मराठा भक्तों की परम्परा में अठारहवीं शताब्दी के महीपति नामक भागवत धर्मावलम्बी सन्त ने 'कथासारामृत' की रचना की। इसमें भगवत्कथाओं का संग्रह है।
कदलीव्रत
यह व्रत भाद्र शुक्ल की चतुर्दशी को किया जाता है। इसमें केले के वृक्ष की पूजा होती है, जिससे सौन्दर्य तथा सन्तति की वृद्धि होती है। गुर्जरों में यह व्रत कार्तिक, माघ अथवा वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन समस्त उपचारों तथा पौराणिक मन्त्रों के साथ किया जाता है। इस व्रत का उद्यापन उसी तिथि को उसी मास में अथवा अन्य किसी शुभ मास में किया जाना चाहिए। यदि केले का वृक्ष अप्राप्य हो तो उसकी स्वर्णप्रतिमा का पूजन किया जाता है। दे० अहल्याकामधेनु, 611 अ।
कनकदास
इनका उद्भव काल 16वीं शती है। ये मध्व मतावलम्बी वैष्णव एवं कन्नड़ भजनों के रचयिताओं में मुख्य हैं।
कनखल
हरिद्वार की पंच पुरियों में एक पुरी। नीलधारा तथा नहर वाली गंगा की धारा दोनों यहाँ आकर मिल जाती हैं। सभी तीर्थों में भटकने के पश्चात् यहाँ पर स्नान करने से एक खल की मुक्ति हो गयी थी (ऐसा कौन खल है जो यहाँ नहीं तर जाता), इसलिए मुनियों ने इसका नामकरण "कनखल" किया। हरि की पौड़ी से कनखल तीन मील दक्षिण है। यहाँ दक्ष प्रजापति का स्मारक दक्षेश्वर शिवमन्दिर प्रतिष्ठित है।
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कनफटा योगी
गोरखपन्थी साधु, जो अपने दोनों कानों के मध्य के रिक्त स्थान में बड़ा छिद्र कराते हैं जिससे वे उसमें वृत्ताकार कुंडल (शीशा, काठ अथवा सींग का बना हुआ) पहन सकें। वे अनेकों मालाएँ पहनते हैं और उनमें से किसी एक में छोटी चाँदी की सीटी लटकती है, जिसे 'सिंगीनाद' कहते हैं। मालाओं में एक श्वेत पत्थर की गुरियों की माला प्रायः रहती है, जिसका अभिप्राय है कि धारण करने वाले ने हिंगुलाज (बलूचिस्तान) स्थित शक्तिपीठ के मन्दिर का दर्शन किया है। वे लोग शाक्त एवं शैव दोनों के मन्दिरों का दर्शन करते हैं। उनका मन्त्र है 'शिव-गोरक्ष'। वे गोरखनाथ की पूजा करते हैं तथा उन्हें अति प्राचीन मानते हैं। योगमार्ग का अधिक आचरण भी इनमें नहीं पाया जाता, क्योंकि आधुनिक संन्यासी साधु जैसे ये भी साधारण हो गये हैं। इनके अनेकों ग्रन्थ हैं। 'हठयोग' तथा 'गोरक्षशतक' गोरखनाथ प्रणीत कहे जाते हैं। आधुनिक ग्रन्थों मे 'हठयोग प्रदीपिका', स्वात्माराम रचित 'घेरण्डसंहिता' तथा 'शिवसंहिता' हैं। प्रथम सबसे प्राचीन है। प्रदीपिका तथा घेरण्ड के एक ही विषय हैं, किन्तु शिवसंहिता का एक भाग ही हठयोग पर है, शेष शाक्तयोग के भाष्य के सदृश है। दे० 'गोरख पंथ'।
कन्दपुराणम्
शैव सम्प्रदाय की तमिल शाखा के साहित्य में कन्दपुराण का प्रमुख स्थान है। यह स्कन्दपुराण का तमिल अनुवाद है, जिसे द्वादश शताब्दी में 'काञ्ची अय्यर' नामक शैव सन्त ने प्रस्तुत किया। ये काञ्जीवरम् के निवासी थे।
कन्याकुमारी
भारत के दक्षिणांचल के अन्तिम छोर पर समुद्रतटवर्ती एक देवीस्थान। 'छोटे नारायण' से, कन्याकुमारी बावन मील है। यह अन्तरीप भूमि है। एक ओर बंगाल का आखात, दूसरी ओर पश्चिम सागर तथा सम्मुख हिंद महासागर है। महाभारत (वनपर्व 85.23) में इसका उल्लेख है :
पद्मपुराण (38.23) में इसका माहात्म्य दिया हुआ है। स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ एक समुद्रवेष्टित शिला पर कुछ समय तक भजन-ध्यान किया था। इस घटना की स्मृति में उक्त शिला पर भव्य भवन निर्मित है, जो ध्यान-चिन्तन के लिए रमणिक स्थल बन गया है।
कपर्द
कपर्द' शब्द सिर के केशों को चोटी के रूप में बाँधने की वैदिक प्रथा का बोधक है। इस प्रकार एक कुमारी को चार चोटियों में केशों को बाँधने वाली 'चतुष्कपर्दा' (ऋ० वे 10.114,3) कहा गया है तथा 'सिनीवाली' को सुन्दर चोटी वाली 'सुकपर्दा' कहा गया है (वाजसनेयी सं० 11.59)। पुरुष भी अपने केशों को इस भाँति सजाते थे, क्योंकि 'रुद्र' (ऋ० वे० 1.114, 1, 5; वाज० सं० 16.10, 29,43,48,59) तथा 'पूषा' को ऐसा करते कहा गया है (ऋ० वे० 6.53, 2; 9.67, 11)। वसिष्ठों को दाहिनी ओर जूड़ा बाँधने से पहचाना जाता था एवं उन्हें 'दक्षिणातस्कपर्द' कहते थे। कपर्दी का प्रतिलोम शब्द पुलस्ति है अर्थात् केशों को बिना चोटी किये रखना।
कपर्दी
(1) शंकर का एक उपनाम, क्योंकि उनके मस्तक पर विशाल जटाजूट बँधा रहता है।
(2) ऋग्वेद और आपस्तम्बधर्मसूत्र के एक भाष्यकार भी 'कपर्दी स्वामी' नाम से प्रसिद्ध हैं।
कपर्दिक (वेदान्ताचार्य)
स्वामी रामानुजकृत 'वेदान्तसंग्रह' (पृ० 154) में प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन आचार्यों ने रामानुज से पहले वेदान्त शास्त्र के प्रचार के लिए ग्रन्थनिर्माण किये थे। आचार्य रामानुज के सम्मानपूर्ण उल्लेख से प्रतीत होता है कि ये लोग सविशेष ब्रह्मवादी थे। कपर्दिक उनमें से एक थे। दूसरे पाँच आचार्यों के नाम हैं-- भारुचि, टङ्क, बोधायन, गुहदेव एवं द्रविडाचार्य।