कृष्णभक्ति शाखा के कवियों में उमापतिधर का नाम भी उल्लेखनीय है। इन्होंने मैथिली एवं बंगला भाषा में कृष्ण-सम्बन्धी गीत लिखे हैं। ये तिरहुतनिवासी और विद्यापति के समकालीन थे।
उमापति शिवाचार्य
तमिल शैवों में 'चार संतान आचार्य', नाम प्रसिद्ध हैं। ये हैं मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति शिवाचार्य। उमापति ब्राह्मण थे एवं चिदम्बर मन्दिर के पूजारी थे। ये मरइ ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य बन गये, जो शूद्र थे। उमापति उनका उच्छिष्ट खाने के कारण जाति से बहिष्कृत हुए। किन्तु अपने सम्प्रदाय के ये बहुत बड़े आचार्य बन गये एवं बहुत से ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया। इनमें से आठ ग्रन्थ सिद्धान्तशास्त्रों में परिगणित हैं। वे हैं (1) शिव-प्रकाश, (2) तिरुअकुलपयन, (3) विनावेण्वा, (4) पोत्रपक्रोदइ, (5) कोडिकवि, (6) नेंचुविडुतूतु, (7) उण्मैनेऋविलक्कम और (8) संकल्पनिराकरण।
उमामहेश्वरव्रत
(1) इसे प्रारम्भ करने की तिथि के बारे में कई मत हैं। इसे भाद्रपद की पूर्णिमा से प्रारम्भ करना चाहिए, किन्तु चतुर्दशी को ही संकल्प कर लेना चाहिए। इसमें स्वर्ण अथवा रजत की शिव तथा पार्वती की प्रतिमाओं के पूजन का विधान है। यह कर्णाटक में अत्यन्त प्रसिद्ध है।
(2) पूर्णिमा, अमावास्या, चतुर्दशी अथवा अष्टमी को इसे प्रारम्भ करना चाहिए। उमा तथा शिव का पूजन होना चाहिए। हविष्यान्न के साथ नक्त का भी विधान है।
(3) अष्टमी अथवा चतुर्दशी तिथियों को प्रारम्भ करना चाहिये। व्रती को अष्टमी तथा चतुर्दशी को एक वर्षपर्यन्त उपवास रखना चाहिये।
(4) मार्गशीर्ष मास की प्रथम तिथि, वही देवता।
(5) मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को इस व्रत का आरम्भ होना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त। वही देवता। दे० भविष्योत्तरपुराण, 23.1-28; लिङ्गपुराण, पूर्वार्द्ध 84। व्रतार्क, हेमाद्रि, व्रतखंड।
उमायामलतन्त्र
शाक्त साहित्य के 'कुलचूडामणि' एवं 'वामकेश्वर' तन्त्रों में तन्त्रों की तालिका है, जिसमें तीन प्रकार के तन्त्र उल्लिखित हैं--आठ भैरव, आठ बहुरूप एवं आठ यामल। यामल के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी, उमा, स्कन्द, गणेश एवं ग्रह यामल तन्त्र हैं। यामल शब्द यमल से बना है, जिसका अर्थ है 'जोड़ा'। इसका सन्दर्भ एक देवता तथा उसकी शक्ति के युगल सहयोग से है।
उमावन
उमा के विहार का काम्यक वन। पुरविशेष। उसके पर्याय हैं-- (1) देवीकोट, (2) कोटिवर्ष, (3) बाणपुर, (4) शोणितपुर। उमावन (काम्यकवन) में ही शिव-पार्वती (उमा) का विवाहोत्तर विहार हुआ था। इस वन के सम्बन्ध में शिव का शाप था कि जो कोई पुरुष इसमें प्रवेश करेगा वह स्त्री हो जाएगा। मनु के पुत्र इल भूल से इस वन में चले गये। वे शाप के कारण तुरन्त स्त्री 'इला' बन गये।
उमासंहिता
शिवपुराण की रचना में कुल सात खण्ड हैं। इसका पाचवाँ खण्ड 'उमासंहिता' है।
उमासुत
उमा के पुत्र, कार्तिकेय या गणेश।
उमा हैमवती
जिस प्रकार शिव (गिरीश) पर्वतों के स्वामी कहे जाते हैं, वैसे ही उनकी पत्नी पार्वती (पर्वतों की पुत्री) कहलाती हैं। शिव ने हिमालय की पुत्री उमा से विवाह किया। केनोपनिषद् (3.25) में वे प्रथम बार उमा हैमवती कही गयी हैं, जिससे एक स्वर्गीय (दिव्य) महिला का बोध होता है, जो ब्रह्मज्ञानसम्पन्ना हैं। स्पष्टतः, ये प्रथमतः एक स्वतन्त्र देवी थीं अथवा कम से कम एक दैवी शक्ति थीं, जो हिमालय का चक्कर लगाया करती थीं और पश्चात् उन्हें रुद्र की पत्नी समझा जाने लगा। केनोपनिषद् में उमा हैमवती ने देवताओं की शक्ति का उपहास करते हुए सभी शक्तियों के स्रोत ब्रह्म का प्रतिपादन किया है।