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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

ऐतरेय ब्राह्मण
ऋक् साहित्य में दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। पहले का नाम ऐतरेय ब्राह्मण तथा दूसरे का शाङ्खायन अथवा कौषीतकि ब्राह्मण है। दोनों ग्रन्थों का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, यत्र-तत्र एक ही विषय की व्याख्या की गयी है, किन्तु एक ब्राह्मण में दूसरे ब्राह्मण से विपरीत अर्थ प्रकट किया गया है। कौषीतकि ब्राह्मण में जिस अच्छे ढंग से विषयों की व्याख्या की गयी है उस ढंग से ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं है। ऐतरेय ब्राह्मण के पिछले दस अध्यायों में जिन विषयों की व्याख्या की गयी है वे कौषीतकि में नहीं है, किन्तु इस अभाव को शाङ्खायनसूत्रों में पूरा किया गया है। आजकल जो ऐतरेय ब्राह्मण उपलब्ध है उसमें कुल चालीस अध्याय हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम दस अध्याय ऐतिहासिक आख्यानों से भरे हैं। इसमें बहुत से भौगोलिक विवरण भी मिलते हैं। इन ब्राह्मणों में 'आख्यान' हैं, 'गाथाएँ' हैं, 'अभियज्ञ गाथाएँ' भी हैं जिनमें बताया गया है कि किस मन्त्र का किस अवसर पर किस प्रकार आविर्भाव हुआ है।
ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता महीदास ऐतरेय माने जाते हैं। ये इतरा नामक दासी से उत्पन्न हुए थे, इसलिए इनका नाम ऐतरेय पड़ा। इसका रचनाकाल बहुत प्राचीन है। इसमें जनमेजय का उल्लेख है, अतः इसको कुछ विद्वान् परवर्ती मानते हैं, किन्तु यह कहना कठिन है कि यह जनमेजय महाभारत का परवर्ती है अथवा अन्य कोई पूर्ववर्ती राजा।
ऐतरेय ब्राह्मण पर गोविन्द स्वामी तथा सायण के महत्त्वपूर्ण भाष्य हैं। सायणभाष्य के आजकल चार संस्करण उपलब्ध हैं। आधुनिक युग में इसका पहला संस्करण अंग्रेजी अनुवाद के साथ मार्टिन हाग ने 1863 ई० में प्रकाशित किया था। दूसरा संस्करण थियोडोर आडफरेस्टन ने 1879 ई० में प्रकाशित किया। पण्डित काशीनाथ शास्त्री ने 1896 में इसका तीसरा संस्करण निकाला और चौथा संस्करण ए० वी० कीथ द्वारा प्रकाशित किया गया।

ऐतरेयोपनिषद्
एक ऋग्वेदीय उपनिषद्। ऋग्वेद के ऐतरेय आरण्यक में पाँच अध्याय और सात खण्ड हैं। इनमें से चौथे, पाँचवें तथा छठे खण्डों का संयुक्त नाम ऐतरेयोपनिषद् है। इन तीनों में क्रमशः जगत्, जीव तथा ब्रह्म का निरूपण किया गया है। इसकी गणना प्राचीन उपनिषदों में की जाती है।

ऐतरेयोपनिषद्दीपिका
माधवाचार्य अथवा विद्यारण्यस्वामी द्वारा रचित ऐतरेयोपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारिणी टीका।

ऐतिह्यतत्त्वसिद्धान्त
स्वामी निम्बार्काचार्य द्वारा रचित माना गया एक ग्रन्थ। इसका उल्लेख अन्य ग्रन्थों में पाया जाता है। उक्त आचार्य के किसी पश्चाद्भावी अनुयायी द्वारा इसका निर्माण सम्भव है। (इसकी एक ताड़पत्रित प्रतिलिपि 'ऐतियतत्त्वराद्धान्त' नाम से 'निम्बार्कपीठ, प्रयाग' के जगद्गुरुपुस्तकालय में सुरक्षित है।)

ऐन्द्रमहाभिषेक
ऐतरेय ब्राह्मण में दो विभिन्न राजकीय यज्ञों का विवरण प्राप्त होता है। वे हैं -- पुनरभिषेक (8.5.11) एवं ऐन्द्रमहाभिषेक (8.12-20)। प्रथम कृत्य का राज्यारोहण से सम्बन्ध नहीं है। यह कदाचित् राजसूय यज्ञ से सम्बन्धित है। ऐन्द्रमहाभिषेक का सिंहासनारोहण से सम्बन्ध है। इसका नाम ऐन्द्रमहाभिषेक इसलिए पड़ा कि इसमें वे क्रियाएँ की जाती हैं, जो इन्द्र के स्वर्ग राज्यारोहण के लिए की गयी मानी जाती हैं। पुरोहित इस अवसर पर राजा के शरीर में इन्द्र के गुणों की स्थापना मन्त्र एवं प्रतिज्ञाओं द्वारा करता है। दे० 'अभिषेक' और 'राज्याभिषेक'।

ऐन्द्रि
इन्द्र का पुत्र जयन्त। बाली नामक वानरराज को भी ऐन्द्रि कहा गया है, अर्जुन का भी एक पर्याय ऐन्द्रि है, क्योंकि इन दोनों का जन्म इन्द्र से हुआ था।

ऐन्द्री
इन्द्र की पत्नी। मार्कण्डेयपुराण (88.22) में कथन है :
वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।'
दुर्गा का भी एक नाम ऐन्द्री है। पूर्व दिशा, इन्द्र देवता के लिए पढ़ी गयी ऋचा, ज्येष्ठा नक्षत्र भी ऐन्द्री कहे जाते हैं।

ऐयनार
एक ग्रामदेवता, जिसकी पूजा दक्षिण भारत में व्यापक रूप से होती है। इसका मुख्य कार्य है खेतों को किसी भी प्रकार की हानि, विशेष कर दैवी विपत्तियों से बचाना। प्रायः प्रत्येक गाँव में इसका चबूतरा पाया जाता है। मानवरूप में इसकी मूर्ति बनायी जाती है। यह मुकुट धारण करता है और घोड़े पर सवार होता है। इसकी दो पत्नियों पूरणी और पुद्कला की मूर्तियाँ इसके साथ पायी जाती हैं जो रक्षण कार्य में उसकी सहायता करती हैं। कृषि परिपक्व होने के समय इनकी पूजा विशेष प्रकार से की जाती है। ऐयनार की उत्पत्ति हरिहर के संयोग से मानी जाती है। जब हरि (विष्णु) ने मोहिनी रूप धारण किया था उस समय हर (शिव) के तेज से ऐयनार की उत्पत्ति हुई थी। इसका प्रतीकत्व यह है कि इस देवता में रक्षण और संहार दोनों भावों का मिश्रण है।

एरावत
पूर्व दिशा का दिग्गज; इन्द्र का हाथी, यह श्वेतवर्ण, चार दाँत वाला, समुद्र के मन्थन से निकला हुआ स्वर्ग का हाथी है। इसके पर्याय हैं-- अभ्रमातङ्ग, अभ्रमुवल्लभ, श्वेतहस्ती, चतुर्दन्त, मल्लनाग, इन्द्रकुञ्जर, हस्तिमल्ल, सदादान, सुदामा, श्वेतकुञ्जर, गजाग्रणी, नागमल्ल।
महाभारत, भीष्मपर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भूभाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया हैं। जैनसाहित्य में भी यही नाम आया है। इस भाग के निवासियों के विलास एवं यहाँ के सौन्दर्यादि का वर्णन भीष्मपर्ब के पूर्व अध्यायों में वर्णित 'उत्तरकुरु' देश के अनुरूप ही हुआ है।
महाभारत, भीष्मपर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भूभाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया है। जैनसाहित्य में भी यही नाम आया है। इस भाग के निवासियों के विलास एवं यहाँ के सौन्दर्यादि का वर्णन भीष्मपर्व के पूर्व अध्यायों में वर्णित 'उत्तरकुरु' देश के अनुरूप ही हुआ है।

ऐल
इला का पुत्र पुरूवा। इसी से ऐल अथवा चन्द्रवंश का आरम्भ हुआ था, महाभारत (1. 75.17) में कथन है :
पुरूरवास्ततो विद्वानिलायां समपद्यत। सा वै तस्याभवन्माता पिता चैवेति नः श्रुतम्।।
[पश्चात् पुरुरवा इला से उत्पन्न हुआ। वही उसकी माता तथा पिता हुई ऐसा सुना जाता है।]
ऐल अथवा चन्द्रवंश भारतीय इतिहास का बहुत प्रसिद्ध राजवंश है। इसमें पुरूरवा, आयु, ययाति आदि विख्यात राजा हुए। ययाति के पुत्र यदु, पुरु, अनु आदि थे। यदु के वंश का विपुल प्रसार भारत में हुआ।


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