणकालीन विशिष्ट उपकरण, जो शल्क तथा क्रोड दोनों पर बना मिलता है। इस उपकरण के बीच के उभरे भाग से, संकरे तथा छिछले फलक निकाले जाते हैं, जिनसे उपकरण की कार्यकारी धार बनती है। मध्य भाग के समानांतर फलक चिह्न पंखे की तरह लगते हैं। ये चिह्न नाली प्रविधि (fluting technique) से निकाले जाते थे। यह उपकरण यूरोप की आरिगनेशी संस्कृति की प्रमुख विशेषता हैं।
kerb
उपांताश्म
किसी संगोरा या शव-टीले के चारों ओर दीवार या पत्थर की चिनाई जो, पुश्ते का कार्य करती है।
kernos
दीप-मंडित पात्र, करनोस
मिट्टी के जार जैसा प्राचीन बर्तन, जिसके मुख के चारों ओर छोटे आकार के अनेक दीये लगे रहते थे। पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के उत्खनन में इस प्रकार के पात्र मिले हैं। यह अभी ज्ञात नहीं हो पाया है कि इन पात्रों का प्रयोग किस प्रयोजन के लिए होता था, तथापि इनके अनुष्ठानिक उपयोग की संभावना को सहज नकारा नहीं जा सकता।
kero
काष्ठ बीकर, केरो
लकड़ी का बना विशाल आकार का बीकर, जिसके पार्श्व भाग सीधे फैले होते हैं। इस पात्र में, उकेरकर ज्यामितिक नमूने बनाए गए हैं। इंका सभ्यता युग में इसका प्रयोग होता था। मिट्टी के बने इस प्रकार के पात्र अपेक्षाकृत प्राचीन हैं व तियाहुवान्को संस्कृति में प्रचलित थे।