भाद्र कृष्ण की षष्ठी (अमान्त गणना) अथवा आश्विन कृष्ण की षष्ठी (पूर्णिमान्त गणना), भौमवार, व्यतीपात योग, रोहिणी नक्षत्रयुक्त दिन में इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.578। यदि उपर्युक्त संयोगों के अतिरिक्त कहीं सूर्य भी हस्त नक्षत्र से युक्त हो तो इस व्रत का पुण्य और अधिक होता है। इसमें भासकर की पूजा तथा कपिला गौ के दान का विधान है। कपिलपरम्परा के अनुयायी संन्यासी गण इस दिन कपिल मुनि का जन्मोत्सव मनाते हैं। इस पर्व में रोहिणी का संयोग अनुमान पर ही आधारित है। इतने योगों का एक साथ पड़ जाना दुर्लभ बात है। साधारणतः ऐसा योग 60 वर्षों में कही एकाध बार पड़ता है।
कबीर तथा कबीरपंथ
धार्मिक सुधारकों में कबीर का नाम अग्रगण्य है। इनका चलाया हुआ सम्प्रदाय कबीरपंथ कहलाता है। इनका जन्म 1500 ई० के लगभग उस जुलाहा जाति में हुआ जो कुछ ही पीढ़ी पहले हिन्दू से मुसलमान हुई थी, किन्तु जिसके बीच बहुत से हिन्दू संस्कार जीवित थे। ये वाराणसी में लहरतारा के पास रहते थे। इनका प्रमुख धर्मस्थान 'कबीरचौरा' आज तक प्रसिद्ध है। यहाँ पर एक मठ और कबीरदास का मन्दिर है जिसमें उनका चित्र रखा हुआ है। देश के विभिन्न भागों से सहस्रों यात्री यहाँ दर्शन करने आते हैं। इनके मूल सिद्धान्त ब्रह्मनिरूपण, ईसमुक्तावली, कबीरपरिचय की साखी, शब्दावली, पद, साखियाँ, दोहे, सुखनिधान, गोरखनाथ की गोष्ठी, कबीरपञ्जी, वलक्क की रमैनी, रामानन्द की गोष्ठी, आनन्द रामसागर, अनाथमङ्गल, अक्षरभेद की रमैनी, अक्षरखण्ड की रमैनी, अरिफनामा कबीर का, अर्जनामा कबीर का, आरती कबीरकृत, भक्ति का अङग, छप्पय, चौकाघर की रमैनी, मुहम्मदी बानी, नाम माहात्म्य, पिया पहिचानवे को अङ्ग, ज्ञानगूदरी, ज्ञानसागर, ज्ञानस्वरोदय, कबीराष्टक, करमखण्ड की रमैनी, पुकार, शब्द अनलहक, साधकों के अग, सतसङ्ग को अङ्ग, स्वासगुञ्जार, तीसा जन्म, कबीर कृत जन्मबोध, ज्ञानसम्बोधन, मुखहोम, निर्भयज्ञान, सतनाम या सतकबीर बानी, ज्ञानस्तोत्र, हिण्डोरा, सतकबीर, बन्दीछोर, शब्द वंशावली, उग्रगीता, बसन्त, होली, रेखता, झूलना, खसरा, हिण्डोला, बारहमासा, चाँचरा, चौतीसा, अलिफनामा, रमैनी, बीजक, आगम, रामसार, सौरठा कबीरजी कृत, शब्द पारखा और ज्ञानबतीसी, विवेकसागर, विचारमाला, कायापञ्जी, रामरक्षा, अठपहरा, निर्भयज्ञान, कबीर और धर्मदास की गोष्ठी आदि ग्रन्थों में पाये जाते हैं।
कबीरदास ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिख, केवल मुख से भाखे हैं। इनके भजनों तथा उपदेशों को इनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया। इन्होंने एक ही विचार को सैकड़ों प्रकार से कहा है और सबमें एक ही भाव प्रतिध्वनित होता है। ये रामनाम की महिमा गाते थे, एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मसजिद, मन्दिर आदि को नही मानते थे। अहिंसा, मनुष्य़ मात्र की समता तथा संसार की असारता को इन्होंने बार-बार गया है। ये उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्म को मानते थे और साफ कहते थे कि वही शुद्ध ईश्वर है चाहे उसे राम कहो या अल्ला। ऐसी दशा में इनकी शिक्षाओं का प्रभाव शिष्यों द्वारा परिवर्तन से उलटा नहीं जा सकता था। थोड़ा सा उलट-पलट करने से केवल इतना फल हो सकता है कि रामनाम अधिक न होकर सत्यनाम अधिक हो। यह निश्चित बात है कि ये रामनाम और सत्यनाम दोनों को भजनों में रखते थे। प्रतिमापूजन इन्होंने निन्दनीय माना है। अवतारों का विचार इन्होंने त्याज्य बताया है। दो-चार स्थानों पर कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनसे अवतार महिमा व्यक्त होती है।
कबीर के मुख्य विचार उनके ग्रन्थों में सूर्यवत् चमक रहे हैं, किन्तु उनसे यह नहीं जान पड़ता कि आवागमन सिद्धान्त पर वे हिन्दूमत को मानते थे या मुसलमानी मत को। अन्य बातों पर कोई वास्तविक विरोध कबीर की शिक्षाओं में नहीं दीख पड़ता। कबीर साहब के बहुत से शिष्य उनके जीवन काल में ही हो गये थे। भारत में अब भी आठ-नौ लाख मनुष्य कबीरपंथी हैं। इनमें मुसलमान थोड़े ही हैं और हिन्दू बहुत अधिक। कबीर-पंथी कण्ठी पहनते हैं, बीजक, रमैनी आदि ग्रन्थों के प्रति पूज्य भाव रखते हैं। गुरू को सर्वोपरि मानते हैं।
निर्गुण-निराकारवादी कबीरपंथ के प्रभाव से ही अनेक निर्गुणमार्गी पंथ चल निकले। यथा--नानकपंथ पञ्जाब में, सत्यनामी नारनौल में, बाबालाली सरहिन्द में, साधपंथ दिल्ली के पास, शिवनारायणी गाजीपुर में, गरीबदासी रोहतक में, मलूकदासी कड़ा (प्रयोग) में, रामसनेही (राजस्थान) में। कबीरपंथ को मिलाकर इन ग्यारहों में समान रूप से अकेले निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है। मूर्तिपूजा वर्जित है, उपासना और पूजा का काम किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है। गुरू की उपासना पर बड़ा जोर दिया जाता है। इन सबका पूरा साहित्य हिन्दी भाषा में है। रामनाम, सत्यनाम अथवा शब्द का जप और योग इनका विशेष साधन है। व्यवहार में बहुत से कबीरपंथी बहुदेववाद, कर्म, जन्मान्तर और तीर्थ इत्यादि भी मानते हैं।
कबीरपंथी
कबीर साहब द्वारा प्रचारित मत को मानने वाले भक्त। भारत में इनकी पर्याप्त संख्या है। परन्तु कबीरपंथ धार्मिक साधना और विचारधारा के रूप में है। अपने सामाजिक तथा व्यापक धार्मिक जीवन में वे पूर्ण हिन्दू हैं। कबीरपंथी विरक्त साधु भी होते हैं। वे हार अथवा माला (तुलसी काष्ठ की) पहनते हैं तथा ललाट पर विष्णु का चिह्न अंकित करते हैं। इस प्रकार इस पंथ के भ्रमणशील या पर्यटक साधु उत्तर भारत में सर्वत्र पर्याप्त संख्यात में पाये जाते हैं। ये अपने सामान्य, सरल एवं पवित्र जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं।
कमलषष्ठी
यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक मनाया जाता और प्रतिमास एक वर्ष पर्यन्त चलता है। ब्रह्मा इसके देवता हैं। पञ्चमी के दिन व्रत के नियम प्रारम्भ होते हैं। षष्ठी को उपवास करना चाहिए। शर्करा से भरे सुवर्णकमल ब्रह्मा को चढ़ाने चाहिए। सप्तमी के दिन ब्रह्मा की प्रतिष्ठा करते हुए उन्हें खीर का भोग लगाना चाहिए। वर्ष के बारह महीनों में ब्रह्माजी की भिन्न-भीन्न नामों से पूजा करनी चाहिए। दे० भविष्योत्तरपुराण, 39।
कमलसप्तमी
यह व्रत चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ होकर एक वर्ष तक प्रतिमास चलता है। दिवाकर (सूर्य) इसके देवता हैं। दे० मत्स्यपुराण, 78.1-11।
कमला
दस महाविद्याओं में से एक। दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वाले दसों महाविद्याओं की उपासना करते हैं। कमला इनमें से एक है। उसके अधिष्ठाता का नाम 'सदाशिव विष्णु' है। 'शाक्तप्रमोद' में इन दसों महाविद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, ध्यान एवं उपासनाविधि वर्णित हैं।
कमलाकर
भारतीय ज्योतिर्विदों में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, कमलाकर आदि प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। ये सभी फलित एवं गणित ज्योतिष के आचार्य माने जाते हैं। भारतीय गणित ज्योतिष के विकास में कमलाकर भट्ट का स्थान उल्लेखनीय है।
करकचतुर्थी (करवाचौथ)
केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को इसका अनुष्ठान होता है। एक वटवृक्ष के नीचे शिव, पार्वती, गणेश तथा स्कन्द की प्रतिकृति बनाकर षोडशोपचार के साथ पूजन किया जाता है। दस करक (कलश) दान दिये जाते हैं। चन्द्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ्य देने का विधान है। दे० निर्णयसिन्धु, 196; व्रतराज 172।
कर्काचार्य
आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के भाष्यकार। इन्होंने कात्यायनसूत्र एवं पारस्कररचित गृह्यसूत्र पर भी भाष्य लिखा है।
करकाष्टमी
कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। रात्रि को गौरीपूजन का विधान है। इसमें सुवासित जल से परिपूर्ण, मालाओं से परिवृत नौ कलशों का दान करना चाहिए। नौ कन्याओं को भोजन कराकर व्रती को भोजन करना चाहिए। यह व्रत महाराष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध है।