पूर्व मीमांसा' को ही कर्ममीमांसा कहते हैं। इसका उद्देश्य है धर्म के विषय में निश्चय को प्राप्त करना अथवा सभी धार्मिक कर्त्तव्यों को बताना। किन्तु वास्तव में यज्ञकर्मों की विवेचना ने इसमें इतना अधिक महत्त्व प्राप्त किया है कि दूसरे कर्म उसकी ओट में छिप जाते हैं। ऋचाओं तथा ब्राह्मणों में सभी आवश्यक निर्देश हैं, किन्तु वे नियमित नहीं हैं इस कारण पुरोहित को यज्ञों के अनुष्ठान में नाना कठिनाइयाँ पड़ती हैं। मीमांसा ने इन समस्याओं के समाधान के लिए अपने सिद्धान्त उपस्थित किये तथा वैदिक संहिताओं के समझने में निर्देशक का कार्य किया है।
वेदों में बताये गये यज्ञों के बहुत से फल कहे गये हैं, किन्तु वे कार्य के साथ ही तुरन्त नहीं देखे जा सकते। इसलिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि यज्ञ से 'अपूर्व' फल प्राप्त होता है, जो अदृश्य है और जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है और जो समय आने पर कहे गये फल को देगा।
पूर्व मीमांसा अध्यात्म मार्ग की शिक्षा नहीं देती, फिर भी किसी-किसी स्थान पर उसमें आध्यात्मिक विचार आ ही गये हैं। ईश्वर की सत्ता का विरोध यहाँ इस आधार पर हुआ है कि एक सर्वज्ञ की धारणा नहीं की जा सकती। विश्व की प्रामाणिक अनुभवगत धारणा यहाँ उपस्थित हुई है। सृष्टि की अनन्तता को वस्तुओं के नाश एवं पुनः उत्पत्ति के विश्वास की भूमिका में समझा गया है एवं कर्म के सिद्धान्त पर इतना जोर दिया गया है कि आवागमन से मुक्ति पाना कठिन ही जान पड़ता है।
यह चिन्तनप्रणाली वैदिक याज्ञिकों, पुरोहितों की सहायता के लिए स्थापित हुई। आज भी यह गृहस्थों के दैनन्दिन जीवन में निर्देशक का कार्य करती है। वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान यह संन्यास की शिक्षा नहीं देती और न संन्यासियों से इसका सम्बन्ध ही रहा है।
कर्मयोग
भारतीय जीवन के तीन मार्ग माने गये हैं-- (1) कर्ममार्ग, (2) ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। इन्हीं तीनों को क्रमशः कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कहते हैं। वास्तव में ये समानान्तर नहीं, किन्तु समवेत मार्ग हैं। पूर्ण जीवन के लिए तीनों का समन्वय आवश्यक है। कर्म मार्ग के विरुद्ध कर्मसंन्यासियों का सबसे बड़ा आक्षेप यह था कि कर्म से बन्धन होता है; अतः मोक्ष के लिए कर्मसंन्यास आवश्यक है। भगवद्गीता में यह मत प्रतिपादित किया गया कि जीवन में कर्म त्याग असम्भव है। कर्म से केवल बन्ध का दंश तोड़ देना चाहिए। जो कर्म ज्ञानपूर्वक भक्तिभाव से अनासक्ति के साथ किया जाता है उससे बन्ध नहीं होता। इसमें तीनों मार्गों का समुच्च्य और समन्वय है। इसी को गीता में कर्मयोग कहा गया है। इसका प्रतिपादन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है (गीता, 3.3-9) :
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढ़ात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।8।।
[हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएँ मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं--ज्ञानियों की ज्ञानयोग से और योगियों (कर्मयोगियों) की (निष्काम) कर्मयोग से। मनुष्य केवल कर्म के अनारम्भ से निष्कर्मता को प्राप्त नहीं होता है और न केवल कर्मों के त्याग से सिद्धि को प्राप्त करता है। क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता है। निश्चय पूर्वक सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं। जो कर्मेन्द्रियों को बाहर से रोककर भीतर से मन के द्वारा इन्द्रियों के विषयों का स्मरण करता रहता है वह विमूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहा जाता है। किन्तु हे अर्जुन! (इसके विपरीत) मन द्वारा भीतर से इन्द्रियों का नियन्त्रण करके कर्मेन्द्रियों से अनासक्त होकर जो कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ माना जाता है। तुम शास्त्रविहित कर्म को करो। क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। तुम्हारे कर्म न करने से तुम्हारी शरीरयात्रा भी संभव न होगी। (सभी कर्मों से बन्ध नहीं होता) यज्ञार्थ (लोकहित) के अतिरिक्त कर्म करने से लोक में मनुष्य कर्मबन्धन में फँसता है। इसलिए हे अर्जुन! आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञार्थ (समष्टि के कल्याण के लिए कर्म का सम्यक् प्रकार से आचरण करो।]
कर्मविभाग
यह वर्णविभाग का पर्याय है। मानवसमूह की जितनी आवश्यकताएँ हैं उनके विचार से विधाता ने सत्ययुग में चार बड़े विभाग किये। शिक्षा की पहली आवश्यकता थी। इसीलिए सबसे पहले-- देव-दानव-यज्ञादि से भी पहले-बड़े तेजस्वी, प्रतिभाशाली, सर्वदर्शी ब्राह्मणों की सृष्टि की। इन्हीं से सारी पृथ्वी के लोगों ने सब कुछ सीखा। राष्ट्र की रक्षा, प्रजा की रक्षा, व्यक्ति की रक्षा दूसरी आवश्यकता थी। इस काम में कुशल, बाहुबल को विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय हुए। शिक्षा और रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका। अन्न के रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका। अन्न के बिना प्राणी जी नहीं सकता था। पशुओं के बिना खेती हो नहीं सकती थी। वस्तुओं की अदला-बदली बिना सबको सब चीजें मिल नहीं सकती थी। चारों वर्णों को अन्न, दूध, घी, कपड़े-लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिए। इन वस्तुओं को उपजाना, तैयार करना, फिर जिसकी जिसे जरूरत हो उसके पास पहुँचाना; यह सारा काम प्रजा के एक बड़े समुदाय को करना ही चाहिए। इसके लिए वैश्यों का वर्ण हुआ। किसान, व्यापारी, ग्वाले, कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये सभी वैश्य हुए। शिक्षक को, रक्षक को, वैश्य को छोटे-मोटे कामों में सहायक और सेवक की जरूरत थी। धावक तथा हरकारे की, हरवाहे की, पालकी ढोने वाले की, पशु चराने वाले की, लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने वाले की, बासन माँजने वाले की, कपड़े धोने वाले की जरूरत थी। ये जरूरतें शूद्रों ने पूरी की। इस तरह जनसमुदाय की सारी आवश्यकताएँ प्रजा में पारस्परिक कर्मविभाग से पूरी हुईं। यही कर्मविभाग अंग्रेजी के भ्रमोत्पादक उल्थे से आज `श्रमविभाग` बन गया है। प्रजा में यह कर्मविभाग तथा समाज में यह श्रमविभाग सनातन है। `स्वेस्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः` गीता ने इसी कर्मसाङ्कर्य से बचने की शिक्षा दी है। ऐसा कर्मविभाग हिन्दू-दण्डनीति अथवा समाजशास्त्र में है। ऐसा अद्भुत संगठन संसार में दूसरा नहीं है।
चारों वर्णों का कर्मविभाग मनु आदि के धर्मशास्त्रों में इस प्रकार बतलाया गया है :
ब्राह्मण-- पठन-पाठन, यजन-याजन, दान-प्रतिग्रह;
क्षत्रिय-- पठन, यजन, दान; रक्षण, पालन, रंजन;
वैश्य--पठन, यजन, दान;कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य;
शूद्र-- पठन, यजन (मन्त्ररहित), दान; अन्य वर्णों की सेवा (सहायता)।
[जिस परमात्मा से सभी जीवधारियों की उत्पत्ति हुई है और जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण विश्व का वितान तना गया है, अपने स्वाभाविक कर्मों से उसकी अर्चना करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है।]
कर्मसंन्यास
स्वामी शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान-स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया है। वे जिज्ञासु और ज्ञानी दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास की आवश्यकता बतलाते हैं। उनके मत में निष्काम कर्म केवल चित्तशुद्धि का हेतु है। परमपद की प्राप्ति कर्म-संन्यासपूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके आत्मतत्व का बोध प्राप्त होने पर ही हो सकती है।
श्रीमद्भगवद्गीता में इससे भिन्न मत प्रकट किया गया है। इसके अनुसार काम्य कर्मों का त्याग तथा नित्य और नैमित्तिक कर्मों का अनासक्तिपूर्वक सम्पादन ही कर्मसंन्यास है; यज्ञार्थ अथवा भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करने से बन्ध नहीं होता। गीता (3.15-25) में यज्ञार्थ कर्म के सम्बन्ध में निम्नांकित कथन है :
कर्म ब्रह्योद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।
इसी प्रकार (4.31 में) कहा है:, यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।। गीता (6.1 में) पुनः कथन है:
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
कर्मसाङ्कर्य
अपने स्वभावज कर्म को छोड़कर लोभ अथवा भयवश दूसरे के कर्म को जीविकार्थ करना कर्मसाङ्कर्य कहलाता है। प्राचीन काल में प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के अलग-अलग निर्धारित नियम एवं कर्म थे। (दे० 'वर्ण' और 'आश्रम'।) ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश का अधिकार प्रथम तीन वर्णों को, गृहस्थाश्रम में सभी वर्णों को, वानप्रस्थ में केवल प्रथम दो को था एवं संन्यास में प्रवेश एक मात्र ब्राह्मण कर सकता था। कालान्तर में आश्रम के नियम ढीले पड़े। ब्रह्मचर्याश्रम के कतिपय संस्कारों को न पूरा कर ब्राह्मण भी अपने बालकों को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करा देते थे। वानप्रस्थ और संन्यास तो अत्यन्त त्यागपूर्ण आश्रम थे। इनकी अवहेलना स्वाभाविक थी ही। इस प्रकार गृहस्थाश्रम ही प्रधान आश्रम रहा एवं एक आश्रम में रहकर भी अन्य आश्रमों के नियम व कर्मों का (सुविधा के अनुसार) पालन होता रहा।
उधर भिन्न वर्णों के लिए जो भिन्न-भिन्न कार्य निश्चित किये गये थे, इस नियम में भी शिथिलता आने लगी। ब्राह्मण शस्त्रोपजीवी होने लगे। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि इसके उदाहरण हैं। ययाति के पुत्र यदु आदि को राज्याधिकार नहीं मिला तो वे पशुपालनादि करने लगे। समाज की आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय भी अधिकांश अपने-अपने काम छोड़कर वैश्यवत् गार्हस्थ्य-धर्म पालन करने लगे थे। इस प्रकार प्राचीन काल में ही कर्मसाङ्कर्य प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान काल में तो यह साङ्कर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ है। अनेक सामाजिक दुर्व्यवस्थाओं का यह एक बहुत बड़ा कारण है।
कर्मेन्द्रिय
मनुष्य की दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ सबका स्वामी मन होता है। दस इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। वाक्, हस्त, पाद, गदा और उपस्थ ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं जिनका शरीर के हितार्थ कार्यात्मक उपयोग होता है।
कर्मेन्द्रियों का संयम धार्मिक साधना का प्रथम चरण है। किन्तु इनका संयम भी आन्तरिक मन से होना चाहिए; बाहरी हठपूर्वक नहीं। जो बाहर से अपनी इन्द्रियों को रोकता है किन्तु भीतर से उनके विषयों का ध्यान करता है, वह मूढ़ात्मा और मिथ्याचारी है। गीता (3.6, 7) में कथन है:
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मेयोगमसक्तः स विशिष्यते।।
कर्णप्रयाग
यह तीर्थस्थल गढ़वाल जिले के अन्तर्गत है। यहाँ भागीरथ और अलकनन्दा का संगम है।
कर्णश्रवा (आङ्गिरस)
पञ्चविंश ब्राह्मण (13.11, 14) में इन्हें साम गान का ऋषि बताया गया है। यही बात दावसु के बारे में भी कही गयी है।
करण ग्रन्थ
वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की विधि अत्यन्त प्राचीन है और वैदिक काल से चली आयी है। बीच-बीच में कालानुसार बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने करण ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके इसकी कालविषमता को ठीक कर रखा है। करण ग्रन्थों के द्वारा ज्योतिष में बराबर संशोधन होते चले आये हैं। संप्रति मकरन्दीय, ग्रहलाघव जैसे करण ग्रन्थ अधिक प्रचलित हैं।
करम्भ
जौ के सत्तू को दही में मिलाकर बनाया गया एक होमद्रव्य। यह कृषि के देवता पूषा का प्रिय य़ज्ञभाग है। दक्षयज्ञध्वंस के समय वीरभद्र ने पूषा के दाँत तोड़ दिये थे, तब से वे कोमल पिष्ट (करम्भ) की हवि ग्रहण करते हैं। करम्भ जुआर आदि से भी बनाया जाता है।