हिन्दू-मुस्लिमवाद से मिश्रित एक उपासनामार्गी समुदाय। इसकी शिक्षा एवं नैतिकता सन्देहात्मक है। इस पर इस्लाम का प्रभाव भी परिलक्षित होता है तथा इसके अनुयायी अपना सम्बन्ध चैतन्य से जोड़ते हैं।
कर्म
वैशेषिक दर्शन में इसका साधारण अर्थ क्रिया, गति, अथवा काम है। अन्य दर्शनों में यह एक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसको आत्मा संसार में वहन करता है। मनुष्य के मानस में यह संस्कार रूप से कार्य करता रहता है। इसका प्रयोग कार्य-कारण सम्बन्ध के अर्थ में भी होता है। इसी से शुभाशुभ कर्मफल उत्पन्न होता है। इसी के आधार पर मनुष्य के जमान्तर का भी निर्धारण होता है। इसके तीन प्रकार हैं-- (1) प्रारब्ध, (2) सञ्चित और (3) क्रियमाण। प्रारब्ध वह है जो वर्तमान जीवन को चला रहा और जिसका फल भोगना अनिवार्य है। सञ्चित वह है जो पहले से एकत्रित जमा है और प्रायश्चित से दूर किया जा सकता है, अथवा ज्ञान से जिसका निराकरण हो सकता है। क्रियमाण वह है जो वर्तमान मे किया जाता है, जिसका फल साथ ही उत्पन्न होता जाता है और जो भविष्य का निर्धारण करता है।
भक्ति सम्प्रदायों में यह विश्वास है कि भगवान् की दया, अनुग्रह अथवा प्रसाद से सब तरह के कर्मफल समूल कभी भी नष्ट हो सकते हैं।
कर्मवाद
आवागमन तथा कर्म का सिद्धान्त सर्वप्रथम भली भाँती ब्राह्मण ग्रन्थों में स्थापित किया गया है। फिर भी उपनिषदों में ही प्रथम बार इसका सम्बन्ध नैतिक कार्यकारण के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत हुआ है। इस प्रकार इस गुरुतम सिद्धान्त की सृष्टि आर्यों की ही देन है। किन्तु कुछ विद्वानों का विश्वास है कि आदिम जातियाँ ही, जो यह विश्वास करती थीं कि मरने के बाद उनका आत्मा पशुशरीर में निवास करता है, उक्त सिद्धान्त को चलाने वाली हैं। यह बात अंशतः सत्य हो सकती है, क्योंकि आर्य लोग दैनिक जीवन में इनके संपर्क में रहते थे तथा धीरे-धीरे आर्यों ने इनसे सम्बन्ध भी आरम्भ कर दिया था। इनसे आर्येतरों ने वैज्ञानिक कार्य-कारण-सिद्धान्त 'कर्म' को सहज ही स्वीकार कर अपनी ओर से सामान्य लोगों में फैला दिया।
इस सिद्धान्त के अनुसार कारण और कार्य में प्रकृत सम्बन्ध है। कारण के अनुसार ही कार्य होता है। जीवात्मा अपने कर्म के अनुसार बार-बार जन्म ग्रहण करता एवं मरता है। मनुष्य का इस जन्म का चरित्र उसके दूसरे जन्म की अवस्थाओं का निर्णायक होता है। अच्छे चरित्र का सत्फल एवं बुरे का दण्ड मिलता है। दे० छान्दोग्य का उप० 5.10.7)।
काम के अर्थ में 'कर्म' शब्द एक अद्भुत शक्ति है जो सभी कर्मों को दूसरे जन्म के फल या कर्म के रूप में परिवर्तित कर कर देती है। इस सिद्धान्त का विकास होते होते निश्चित हुआ कि मनुष्य का मन, शरीर एवं चरित्र तथा उसके अनुभव उसके आगामी जन्म के कारणतत्त्व हैं। मनुष्य ने यह भी जाना कि जीवन पिछले कर्मों का फल है तथा एक जन्म के कर्म दूसरे जन्म में अच्छे फल एवं दण्ड की योजना करते हैं। इस प्रकार जन्म एवं मरण या संसार का आदि तथा अन्त नहीं है। इसी कारण आत्मा को आदि-अन्त रहित माना गया है।
किन्तु कर्म का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। मनुष्य केवल अतीत के कर्मफल से बद्ध है। वर्तमान में उसे अपने कर्मों के चुनाव में स्वातंत्र्य है। इसके द्वारा वह अपने भविष्य का निर्माण करने वाला है। भक्तों में तो यह भी विश्वास है कि भगवत्कृपा से अतीत के कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
कर्मकाण्ड
(1) सम्पूर्ण वैदिक धर्म तीन काण्डों में विभक्त है-- (1) ज्ञान काण्ड, (2) उपासना काण्ड और (3) कर्म काण्ड। कर्मकाण्ड का मूलतः सम्बन्ध मानव के सभी प्रकार के कर्मों से है, जिनमें धार्मिक क्रियाएँ भी सम्मिलित हैं। स्थूल रूप से धार्मिक क्रियाओं को ही 'कर्मकाण्ड' कहते हैं, जिससे पौरोहित्य का घना सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड के भी दो प्रकार हैं-- (1) इष्ट और (2) पूर्त। यज्ञ-यागादि, अदृष्ट और अपूर्व के ऊपर आधारित कर्मों को इष्ट कहते हैं। लोक-हितकारी दृष्ट फल वाले कर्मों को पूर्त कहते हैं। इस प्रकार कर्मकाण्ड के अन्तर्गत लोक-परलोक-हितकारी सभी कर्मों का समावेश है।
कर्मकाण्ड
(2) वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत हैं कि चारों वेदों में प्रधानतः तीन विषयों; कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं उपासनाकाण्ड का प्रतिपादन है। कर्मकाण्ड अर्थात् यज्ञकर्म वह है जिससे यजमान को इस लोक में अभीष्ट फल की प्राप्ति हो और मरने पर यथेष्ट सुख मिले। यजुर्वेद के प्रथम से उन्तालीसवें अध्याय तक यज्ञों का ही वर्णन है। अन्तिम अध्याय (40 वाँ) इस वेद का उपसंहार है, जो 'ईशावास्योपनिषद्' कहलाता है। वेद का अधिकांश कर्मकाण्ड और उपासना से परिपूर्ण है, शेष अल्प भाग ही ज्ञानकाण्ड है। कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के लिए है। उपासना और कर्म मध्यम के लिए। कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों उत्तम के लिए हैं। पूर्वमीमांसाशास्त्र कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है। इसका नाम 'पूर्वमीमांसा' इस लिए पड़ा कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है। पूर्व आचरणीय कर्मकाण्ड से सम्बन्धित होने के कारण इसे पूर्वमीमांसा कहते हैं। ज्ञानकाण्ड-विषयक मीमांसा का दूसरा पक्ष 'उत्तरमीमांसा' अथवा वेदान्त कहलाता है।
कर्मधारा
हिमालय का एक तीर्थस्थल। वराह भगवान् पाताल से पृथ्वी का उद्धार और हिरण्याक्ष का वध करने के पश्चात् यहाँ शिलारूप में स्थित हो गये थे। अलकनन्दा की धारा में यह उच्च शिला है। यहाँ गङ्गाजी के तट पर कर्मधारा तथा कई तीर्थ हैं।
कर्मनिर्णय
मध्वाचार्य द्वारा रचित एक दार्शनिक ग्रन्थ।
कर्मप्रदीप
सामवेद के गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्यायन ने परिशिष्ट लिखा है, जिसे 'कर्मप्रदीप' कहते हैं। यद्यपि यह गोभिलगृह्यसूत्र के पूरक रूप में लिखा गया है, तो भी इसका आदर स्वतन्त्र गृह्यसूत्र और स्मृतिशास्त्र की तरह होता आया है। आशादित्य शिवराम ने इस ग्रन्थ की टीका की है।
कर्ममार्ग
धार्मिक साहित्य में मोक्ष के तीन मार्ग ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग तथा भक्तिमार्ग बतलाये गये हैं। उपनिषदों, सांख्यदर्शन, बौद्ध एवं जैन दर्शनों के विकसित रूप में जिन मार्ग का अवलम्बन बताया गया है, उसे ज्ञानमार्ग कहते हैं। दूसरा मार्ग कर्ममार्ग है। हिन्दुत्व में सबसे प्राचीन पवित्र धारणा कर्त्तव्यों के पालन की है जिसका धर्म शब्द में अन्तर्भाव हुआ है। कर्त्तव्यों में सबसे प्रमुख प्रारम्भ में 'यज्ञ' थे, किन्तु वर्ण, आश्रम, परिवार एवं समाज-सन्बन्धित कर्तव्य भी इसमें निहित थे। गीता का कर्मसिद्धान्त जिसे 'कर्मयोग' कहते हैं, यह बतलाता है कि वेदों में बताये गये कर्म केवल उतना ही फल इस लोक में या स्वर्ग में देते हैं जितना उन कर्मों (यज्ञों) के लिए निश्चित है, किन्तु जो मनुष्य इन्हें बिना इच्छा के (निष्काम) करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। योग शब्द का प्रयोग गीता में अनेक अर्थों में हुआ है। इसका कौन सा अर्थ 'कर्मयोग' , इसका निश्चय करना कठिन है। किन्तु सम्भवतः यहाँ इसका अर्थ निग्रह है, अर्थात् आसक्तिरहित कर्म।
कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी)
विश्व कर्मप्रधान है। कर्म का संस्कार ही मानव की मूल शक्ति है। इसी के अनुसार मनुष्य के भाग्य का निर्णय होता है। कर्मभेद से ही मनुष्य अनेक योनियों-- देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि-- में भ्रमण करता है। इसी के अनुसार वह लोक-लोकान्तर में जाता है। सत्त्वगुणात्मक कर्म पुण्य तथा तमोगुणात्मक कर्म पाप माना गया है। सत्त्वगुण के मार्ग पर चलनेवाला मनुष्य अपना अन्तःकरण शुद्ध करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त करता है। तमोगुणी और पापकर्म करनेवाला मानव अज्ञान और कर्मबन्धन में पड़ा रहता है। इसलिए कर्म के क्षेत्र में मनुष्य को पूर्णतः सावधान रहना चाहिए। कर्ममहिमा विस्तार से, शास्त्र के आधार पर नीचे दी जाती है :
कर्म की महिमा इस बात से ही जानी जा सकती है कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा चराचर विश्व को व्याप्त किये हुए है। प्रलय के उपरान्त चतुर्दश लोकों में नवीन जीवनसृष्टि समष्टि जीवों के पूर्वकर्म के अनुसार होती है। समस्त देवताओं द्वारा संसार की नियमानुसार रक्षा कर्मचक्र का ही परिणाम है। इसी के आधार पर देवता-गण अपनी-अपनी नियमित गतियों को प्राप्त करते हैं। निष्कर्ष यह है कि निखिल ब्रह्माण्ड में देव, ग्रह-नक्षत्र तथा चराचर सभी कर्म के कारण स्थित और गतिमान् हैं। सात्विक कर्म के तारतम्य से जीव को ऊर्ध्व सप्तलोकों तथा तामसिक कर्म के तारतम्य से अधः सप्तलोकों की प्राप्ति होती है। ऊर्ध्वलोक में आनन्द तथा अधोलोक में दुःख भोग का विधान है। धर्म से पुण्य और अधर्म से पाप होता है। सोमरस पान करने वाला यज्ञकर्मी पुण्यात्मा है। वह इन्द्रलोक में जाकर देवभोग्य दिव्य वस्तुओं को प्राप्त करने का अधिकारी होता है।
इसी प्रकार अधर्म के क्रमानुसार अधोलोक में निम्न और निम्नतर योनियों की प्राप्ति हुआ करती है। छान्दोग्योपनिषद के अनुसार पुण्य कर्म के अनुष्ठान से ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य आदि उत्तम योनियों की प्राप्ति होती है तथा निम्न या पाप कर्म के अनुष्ठान से कुक्कुर, सूकर और चाण्डाल आदि योनियों की प्राप्ति होती है। स्वर्ण चुरानेवाले, मदिरा सेवन करनेवाले, गुरुपत्नीगामी तथा ब्रह्मघाती एवं इनके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सभी अधोगामी होते हैं। योगदर्शन के अनुसार कर्म ही सम्पूर्ण अविद्या और अस्मिता रूपी क्लेशों का मूल कारण है। कर्मसंस्कार ही जन्म और मरण-रूप चक्र में जीव के परिभ्रमण का कारण है। उसके पाप-पुण्य का फल भी इसी चक्र में भोगने को मिल जाता है।
महाभारत के अनुसार कर्मसंस्कार प्रत्येक अवस्था में जीव के साथ रहता है। जीव पूर्व जन्म में जैसा कर्म करता है पर जन्म में वैसा ही फल भोगता है। अपने प्रारब्ध कर्म का भोग उसे मातृगर्भ से ही मिलना आरम्भ हो जाता है। जीवन की तीन अवस्थाओं --बाल, युवा और वृद्ध में से जिस अवस्था में जैसा कर्म किया जाता है उसी अवस्था में उसका फल भी भोगने को मिलता है। जिस शरीर को धारण कर जीव कर्म करता है उसका फल भी उसी काया से प्राप्त होता है। इस तरह प्रारब्ध कर्म सदा कर्त्ता का अनुगामी होती है।
योगदर्शन के अनुसार कर्म के मूल में जाति, आयु और भोग तीनों निहित रहते हैं। कर्म के अनुसार उच्चवर्ग या निम्नवर्ग में जीव का जन्म होता है। प्रारब्ध कर्म आयु का भी निर्धारक है। अर्थात् जिस शरीर में जिस प्राक्तन कर्म के भोग का जितने दिन तक विधान होगा वह शरीर उतने ही दिन तक स्थित रह सकता है। तदुपरान्त दूसरे नवीन कर्म की भोगस्थिति दूसरे शरीर में होती है। कर्म के भोग पक्ष का भी वही विधान है। संसार में सुख और दुःख भी कर्म के अनुसार ही होते हैं। शरीर के अंगों का निर्माण भी पूर्व कर्म के अनुसार होता है। शरीर की रचना और गुण का तारतम्य भी प्राक्तन कर्म का परिणाम है। उसमें दोष और गुण का संचार धर्माधर्म रूपी कर्म का संस्कार है।
वेदों में कर्म की महिमा का सबसे अधिक वर्णन है। वेद के इस प्रकरण को कर्मकाण्ड कहते हैं। वहाँ तीन प्रकार के कर्मों का विधान है-- नित्य, नैमित्तिक और काम्य। नित्य कर्म करने से कोई विशेष फल तो नहीं मिलता पर न करने से पाप अवश्य होता है। जैसे त्रिकालसन्ध्या और पाँच महायज्ञादि हैं। पूर्व कर्म के अनुसार वर्त्तमान समय में मनुष्य प्रकृति की जिस कक्षा पर चल रहा है उसी पर पुनः बने रहने के लिए नित्य कर्म अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से मनुष्य अपनी वर्तमान कक्षा से च्युत हो जाता है। जैसे पञ्च महायज्ञ आत्मोन्नति के एक साधन हैं, इनकी उपयोगिता पञ्च-सूना दोष दूर करने के लिए ही है। संसार में जीने के लिए मनुष्य प्रकृतिप्रवाह को आघात पहुँचाता है। उसे अपने जीवन-यापन के लिए नित्य सहस्रों प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है। मनुष्य के श्वास-प्रश्वास तक से असंख्य प्राणियों की हत्या होती है। इस पाप को दूर करने के लिए भारतीय शास्त्रों में पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था की गयी है।
मनु के अनुसार सामान्य गृहस्थ से भी कम से कम पाँच स्थलों पर जीवहत्या होती है-- चूल्हा, पेषणी (चक्की), उपस्कर (सफाई), कण्डनी (ऊखल) और उदकुम्भ (जलघड़ा)। इन पाँच चीजों का उपयोग जीवहिंसा का कारण होता है। इन नित्यहिंसाजनित पापों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को पञ्चमहायज्ञ रूपी नित्यकर्म करना आवश्यक है।
यही कारण है कि नित्यकर्म करने से पुण्य नहीं होता, पर न करने से पाप अवश्य होता है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित कर्म भी इस व्यवस्था के अन्तर्गत हैं। सभी जातियों की कर्मवृत्तियाँ उनके नित्यकर्म के अन्तर्गत आती हैं। जब तक मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार कार्य न करेगा तब तक अपनी वर्तमान जाति में नहीं रह सकेगा। वह उच्चवर्ग को तो नहीं ही प्राप्त कर सकेगा; अपितु वर्तमान वर्ग से भी च्युत होकर अधोगामी हो जाएगा। ब्राह्मण का स्वाध्याय तथा वैश्यों के गोरक्षा आदि उनके नित्यकर्म हैं। इनके न करने से उन्हें पाप होता है और करने से वे अपनी भूमि पर स्थित रहते हुए उच्च पद को प्राप्त करते हैं। यही बात राजा के प्रजापालन के सम्बन्ध में भी है। संसार की अराजकता को दूर कर प्रजा के भय को दूर करना ही राजा का काम है ऐसा मनुसंहिता से स्पष्ट है। शुक्रनीतिसार के अनुसार धार्मिक और प्रजारञ्जक राजा देवांश होता है, अन्यथा उसे राक्षसांश समझना चाहिए; ऐसा राजा अधर्मी और प्रजापीड़क होता है; इससे अशान्ति का विस्तार होता है और सारी प्रजा भी पापी हो जाती है। राजा के पाप से प्रजा भी पापी होती है। इससे प्रजा में वर्णसंकरता आती है, जिससे ऋतुविपर्यय, अपग्रहों का अत्याचार तथा प्रजा का नाश आरम्भ होता है और अन्त में राज्य ही समूल नष्ट हो जाता है। अतएव प्रजापालन राजा का नित्य कर्म है।
जिन कर्मों के न करने से पाप नहीं होता अपितु करने से पुण्यफल की प्राप्ति होता है उनको 'नैमित्तिक कर्म' की संज्ञा दी गयी है। उदाहरणार्थ, तीर्थदर्शनादि। तीर्थों के दर्शन न करने से पाप नहीं होता पर दर्शन करने से पुण्य फल की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस प्रकार एक विषयी व्यक्ति साधु-महात्मा के पास पहुँच कर कुछ समय के लिए अपने विषय भाव को भूल जाता है, उसी प्रकार तीर्थों में जाकर व्यक्ति कुछ समय के लिए अपने सांसारिक मोह से मुक्ति पा जाता है। जिन दैवी शक्तियों के प्रभाव से तीर्थों की महिमा प्रतिष्ठित होती है उनकी सीमा में आने पर मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है। वह अपने विषम भाव को भूलकर सद्भावना से युक्त हो जाता है। यही तीर्थाटन का फल है। इसी प्रकार पूजा, दान, स्नान, देवस्थान दर्शन, साधु का दर्शन आदि भी नैमित्तिक कर्म हैं।
किसी विशेष कामना से किये गये कर्म 'काम्य कर्म' कहे जाते हैं। इनके मूल में स्वार्थ निहित रहता है। एक ही कार्य भावभेद से नैमित्तिक कर्म हो सकता है और काम्य कर्म भी। उदाहरणार्थ केवल तीर्थदर्शन के ध्येय से किया गया तीर्थाटन नैमित्तिक कर्म होगा। पर यदि वह किसी विशेष कामना की सिद्धि के लिए किया जाय तो उसे काम्य कर्म कहा जायगा। निष्कर्ष यह है कि नैमित्तिक कर्म के मूल में व्यक्ति की सामान्य धर्मभावना का योग रहता है, पर काम्य कर्म किसी विशेष कामना का प्रतिफलन है।
केवल भावभेद से ही कर्म की शक्ति में अन्तर आ जाता है। इसीलिए भावना के तारतम्य से कर्मों को तीन भागों में विभक्त किया गया हैं-- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। आत्मोन्नति के साथ मनुष्य की भावना उदारतापूर्ण और विचारमूलक हो जाती है, इसलिए उसके कर्मभाव में भी परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतः आधिभौतिक कर्म विश्वभूतों से सम्बद्ध है। जिसमें भूतों के द्वारा मनुष्य की सम्पूर्ण मनोकामना फलवती हो उसे अधिभूत कर्म कहते हैं। ब्राह्मण भोजन और साधु भोजन आदि इसी के अन्तर्गत आते हैं, इन कार्यों से व्यक्ति इन लोगों की मानसिक शक्ति द्वारा कुछ आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करता है। यही मनोकामना जब व्यक्तिगत सुखकामना और पर-सुखकामना से मिलकर सार्वभौमिक और लोकमंगलकारी हो जाती है तो उसे आधिभौतिक कर्म की संज्ञा दी जाती है। दरिद्रों को भोजन देना, अनाथालय स्थापित करना, चिकित्सालय की सहायता करना आदि इसी प्रकार के कार्य हैं। इनसे व्यक्ति को विशेष पुण्यलाभ होता है।
आधिदैविक कर्म दैविक शक्तियों को अनुकूल करके फल प्राप्त करने का साधन है। शास्त्रीय दृष्टि से प्रबल कर्म दुर्बल कर्म को दबा देते हैं। यदि कोई व्यक्ति दैवी शक्ति से प्राप्त प्रबल संस्कार से अपने प्रतिकूल संस्कारों को दबा दे तो यह उसका आधिदैविक कर्म कहा जायगा। ऐसा करके व्यक्ति अपने पुराने पापमय संस्कारों की पीड़ा से मुक्ति पा सकता है। आधिदैविक कर्म का अनुष्ठान स्वार्थसिद्धि के लिए भी होता है और विश्वमङ्गल की कामना से भी होता है। यदि देश में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष या महामारी आदि का विस्तार हो जाय तो उसे समग्र प्राणियों के पाप का परिणाम समझना चाहिए। इनको दूर करने के लिए परोपकारी व्यक्ति द्वारा किये गये देवयज्ञ आदि दैवी संस्कार आधिदैविक कर्म कहे जायेंगे।
आध्यात्मिक कर्म बौद्धिक होते हैं। इसीलिए स्वदेश तथा स्वधर्म रक्षार्थ किये गये कार्य या ज्ञानविस्तारक कर्मों को आध्यात्मिक कर्म की संज्ञा दी गयी है। अहंकार के विकासक्रम में प्रकृति के निम्नतर स्तर से लेकर उच्चतर स्तर तक जाने के विविध सोपान हैं। जीव अपनी साधना के बल से क्रमशः निम्न स्तरों से ऊर्ध्व स्तरों को प्राप्त करता है। वासना के भिन्न-भिन्न स्तर हैं। उद्भिज और स्वेदज योनियों में वासना के प्राकृतिक और आत्मरक्षात्मक रूप मिलते हैं। मनोमय कोष के विकास के अभाव में उन्हें परसुख से स्वसुख के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है। अण्डज योनि में इस ओर थोड़ा विकास हुआ है। अपने बच्चों पर प्रेम, दाम्पत्य प्रेम, अपत्य प्रेम आदि इस वासना के विस्तार के ही रूप हैं। मनुष्ययोनि में इसका सर्वाधिक विस्तार है। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर ध्यान रखता है। मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ की ओर क्रमशः बढ़ता रहता है। व्यष्टिकेन्द्र से समष्टि की ओर बढ़ना उसका स्वभाव है। इसीलिए बाल्यावस्था के व्यष्टिसुख से वह क्रमशः परिवारसुख और फिर समाजसुख और देशसुख की ओर उन्मुख होता है। इस प्रकार मनुष्य का अहंकार क्रमशः उदारता में परिणत हो जाता है। यहाँ तक कि वह संसार के सुख के लिए भी कष्ट सहने को तैयार हो जाता है। उस समय उसकी व्यक्तिगत सत्ता का इतना अधिक विस्तार हो जाता है कि उसकी स्वार्थबुद्धि नष्ट हो जाती है और परार्थबुद्धि का विकास होता है। ऐसा पवित्रात्मा आध्यात्मिक प्रगति अधिक करता है। वह ज्ञान और धर्म की उन्नति में अत्यधिक योग देता है। ऐसा महात्मा अपनी सत्ता का विस्तार करके 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त को भाव रूप में अपना लेता है। वह विश्वजीवन और विश्वप्राण हो जाता है। उसके सभी कर्म जगत्कल्याण के होतु होते हैं, अतः वह पूर्ण साधुता को प्राप्त हो जाता है। आध्यात्मिक कर्म ही उसकी योगसाधना है।
भागवत के अनुसार सम्पूर्ण चराचर प्राणियों में ब्रह्म की सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विद्यमान है। अतः उनकी अवज्ञा करके परमेश्वर की पूजा करना गर्हणीय है। सब अनेक होकर भी एक हैं। अतः प्राणियों के प्रति बैरभाव को त्यागकर मित्रभाव से सर्वव्यापी परमात्मा का पूजन करना चाहिए। सर्वभूतों में परमात्मा की सत्ता की अनुभूति ही श्रेयस्कर है। हमारे प्राचीन ऋषियों का जीवन ऐसा ही था। समष्टि जीव के अज्ञानान्धकार को दूर करना और समस्त संसार का कल्याण करना उनका कर्तव्य था।
उपर्युक्त त्रिविध भेदों के साथ कर्म के दो भेद अन्य प्रकार से भी किये गये हैं। वे हैं-- सकाम कर्म और निष्काम कर्म। सकाम कर्म वासनामूलक होता है। जिस कामना या वासना से कर्म किया जाता है उसी के अनुकूल फल की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में इन कर्मों की विधि और फल वर्णित हैं। सकाम कर्म से मनुष्य को धूमयान गति और निष्काम कर्म से देवयान गति मिलती है। श्रीमद्भागवद्गीता में इन दो गतियों का वर्णन है। इन गतियों को क्रमशः कृष्णगति और शुक्लगति कहते हैं। पहली से पुनर्जन्म और दूसरी से अपुनरावृत्ति मिलती है। भोगकामना से किये गये कर्मीं का परिणाम जन्म-मरण होता है। इस प्रकार सकाम कर्म के द्वारा पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति नहीं मिलती।
सकाम कर्मी व्यक्ति अष्टादश फल प्रदायक कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को जरा-मरण के बन्धन से मुक्ति कभी नहीं मिल सकती। इनमें आसक्ति का प्राधान्य होता है इसलिए पुण्य के बल पर ये स्वर्ग में सुख भोगकर पुण्य क्षय होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। ऐसे सकाम कर्मी हीन लोक को भी प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए सकाम कर्म की अनित्यता तथा तुच्छता को जानते हुए मनुष्य को निष्काम कर्म औऱ वैराग्य का ही अनुष्ठान करना चाहिए।
सकाम कर्म से प्राप्त स्वर्ग में मनुष्य के पुण्य का क्षय होता है। इसलिए मर्त्यलोक के मिथ्यात्व को जानकर तत्त्वज्ञानी व्यक्ति वैराग्य का आश्रय ग्रहण करता है। इस प्रकार श्रुति के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति पुत्र, धन और यश की सभी भौतिक इच्छाओं से विरत हो पूर्ण संन्यास ग्रहण करता है। निष्काम कर्मयोग से वह पूर्णतः वासनाशून्य हो जाता है और अन्ततः उत्तरायण गति को प्राप्त होता है।
इसके अतिरिक्त एक तीसरी सहज गति है जिसके अनुसार मनुष्य को इहलोक में ही मुक्ति मिल जाती है। ज्ञानी पुरुष परमात्मा की सत्ता से विज्ञ होकर उसी विराट् सत्ता में अपनी सत्ता को विलीन कर देते हैं और परितृप्त, वीतराग तथा प्रशान्त हो विदेह लाभ करते हैं। अतएव निष्काम कर्मयोगी ज्ञानी होकर मुक्तिपद को प्राप्त करता है।
तीन गुणों के भेद से कर्म के भी तीन भेद निर्धारित किये गये हैं। इसीलिए गीता में भी कृष्ण ने गुणों के क्रमानुसार त्रिविध यज्ञ, त्रिविध कर्म और त्रिविध कर्त्ता की व्यवस्था की है।
आसक्तिविहीन, रागद्वेषरहित, वर्णाश्रम के अनुसार किया गया कर्म सात्त्विक; फलासक्ति, अहंकार तथा आशा से अनुष्ठित कर्म राजसिक तथा भावी आपत्ति का ध्यान न करके मोहवश किया गया कर्म तामसिक होता है।
निष्काम कर्मयोगी आसक्तिविहान, धैर्यवान् और उत्साही होता है इसलिए वह सात्त्विक कर्त्ता है। विषयासक्त और फलासक्त, लोभी तथा हर्ष-विषाद से युक्त सकाम कर्त्ता राजसिक होता है। दूसरों के मानापमान की चिन्ता न करनेवाला, अविवेकी तथा अविनयी, शठ, आलसी और दीर्घसूत्री कर्त्ता तामसिक होता है।
मनु के अनुसार शारीरिक, मानसिक और वाचनिक सत-असत् कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को फल की प्राप्ति होती है। इनमें उत्तम, मध्यम और अधम गतियाँ कर्म के अवान्तर उपक्रम हैं। इन तीनों प्रकार के कर्मों के निम्नांकित दस लक्षण बताये गये हैं-- परधन हरण की इच्छा, मन में अनिष्ट चिन्तन तथा परलोक का मिथ्यात्व सिद्ध कर शरीर को ही आत्मा मानना; ये तीन मानसिक अशुभ कर्म हैं। वाणी में कटुता, अनृत भाषण, किसी व्यक्ति की परोक्षनिन्दा, असम्बद्ध प्रलाप; ये चार वाचिक अशुभ कर्म हैं। इसके अतिरिक्त न दिये गये धन को हड़प लेना, अवैध हिंसा तथा परस्त्रीगमन; ये तीन शारीरिक अशुभ कर्म हैं।
मन से किये गये सुकर्म या दुष्कर्म का फल मानसिक सुख-दुःख होता है, वाणी के कर्म का फल वाणी से मिलता है तथा शारीरिक कर्मों का परिणाम शारीरिक सुख-दुःख होता है। मनुष्य को शारीरिक अशुभ कर्म से स्थावर योनि, वाणीगत अशुभ कर्म से पशु-पक्षी की योनि तथा मानसिक अशुभ कर्मों से चाण्डाल योनि की प्राप्ति होती है।
मनुष्य धर्म अधिक और अधर्म कम करने पर स्वर्गलोक में सुख पाता है। इसके विपरीत अधर्म का आधिक्य होने पर निधनोपरान्त यमलोक में यातना पाता है। पाप का फल भोगने पर निष्पाप हो वह पुनः मनुष्य शरीर धारण करता है।
सत्त्व, रज और तम आत्मा के तात्त्विक गुण हैं। संसार के प्रत्येक प्राणी में ये गुण न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं। जिस प्राणी में जिस गुण का आधिक्य होता है उसमें उसी के लक्षण अधिक मिलते हैं। सत्त्वगुण ज्ञानमय है, तमोगुण अज्ञानमय तथा रजोगुण रागद्वेषमय होता है। सत्त्वगुण में प्रति-प्रकाशरूप शान्ति होती है, रजोगुण में आत्मा की अप्रीतिकर दुःखकातरता तथा विषयभोग की लालसा के लक्षण विद्यमान होते हैं। तमोगुण मोहयुक्त, विषयात्मक, अविचार और अज्ञानकोटि में आता है। इसके अतिरिक्त इन गुणों के उत्तम, मध्यम और अधम फल के कुछ अन्य लक्षण भी हैं। यथा सत्त्वगुणी प्रवृत्ति के मनुष्य में वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, शौच, जितेन्द्रियता, धर्मानुष्ठान, परमात्मा-चिन्तन के लक्षण मिलते हैं; रजोगुणी प्रवृत्ति के व्यक्ति में सकाम कर्म में रुचि, अधैर्य, लोकविरुद्ध तथा अशास्त्रीय कर्मों का आचरण तथा अत्यधिक विषयभोग के लक्षण मिलते हैं। तमोगुणी व्यक्ति लोभी, आलसी, अधीर, क्रूर, नास्तिक, आचारभ्रष्ट, याचक तथा प्रमादी होता है।
अतीत, वर्तमान और आगमी के क्रमानुसार भी सत्त्वगुण, रजोगुण औऱ तमोगुण के शास्त्रों में लक्षण बताये गये हैं। जो कार्य पहले किया गया हो, अब भी किया जा रहा हो पर जिसे आगे करने में लज्जा का अनुभव हो उसे तमोगुणी कर्म कहते हैं। लोकप्रसिद्धि के लिए जो कर्म किये जाते हैं उनके सिद्ध न होने पर मनुष्य को दुःख होता है, इन्हें रजोगुणी कर्म कहते हैं। जिस कार्य को करने की मनुष्य में सदा इच्छा बनी रहे और वह सन्तोषदायक हो तथा जिसे करने में मनुष्य को किसी प्रकार की लज्जा की अनुभूति न हो उसे सत्त्वगुणी कर्म कहा जाता है। प्रवृत्ति के विचार से तमोगुण काममूलक, रजोगुण अर्थमूलक तथा सत्त्वगुण धर्ममूलक होता हैं। सत्त्व गुणसम्पन्न व्यक्ति देवत्व को, रजोगुणी मनुष्यत्व को तथा तमोगुणी तिर्यक् योनियों को प्राप्त होते हैं।
उपर्युक्त तीन गतियाँ भी कर्म औऱ ज्ञान के भेद से तीन-तीन प्रकार की हैं; जैसे अधम सात्त्विक, मध्यम सात्त्विक, उत्तम सात्त्विक; अधम राजसिक, मध्यम राजसिक, उत्तम राजसिक, अधम तामसिक, मध्यम तामसिक, उत्तम तामसिक आदि।
मनु के अनुसार इन्द्रियगत कार्यों में अतिशय आसक्ति तथा धर्मभावना के अभाव में मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है। जिस विषय की ओर इन्द्रियों का अधिक झुकाव होता है उसी में उत्तरोत्तर आशक्ति बढ़ती जाती है। इससे मनुष्य़ का वर्तमान लोक तो बिगड़ता ही है परलोक में भी अति दुःख और नरकपीड़ा का अनुभव करना पड़ता है, निम्न कोटि की योनियों में पुनः जन्म होता है और अपार यातना सहनी पड़ती है। जिन भावनाओं से जो-जो कर्म किये जाते हैं उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करके कष्ट भोगना पड़ता है। संक्षेप में प्रवृत्तिमार्गी कर्मों के यही परिणाम हैं।
निवृत्तिमार्गी कर्मों के विचार से वेदाध्ययन, तप, ज्ञान, अहिंसा और गुरुसेवा आदि कर्म मोक्ष के साधक हैं। इनमें आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। यही मुक्ति का सर्वप्रथम साधन है। ऊपर बताये गये सभी कर्म वेदाध्ययन या वेदाभ्यास के अन्तर्गत समाविष्ट हैं। वैदिक कर्म मूलतः दो तरह के हैं-- प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक। परलोकसुखकामना से कृत कर्म प्रवृत्तिमूलक तथा ज्ञानार्जन के प्रयोजन से कृत निष्काम कर्म निवृत्तिमूलक हैं। प्रवृत्तिमूलक कर्म का सम्यक् अनुष्ठान मनुष्य को देवयोनि में प्रवेश दिलाता है और निवृत्तिमूलक कर्म से निर्वाण (मोक्ष) मिलता है। आत्मज्ञानी सर्वभूतों में आत्मा को तथा आत्मा में सर्वभूतों को देखता है, इससे उसे ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है। यह कर्मयज्ञ की पूर्णता है।