अखण्ड ब्रह्मचारी; जिसका वीर्य नीचे पतित न होकर देह के ऊपरी भाग में स्थिर हो जाय। सनकादि, शुकदेव, नारद, भीष्म आदि। भीष्म ने पिता के अभीष्ट विवाह के लिए अपना विवाह त्याग दिया। अतः वे आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण ऊर्ध्वरेता नाम से ख्यात हो गये।
यह शंकर का भी एक नाम है :
ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभःस्थलः।
[ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वलिङ्ग, ऊर्ध्वशायी, नभस्थल।]
ऊषीमठ
हिमालय प्रदेश का एक तीर्थ स्थल। जाड़ों में केदारक्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। उस समय केदारनाथजी की चल मूर्ति यहाँ आ जाती है। यहीं शीतकाल भर उनकी पूजा होती है। यहाँ मन्दिर के भीतर बदरीनाथ, तुङ्गनाथ, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, ऊषा, अनिरुद्ध, मान्धाता तथा सत्ययुग-त्रेता-द्वापर की मूर्तियाँ एवं अन्य कई मूर्तियाँ हैं।
ऋ
स्वरवर्ण का सप्तम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य अधोलिखित है :
ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम्। अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने।। सदा शिवयुतं वर्णं सदा ईश्वर संयुतम्। पञ्च वर्णमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं तथा।। रक्तविद्युल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम्।।
[हे देवी! ऋ अक्षर स्वयं मूर्तिमान् कुण्डली है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सदा वास करते हैं। यह सदा शिवयुत और ईश्वर से संयुक्त रहता है। यह पञ्चवर्णमय तथा चतुर्ज्ञानमय है, रक्त विद्युत् की लता के समान है। इसको प्रणाम करता हूँ।]
वर्णोद्धार तन्त्र में इसके निम्नांकित नाम बतलाये गये हैं :
प्राचीन वैदिक काल में देवताओं के सम्मानार्थ उनकी जो स्तुतियाँ की जाती थीं, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते थे। ऋग्वेद ऐसी ही ऋचाओं का संग्रह है। इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। दे० 'ऋग्वेद'।
अथर्वसंहिता के मत से यज्ञ के उच्छिष्ट (शेष) में से यजुर्वेद के साथ-साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए। बृहदारण्यक उ० और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है 'गीली लकड़ी में से निकलती हुई अग्नि से जैसे अलग-अलग धुआँ निकलता है, उसी तरह उस महाभूत के निःश्वास से ऋग्वेद यजुर्वेद अथर्वाङ्गिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान निकलते हैं : ये सभी इसकी निःश्वास हैं।'
ऋक् ज्यौतिष
ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन ग्रन्थ बहुत प्राचीन काल के मिलते हैं। पहला ऋक् ज्यौतिष, दूसरा यजु:--ज्यौतिष और तीसरा अथर्व ज्यौतिष। ऋक् ज्यौतिष के लेखक लघध हैं। इसको 'वेदाङ्गज्योतिष' भी कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि कुटुम्ब उन सदस्यों से बना जिनका ऋक्थ पाने का अधिकार है। उन्हीं को इसका अधिकार होता है जो कौटुम्बिक धार्मिक क्रियाओं को करने के अधिकारी हैं। इसीलिए धर्मपरिवर्तन करने वालों को ऋक्थ पाने का अधिकार नहीं था। अब धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में धर्मपरिवर्तन ऋक्थ प्राप्ति में बाधक नहीं है।
ऋक्प्रातिशाख्य
वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों, उच्चारण, पदों के कम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन विशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं। वेदाध्ययन के लिए अत्यन्त पूर्वकाल में ऋषियों ने पढ़ने की ध्वनि, अक्षर, स्वरादि विशेषता का निश्चय करके अपनी-अपनी शाखा की परम्परा निश्चित कर दी थी। इस विभेद को स्मरण रखने और अपनी परम्परा की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बने। इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा तथा व्याकरण दोनों पाये जाते हैं।
एक समय था जब वेद की सभी शाखाओं के प्रातिशाख्यों का प्रचलन था और सभी उपलब्ध भी थे। परन्तु अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्प्रातिशाख्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायनरचित वाजसनेय प्रातिशाख्य, सामवेद का पुण्यमुनि रचित सामप्रातिशाख्य और अथर्वप्रातिशाख्य व शौकनीय चतुरध्यायी उपलब्ध हैं। शौन के ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, छः पटल और 103 कण्डिकाएँ हैं। इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नामक एक ग्रन्थ मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था। इसको देखकर उब्बटाचार्य ने इसका विस्तृत भाष्य लिखा है।
ऋक्ष
रीछ या भालू। ऋग्वेद में ऋक्ष शब्द एक बार तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित ही प्रयुक्त हुआ है। स्पष्टतः यह जन्तु वैदिक भारत में बहुत कम पाया जाता था। इस शब्द का बहुवचन में प्रयोग 'सप्त ऋषियों' के अर्थ में भी कम ही हुआ है। ऋग्वेद में दानस्तुति के एक मन्त्र में 'ऋक्ष' एक संरक्षक का नाम है, जिसके पुत्र आर्क्ष का उल्लेख दूसरे मन्त्र में आया है।
परवर्ती काल में नक्षत्रों के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है। रामायण तथा पुराणों की कई गाथाओं में ऋक्ष एक जाति विशेष का नाम है। ऋक्षों ने रावण से युद्ध करने में राम की सहायता की थी।
ऋग्विधान
इस ग्रन्थ की गणना ऋग्वेद के पूरक साहित्य में की जाती है। इसके रचयिता शौनक थे।
ऋग्भाष्य
ऋग्वेद के ऊपर लिखे गये भाष्यसाहित्य का सामूहिक नाम ऋग्भाष्य है। ऋग्वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन समझे जाते हैं। एक निघण्टु है और दूसरा यास्क का निरुक्त। देवराज यज्वा निघण्टु के टीकाकार हैं। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निघण्टु की टीका वेदभाष्य करने वाले एक स्कन्दस्वामी के नाम से भी पायी जाती है। सायणाचार्य वेद के परवर्ती भाष्यकार हैं। यास्क के समय से लेकर सायण के समय तक विशेष रूप से कोई भाष्यकार प्रसिद्ध नहीं हुआ।
वेदान्तमार्गी लोग संहिता की व्याख्या की ओर विशेष रुचि नहीं रखते, फिर भी वैष्णव संप्रदाय के एक आचार्य आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य स्वामी) ने ऋग्वेदसंहिता के कुछ अंशों का श्लोकमय भाष्य किया था। फिर रामचन्द्र तीर्थ ने उस भाष्य की टीका रची थी। सायण ने अपने विस्तृत 'ऋगभाष्य' में भट्टभास्कर मिश्र और भरतस्वामी- वेद के दो भाष्यकारों का उल्लेख किया है। कतिपय अंश चण्डू पण्डित्, चतुर्वेद स्वामी, युवराज रावण और वरदराज के भाष्यों के भी पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त मुद्गल, कपर्दी, आत्मानन्द और कौशिक आदि कुछ भाष्यकारों के नाम भी सुनने में आते हैं।