मुख्य आश्रय, एक मात्र गन्तव्य मार्ग, एकनिश्चय। छान्दोग्य उपनिषद् में उद्धृत अध्ययन का एक विषय; संभवतः नीतिशास्त्र। सेंट पीटर्सवर्ग डिक्शनरी में इसका अर्थ 'ऐक्य का सिद्धान्त' अर्थात् 'एकेश्वरवाद' बतलाया गया है। मैक्समूलर इसका अर्थ 'आचरण शास्त्र' तथा मोनियर विलियम अपने शब्दकोश में 'सांसारिक ज्ञान' बतलाते हैं।
एकाष्टका
अथर्ववेद (15.16.2; शतपथ ब्राह्मण 6, 2, 23; 4, 2,10) के अनुसार पूर्णमासी के पश्चात् अष्टम दिन एकाष्टका कहलाता है। एकाष्टका या अष्टका का अर्थ सभी अष्टमी नहीं, अपितु कोई विशेष अष्टमी प्रतीत होता है। अथर्व० (3.10) में सायण ने एकाष्टका को माघ मास का कृष्णपक्षीय अष्टम दिन बतलाया है। तैत्तिरीय संहिता में यह दिन उन लोगों की दीक्षा के लिए निश्चित किया गया है, जो एक वर्ष की अवधि का कोई यज्ञ करने जा रहे हों।
एकेश्वरवाद
बहुत-से देवताओं की अपेक्षा एक ही ईश्वर को मानना। इस धार्मिक अथवा दार्शनिक वाद के अनुसार कोई एक सत्ता है जो विश्व का सर्जन और नियन्त्रण करती है; जो नित्य ज्ञान और आनन्द का आश्रय है; जो पूर्ण और सभी गुणों का आगार है और जो सबका ध्यानकेन्द्र और आराध्य है। यद्यपि विश्व के मूल में रहने वाली सत्ता के विषय में कई भारतीय वाद हैं, जिनमें एकत्ववाद और अद्वैतवाद बहुत प्रसिद्ध हैं, तथापि एकेश्वरवाद का उदय भारत में, ऋग्वेदिक काल से ही पाया जाता है। अधिकांश यूरोपवासी प्राच्यविद्, जो भारतीय दैवततत्त्व को समझने में असमर्थ हैं और जिनको एक-अनेक में बराबर विरोध ही दिखाई पड़ता है, ऋग्वेद के सिद्धान्त को बहुदेववादी मानते हैं। भारतीय विचारधारा के अनुसार विविध देवता एक ही देव के विविध रूप हैं। अतः चाहे जिस देव की उपासना की जाय वह अन्त में जाकर एक ही देव को अर्पित होती है। ऋग्वेद में वरुण, इन्द्र, विष्णु, विराट् पुरुष, प्रजापति आदि का यही रहस्य बतलाया गया है।
उपनिषदों में अद्वैतवाद के रूप में एकेश्वरवाद का वर्णन पाया जाता है। उपनिषदों का सगुण ब्रह्म ही ईश्वर है, यद्यपि उसकी सत्ता व्यावहारिक मानी गयी है, पारमार्थिक नहीं। महाभारत में (विशेष कर भगवद्गीता में) ईश्वरवाद का सुन्दर विवेचन पाया जाता है। षड्दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त एकेश्वरसिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। पुराणों में तो ईश्वर के अस्तित्व का ही नहीं, किन्तु उसकी भक्ति, साधना और पूजा का अपरिमित विकास हुआ। विशेषकर विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवतपुराण ईश्वरवाद के प्रबल पुरस्कर्ता हैं। वैष्णव, शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों में भी एकेश्वरवाद की प्रधानता रही है। इस प्रकार ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक भारत में एकेश्वरवाद प्रतिष्ठित है।
व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद की प्रधानता होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता है-- अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में पूर्ण विलय। जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई रूप हैं। एक है सर्वेश्वरवाद। इसका अर्थ यह है कि जगत् में जो कुछ भी है वह ईश्वर ही है और ईश्वर सम्पूर्ण जगत् में ओत-प्रोत है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में सर्वेश्वरवाद का रूपक के माध्यम से विशद वर्णन है। उपनिषदों में 'सर्व खल्विंद ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन।' में भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन है। परन्तु भारतीय सर्वेश्वरवाद पाश्चात्य 'पैनथिइज्म' नहीं है। पैनथिइज्म में ईश्वर अपने को जगत् में समाप्त कर देता है। भारतीय सर्वेश्वर जगत् को अपने एक अंश से व्याप्त कर अनन्त विस्तार में उसका अतिरेक कर जाता है। वह अन्तर्यामी और अतिरेकी दोनों है। एकेश्वरवाद का दूसरा रूप है 'ईश्वर कारणतावाद'। इसके अनुसार ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है। जगत् का उपादन कारण प्रकृति है। ईश्वर जगत् की सृष्टि करके उससे अलग हो जाता है और जगत् अपनी कर्मश्रृंङ्खला से चलता रहता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन इसी मत को मानते हैं। एकेश्वरवाद का तीसरा रूप है ‘शुद्ध ईश्वरवाद’। इसके अनुसार ईश्वर सर्वेश्वर और ब्रह्म के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात् कर लेता है। वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी और जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, जगत् का सर्वस्व और आराध्य है। इसी को श्रीमदभगवदगीता में पुरुषोत्तम कहा गया है। सगुणोपासक वैष्णव तथा शैव भक्त इसी ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। एकेश्वरवाद का चौथा रूप है ‘योगेश्वरवाद’। इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय (कर्मफल के संस्कार) से मुक्त रहता है; उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है। दे० पातञ्जल योगसूत्र, 1.24। योगसूत्र की भोजवृत्ति (2.45) के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो विघ्न बाधा उपस्थित होती है उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधि सिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है। परन्तु इस वाद में ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं और न प्रकृति और पुरुषों में सर्वत्र व्याप्त; वह केवल उपदेष्टा और गुरु है।
एकेश्वरवाद् में ईश्वरकारणतावाद (ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है) के समर्थन में नैयायिकों ने बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उदयनाचार्य ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें तीन मुख्य हैं—प्रथम है, ‘जगत् की कार्यता।’ इसका अर्थ यह है कि जगत् कार्य है अतः इसका कोई न कोई कारण होना चाहिए और उसे कार्य-कारण-श्रृंङ्खला से परे होना चाहिए। वह है ईश्वर। दूसरा प्रमाण है ‘जगत् का आयोजनत्व’, अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण कार्यों में एक क्रम अथवा योजना दिखाई पड़ती है। यह योजना जड़ से नहीं उत्पन्न हो सकती। इसकी संयोजक कोई चेतन सत्ता ही होनी चाहिए। वह सत्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती। तीसरा प्रमाण है ‘कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध’, अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध। इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए। एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के विना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है। योगसूत्र में ईश्वर की सिद्धि के लिए एक और प्रमाण मिलता है। वह है सृष्टि में ज्ञान का तारतम्य (अनेक प्रमाणियों में ज्ञान न्यूनाधिक मात्रा)। इस ज्ञान की कहीं न कहीं पराकाष्ठा होनी चाहिए। वह ईश्वर में ही संभव है। सबसे बड़ा प्रमाण है सन्त और महात्माओं, ऋषि-मुनियों का साक्षात् अनुभव, जिन्होंने स्वतः ईश्वरानुभूति की है।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध
एक मृत व्यक्ति की शान्ति और तृप्ति के लिए किया गया श्राद्ध। यह परिवार के पितरों के वार्षिक श्राद्ध से भिन्न है। किसी व्यक्ति के दुर्दशाग्रस्त होकर मरने, डूबकर मरने, बूरे दिन पर मरने, मूलतः हिन्दू पर बाद में मुसलमान या ईसाई हो जाने वाले एवं जाति बहिष्कृत की मृत्यु पर 'नारायणबलि' नामक कर्म करते हैं। यह भी एकोद्दिष्ट का ही रूप है।
इसके अन्तर्गत शालग्राममूर्ति की विशेष पूजा के साथ बीच-बीच में प्रेत का भी संस्कार किया जाता है। यह श्राद्धकर्म समस्त भारत में सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों में सामान्य अन्तर के साथ प्रचलित है।
एकोराम
वीरशैव मत के संस्थापकों में से एक आचार्य। वीरशैव मत को लिंगायत वा जंगम भी कहते हैं। इसके संस्थापक पाँच संन्यासी माने जाते हैं, जो शिव के पाँच सिरों से उत्पन्न दिव्य रूपधारी माने गये हैं। कहा जाता है कि पाँच संन्यासी अतिप्राचीन युग में प्रकट हुए थे, बाद में वसव ने उनके मत को पुनर्जीवन दिया। किन्तु प्राचीन साहित्य के पर्यालोचन से पता चलता है कि ये लोग वसव के समकालीन अथवा कुछ आगे तथा कुछ पीछे के समय के हैं। ये पाँचों महात्मा वीरशैव मत से सम्बन्ध रखने वाले पाँच मठों के महन्त थे। एकोराम भी उन्हीं में से एक थे और ये केदारनाथ (हिमालय) मठ के अध्यक्ष थे।
एकोरामाराध्य शिवाचार्य
कलियुग में उत्पन्न वीरशैव मत के एक आचार्य। दे० 'एकोराम'।
ऐ
स्वर वर्ण का द्वादश अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्न प्रकार है :
ऐकारं परमं दिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम्। कोटिचन्द्र प्रतीकाशं पञ्च प्राणमयं सदा।। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं प्रिये। सदाशिवमयं वर्णं बिन्दुत्रय समन्वितम्।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं :, ऐर्लज्जा भौतिकः कान्ता वायवी मोहिनी विभुः। दक्षा दामोदरः प्रज्ञोऽधरो विकृतमुख्यपि।। क्षमात्मको जगद्योनिः परः परनिबोधकृत्। ज्ञानामृता कपिर्दश्रीः पीठेशोऽग्निः समातृकः।। त्रिपुरा लोहिता राज्ञी वाग्भवो भौतिकासनः। महेश्वरो द्वादशी च विमलश्च सरस्वती।। कामकोटो वामजानुरंशुमान् विजयो जटा।।
ऐक्य
वीरशैव भक्ति या साधना के मार्ग की छः अवस्थाएँ शिव के ऐक्य की ओर ले जाती हैं। वे हैं भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं ऐक्य। ऐक्य भक्ति की चरम परिणति है, जिसमें शिव और भक्त का भेद मिट जाता है।
ऐङ
देवी का एक बीजमन्त्र। रहस्यमय शाक्त मन्त्रों में अधिकांश गूढ़ार्थक ध्वनिसमूह हैं, यथा ह्रीङ्, ह्रूङ्, हुम्, फट्। 'ऐङ्' भी शाक्त मन्त्र की एक ध्वनि है। इस ध्वनि के जप से अद्भुत शक्ति का उदय माना जाता है।
ऐतरेय आरण्यक
आरण्यक शब्द की व्याख्या पूर्ववर्ती पृष्ठों में हो चुकी है। ऐतरेय आरण्यक ऋग्वेद के ऐसे ही दो ग्रन्थों में से एक है। इसके पाँच अध्याय हैं, दूसरे और तीसरे में वेदान्त का प्रतिपादन है अतः वे स्वतन्त्र उपनिषद् माने जाते हैं। इन दो अध्यायों का संकलन महीदास ऐतरेय ने किया था। प्रथम के संकलक का पता नहीं, चौथे-पाँचवें का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन ने किया। दे० 'आरण्यक'।