कृषि योग्य भूमि को व्यक्त करने के लिए क्षेत्र के साथ उर्वरा शब्द का प्रयोग ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में होता आया है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में सिंचाई की सहायता से गहरी कृषि का उल्लेख मिलता है। खाद देने का भी वर्णन है। ऋग्वेद के अनुसार क्षेत्र भलीभाँति मापे जाते थे जिससे खेतों पर व्यक्तिगत स्वामित्व का पता चलता है। क्षेत्रों की विजय उर्वरा-सा 'उर्वरा-जित्', 'क्षेत्र-सा' का भी उल्लेख है, साथ ही 'क्षेत्रपति' नामक एक देवता की कल्पना में 'उर्वरापति' एक मानवीय उपाधि का आरोप है। ऋग्वेद में क्षेत्रों का उल्लेख संतान के उल्लेख के साथ ही हुआ है तथा संहिताओं में 'क्षेत्राणि संजि' अर्थात् क्षेत्रों की विजय का उल्लेख है।
पिशेल के मतानुसार क्षेत्र घास के क्षेत्रों से सीमित होता था, जिसे खिल्ल या खिल्य कहते थे। वेदों में साम्प्रदाय़िक खेती का उल्लेख या सामूहिक सह स्वामित्व का उल्लेख नहीं मिलता। व्यक्तिगत स्वामित्व भी उत्तर कालीन है। छान्दोग्य उप० में धन को व्यक्त करने वाले पदार्थों में क्षेत्र एवं घर कहे गये (आयतनानि) हैं। यवन लेखकों के उद्धरणों से भी व्यक्तिगत स्वामित्व का पता लगता है। प्रायः एक परिवार के सदस्य एक भूभाग में बिना विभाजन के सब स्वामित्व रखते थे। स्वामित्व के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियमों का सूत्रों के पूर्व अस्तित्व नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में पुरोहित को पारिश्रमिक रूप में भूमि दान करने का उल्लेख है। फिर भी भूमि एक विशेष धन थी जिसे आसानी से किसी को न तो दिया जा सकता था और न उसे त्यागा जा सकता था।
उर्वशी
(1) स्वर्गीय अप्सरा, जिसका उल्लेख संस्कृत साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है। सर्वप्रथम ऋग्वेद में पुरुरवा-उर्वशी आख्यान में इसका वर्णन पाया जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में उर्वशी के ऊपर कई आख्यान हैं। कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीय' में तो वह नायिका ही है। इन्द्र अपने किसी भी प्रतिद्वन्द्वी की तपस्या भङ्ग करने के लिए मेनका, उर्वशी आदि अप्सराओं का उपयोग करता था।
(2) महान् व्यक्तियों को भी जो वश में कर ले, अथवा नारायण महर्षि के ऊरु (जंघा) स्थान में वास करे उसे उर्वशी कहते हैं। इसकी उत्पत्ति हरिवंश में कही गयी है। उसके अनुसार वह नारायण की जंघा का विदारण करके उत्पन्न हुई थी।
उर्वशीकुण्ड (चरणपादुका)
बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका स्थान आता है। यही से नल लगाकर बदरीनाथ मन्दिर में पानी लाया गया है। चरणपादुका के ऊपर उर्वशीकुण्ड है, जहाँ भगवान् नारायण ने उर्वशी को अपनी जङ्घा से प्रकट किया था। किन्तु यहाँ का मार्ग अत्यन्त कठिन है। इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ, तैमिंगिलतीर्थ तथा नरनारायण आश्रम है। यदि कोई सीधा चढ़ता जाय तो वह इसी पर्वत के ऊपर से 'सत्पथ' पहुँच जायेगा। किन्तु यह मार्ग दुर्गम है।
उरुगाय
ऋग्वेद के विष्णुसूक्त में कथित विष्णु का विरुद्, जिसका अर्थ है 'जो बहुत लोगों द्वारा गाया जाय।' भगवान विष्णु अथवा कृष्ण की यह पदवी है :
जिह्वा सती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरूगायगाथा:। [हे सूत! जो बहुगेय भगवान् की कथा नहीं कहता-सुनता उसकी जिह्वा दादुर के समान व्यर्थ है।]
विस्तीर्ण गति के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है, जैसे कठोपनिषद् (2.11) में कहा है:
[हे नचिकेता! तुमने स्तुत्य और बड़ी ऐश्वर्ययुक्त, विस्तृत गति तथा प्रतिष्ठा को देखकर भी उसे धैर्यपूर्वक त्याग दिया।]
उल्कानवमी
एक प्रकार का अभिचार व्रत, जो आश्विन शुक्ल पक्ष की नवमी को किया जाता है। इस तिथि से प्रारम्भ करके एक वर्षपर्यन्त इसमें महिषासुरमर्दिनी की निम्नलिखित मन्त्र से पूजा करनी चाहिए : "महिषघ्नि महामाये०" (भविष्योत्तर पुराण)। इस व्रत का उल्का नाम होने का कारण यह है कि व्रती अपने शत्रु को उल्का जैसा भयंकर प्रतीत होता है। स्त्री यदि यह व्रत करे तो वह अपनी सपत्नी (सौत) के लिए उल्का सी प्रतीत होगी।
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उलूक
उल्लू पक्षी, जो लक्ष्मी का वाहन माना गया है। सांसारिक ऐश्वर्य बन्धन का कारण है, जो उसका स्वेच्छा से वरण करता है, वह पारमार्थिक दृष्टि से उलूक (मूर्ख) है। लक्ष्मीप्राप्ति की मन्त्रसाधना में इस पक्षी का सहयोग लिया जाता है। दे० 'उलूकतन्त्र'।
यह पक्षी अपनी उग्र बोली के लिए प्रसिद्ध है तथा इसे नैर्ऋत्य (दुर्भाग्य का सूचक) भी कहते हैं। पूर्व काल में जंगली वृक्षों को अश्वमेधयज्ञ में उलूक दान किये जाते थे, क्योंकि वे वहीं वास करने लगते थे।
उशती
उत्तम वाणी, कल्याणमयी वाणी, वेदवाणी; कामनाशील, स्नेहमयी महिला :
व्यामिश्र या मोहक वचन: `वर्जयेद् उशतीं वाचम्।` (महाभारत)
उशनस् उपपुराण
अठारह महापुराणों की तरह कम से कम उन्तीस उपपुराण ग्रन्थ हैं। प्रत्येक उपपुराण किसी न किसी महापुराण से निर्गत माना जाता है। उनमें औशनस उपपुराण भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसके रचयिता उशना अर्थात् शुक्राचार्य कहे जाते हैं।
उशनस् काव्य
एक भृगु (कवि) वंशज प्राचीन ऋषि, शुक्राचार्य। ऋग्वेद में इनका सम्बन्ध कुत्स एवं इन्द्र से दिखलाया गया है। पश्चात् इन्होंने असुरों का पुरोहितपद ग्रहण किया, उन्होंने देवों से प्रतिद्वंद्विता कर ली।
इनके नाम से राजनीति का सम्प्रदाय विकसित हुआ, जिसको कौटिल्य ने औशनस कहा है। दे० अर्थशास्त्र। इसके अनुसार केवल दण्डनीति मात्र ही विद्या है, जबकि अन्य लोग आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता को मिलाकर चार विद्यायें मानते थे। कौटिलीय अर्थशात्र के अनेक स्थलों पर उशना का उल्लेख हुआ है। ये घोर राजनीतिवादी थे। चरकसंहिता (8.54) में भी 'औशनस अर्थशास्त्र' का उल्लेख है। महाभारत के शान्तिपर्व (.56, 40--42;180,10) में उशना के राजनीतिक विचारों का उद्धरण मिलता है। परम्परा के अनुसार उशना ने बृहस्पतिप्रणीत विशाल ग्रन्थ का एक संक्षिप्त संस्करण तैयार किया था, जो कालक्रम से लुप्त हो गया। कुछ लोगों का मत है कि 'शुक्रनीतिसार' उसी का लघु संस्करण है।
उशना (स्मृतिकार)
यद्यपि मुख्य स्मृतियाँ अठारह हैं, किन्तु इनकी संख्या 28 तक पहुँच जाती है। स्मृतिकारों में उशना भी एक हैं। इस स्मृति में जाति एवं वृत्ति का विधान और अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न संकर-जातियों का विचार किया गया है।