यह वह वृक्ष है जो मनुष्य की सभी कामनाओं की पूर्ति करता है। इसको कल्पतरु भी कहते हैं।
जैन विश्वासों के अनुसार विश्व की प्रथम सृष्टि में मनुष्य युग्म (जोड़े) में उत्पन्न हुए तथा एक जोड़े ने दो जोड़ों को जन्म दिया जो आपस में विवाह कर द्विगुणित होते गये। जीविका के लिए ये कोई व्यवसाय नहीं करते थे। दस प्रकार के कल्पतरु थे जो इन मनुष्यों की सभी इच्छाओं को पूरा करते थे।
कल्पतरु एक माङ्गलिक प्रतीक भी है।
कल्पवृक्षव्रत
साठ संवत्सर व्रतों में से एक। दे० मत्स्य पुराण, 101; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 446।
कल्पसूत्र
छः वेदाङ्गों--शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष-में कल्प दूसरा अङ्ग है। जिन सूत्रों में कल्प संगृहीत हैं उनको कल्पसूत्र कहते हैं। इनके तीन विभाग हैं--श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्वसूत्र भी)। प्रथम दो में श्रौत और गृह्य यज्ञों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। इनका मुख्य विषय है धार्मिक कर्मकाण्ड का प्रतिपादन, यज्ञों का विधान और संस्कारों की व्याख्या। श्रौत यज्ञ दो प्रकार के हैं-- सोमसंस्था और हविःसंस्था। गृह्ययज्ञ को पाकसंस्था कहा गया है। इन तीनों प्रकार के यज्ञों के सात-सात उपप्रकार हैं। सोमसंस्था के प्रकार हैं---अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। हविःसंस्था, के प्रकार हैं--अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य और पशुबन्ध। पाकसंस्था के प्रकार हैं--सायंहोत्र, प्रातर्होत्र, स्थालीपाक, नवयज्ञ, वैश्वदेव, पितृयज्ञ और अष्टका। सब मिलाकर कल्पसूत्रों में 42 का पतिपादन है : 24 श्रौतयज्ञ, 7 गृह्ययज्ञ, 5 महायज्ञ और 16 संस्कारयज्ञ। परिभाषासूत्र में इनका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। वेदसंहिताओं के समान कल्पसूत्रों की संख्या भी 1130 होनी चाहिए थी किन्तु इनमें से अधिकांश लुप्त हो गये; संप्रति केवल 40 कल्पसूत्र ही उपलब्ध हैं। दे० 'सूत्र'।
कल्पसूत्रतन्त्र
एक तन्त्र ग्रन्थ। आगमतत्त्वविलास में उल्लिखित तन्त्रों की तालिका में इस तन्त्र का नाम आया है।
कल्पादि
मत्स्यपुराण में ऐसी सात तिथियों का उल्लेख है जिनसे कल्प का प्रारम्भ होता है। उदाहरणतः वैशाख शुक्ल 3, फाल्गुन कृष्ण 3, चैत्र शुक्ल 5, चैत्र कृष्ण 5, (अथवा आमावस्या) माघ शुक्ल 13, कार्तिक शुक्ल 7 और मार्गशीर्ष शुक्ल 9। दे० हेमाद्रि, कालखण्ड 670-1; निर्णयसिन्धु, 82; स्मृतिकौस्तुभ, 5-6। ये श्राद्धतिथियाँ हैं। हेमाद्रि के नागर खण्ड में 30 तिथियाँ ऐसी बतलायी गयी हैं जैसे कि वे सब कल्पादि हों। मत्स्यपुराण (अध्याय 290.7--11) में 30 कल्पों का उल्लेख है, किन्तु वे नागर खण्ड में उल्लिखित कल्पों से भिन्न प्रकार के हैं।
कल्पानुपदसूत्र
ऋचाओं को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध मे सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। 'कल्पानुपदसूत्र' भी इनमें से एक सामवेदीय सूत्र है।
कल्याणसप्तमी
किसी भी रविवार को पड़ने वाली सप्तमी के दिन यह व्रत किया जा सकता है। उस तिथि का नाम कल्याणिनी अथवा विजया होगा। एक वर्ष पर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य के पूजन का विधान है। 13 वें मास में 13 गायों का दान या समान करना चाहिए। दे० मत्स्यपुराण, 74.520; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 208-211।
कल्याणश्री (भाष्यकार)
आश्वलायन श्रौतसूत्र के 11 व्याख्याग्रन्थों का पता लगा है। इनके रचयिताओं में से कल्याणश्री भी एक हैं।
कल्लट
कश्मीर के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक। इनका जीवनकाल नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 'काश्मीर शैव साहित्यमाला' में प्रसिद्ध 'स्पन्दकारिका' ग्रन्थ की रचना कल्लट द्वारा हुई थी। इसमें स्पन्दवाद (एक शैवसिद्धान्त) का प्रतिपादन किया गया है।
कल्हण
कल्हण पण्डित कश्मीर के राजमन्त्रियों में से थे। इन्होंने 'राजतरङ्गिणी' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें कश्मीर के राजवंशों का इतिहास संस्कृत श्लोकों में वर्णित है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है।