एक पुरातन वेदान्ताचार्य। वेदान्ती दार्शनिक आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध की प्रायः तीन प्रकार से व्याख्या करते हैं। आश्मरथ्य के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से भिन्न है न अभिन्न। इनके सिद्धान्त को भेदाभेदवाद कहते हैं। दूसरे विचारक औडुलोमि हैं। इनका कथन है कि आत्मा ब्रह्म से तब तक भिन्न है, जब तक यह मोक्ष पाकर ब्रह्म में मिल नहीं जाता। इनके सिद्धान्त को सत्यभेद या द्वैत सिद्धान्त कहते हैं। तीसरे विचारक काशकृत्स्न हैं। इनके उनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है। इनका सिद्धान्त अद्वैतवाद है।
आचार्य औङुलोमि का नाम केवल वेदान्तसूत्र (1.4.21; 3.4.45; 4.4.6) में ही मिलता है, मीमांसासूत्र में नहीं मिलता। ये भी बादरायण के पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं। ये वेदान्त के आचार्य और आत्मा-ब्रह्म भेदवाद के समर्थक थे।
औद्गात्रसारसंग्रह
सामवेदी विधियों का संग्रहरूप एक निबन्धग्रन्थ है। सामवेद का अन्य श्रौतसूत्र 'द्राह्यायण' है। 'लाट्यायन श्रौतसूत्र' से इसका बहुत थोड़ा भेद है। यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है। मध्वस्वामी ने इसका भाष्य लिखा है तथा रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'औद्गात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध में उस भाष्य का संस्कार किया है।
और्ध्वदेहिक
शरीर त्याग के बाद आत्मा की सद्गति के लिए किया हुआ कर्म। मृत शरीर के लिए उस दिन प्रदत्त दान और संस्कार का नाम भी यही है। जिस दिन व्यक्ति मरा हो उस दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व तक प्रेत की तृप्ति के लिए जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह सब और्ध्वदेहिक कहलता है। दे० 'अन्त्येष्टि'। मनु (11.10) में कहा गया है :
[अपने आश्रित रहने वालों को कष्ट देकर जो मृतात्मा के लिए दान आदि देता है वह दान जीवन में तथा मरने के पश्चात् भी दुःखकारक होता है।]
और्णनाभ
ऋग्वेद (10.120.6) में दनु के सात पुत्र दानवों के नाम आते हैं। ये अनावृष्टि (सूखा) के दानव हैं और सूखे मौसम में आकाश की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें वृत्र आकाशीय जल को अवरुद्ध करने वाला है जो सारे आकाश में छाया रहता है। दूसरा शुश्न है जो सस्य को नष्ट करता है। यह वर्षा (मानसून) के पहले पड़ने वाली प्रचंड गर्मी का प्रतिनिधि है। तीसरा और्णनाभ (मकड़ी का पुत्र) है। कदाचित् इसका ऐसा नाम इसलिए पड़ा कि सूखे मौसम में आकाश का दृश्य फैले हुए ऊन या मकड़े जैसा हो जाता है।
औरस
अपने अंश से धर्मपत्नी के द्वारा उत्पन्न सन्तान। याज्ञवल्क्य के अनुसार :
तन्त्रिक क्रियाओं में इस अक्षर का बड़ा उपयोग होता है।
कक्षीवान्
ऋचाओं के द्रष्टा एक ऋषि। ऋग्वेद (1.18,1;51,13; 112,16; 116,7; 117,6; 126,3; 4.26,1; 8.9,10; 9.74, 8; 10.25,10; 61,16)में अनेकों बार कक्षीवान् ऋषि का नाम उद्धृत है। वे उशिज नामक दासी के पुत्र और परिवार से 'पज्र' थे, क्योंकि उनकी एक उपाधि पज्रिय (ऋ०वे० 1.116,7; 117,6) है। ऋग्वेद (1.126) में उन्होंने सिंधुतट पर निवास करने वाले स्वनय भाव्य नामक राजकुमार की प्रशंसा की है, जिसने उनको सुन्दर दान दिया था। वृद्धावस्था में उन्होंने वृचया नामक कुमारी की पत्नी रूप में प्राप्त किया। वे दीर्घजीवी थे। ऋग्वेद (4. 26,1) में पुराकथित कुत्स एवं उशना के साथ इनका नाम आता है। परवर्ती साहित्य में इन्हें आचार्य माना गया है।
इनका नाम ऋग्वेद के कतिपय सूक्तों के संकलनकार नौ ऋषियों की तालिका में आता है। ये नौ ऋषि हैं-- सव्य नोधस, पराशर, गोतम, कुत्स, कक्षीवान्, परुच्छेप, दीर्घतमा एवं अगस्त्य। ये पूर्ववर्त्ती छः ऋषियों से या उनके कुलों से भिन्न हैं।
कङ्कतीय
शतपथ ब्राह्मण में उद्धृत एक परिवार का नाम, जिसने शाण्डिल्य से 'अग्निचयन' सीखा था। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में 'कङ्कतिब्राह्मण' ग्रन्थ का उद्धरण है। बौधायनश्रौतसूत्र में उद्धृत छागलेयब्राह्मण एवं कङ्कतिब्राह्मण सम्भवतः एक ही ग्रन्थ के दो नाम हैं।
कंस
पुराणों के अनुसार यह अन्धक-वृष्णि संघ के गणमुख्य उग्रसेन का पुत्र था। इसमें स्वच्छन्द शासकीय या अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ जागृत हुई और पिता को अपदस्थ करके यह स्वयं राजा बन बैठा। इसकी बहिन देवकी और बहनोई वसुदेव थे। इनको भी इसने कारागार में डाल दिया। यहीं पर इनसे कृष्ण का जन्म हुआ अतः कृष्ण के साथ उसका विरोध स्वाभाविक था। कृष्ण ने उसका वध कर दिया। अपनी निरंकुश प्रवृत्तियों के कारण कंस का चित्रण राक्षस के रूप में हुआ है।