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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

उशना
यह नाम शतपथ ब्राह्मण (3.4; 3.13; 4.2; 5.15) में उस क्षुप (पौधे) के अर्थ में व्यवहृत हुआ है जिससे सोमरस तैयार किया जाता था।

उषा
यह शब्द 'वस्' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'चमकना' है। इसकी दूसरी व्युत्पत्ति है 'ओषंति नाशयत्यन्धकारम' (अन्धकार को नाशती है)। प्रकृति के एक अत्यन्त मनोरम दृश्य अरुणोदय के रूप में उषा का वर्णन एक युवती महिला के रूप में कवियों ने किया है। वैदिक सूक्तों के अन्तर्गत उषा का निरूपण सुन्दरतम रचना मानी जाती है, जहाँ इन्द्र का गुण बल, अग्नि का गुण पौरोहित्य-ज्ञान तथा वरुण का गुण नैतिक शासन है। उषा का गुण उसका स्त्रीसुलभ स्वरूप है। उषा का वर्णन 21 ऋचाओं में हुआ है।
एक ही उषा देवी का प्रातःकालीन बेलाओं में देखा जाने वाला विविध शोभामय रूप है। वह सुन्दर युवती है, सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत है तथा सुजाता है। वह मुस्कराती, गाती एवं नाचती है तथा अपने मनमोहक रूप को दिखाती है। यदि इन्द्र राजा का प्रतिनिधित्व करता है तो उषा तदनुरूप महिला रानी की प्रतिनिधि है।
उषा रात्रि के काले वस्त्रों को दूर करती है, बुरे स्वप्नों को भगाती, बुरी आत्माओं (भूत-प्रेतादि) से रक्षा करती है। वह स्वर्ग का द्वार खोल देती, आकाश के छोर को प्रकाशित करती तथा प्रकृति के भण्डारों को, जिन्हें रात छिपाये रखती है, स्पष्ट कर देती है तथा सभी के लिए सदयता से उन्हें बिखेर देती है।
उषा वरदान की देवी है। जब उसका प्रातः उदय होता है, प्रार्थना की जाती है --`दानशीलता का उदय करो, प्राचुर्य का उदय करो।` वह क्षण-क्षण रूप बदलने वाली महिला है, क्योंकि हर क्षण वह अपना नया आकर्षण सभी के लिए उपस्थित करती है। हर प्रातःकाल वह अपने इस रूप के भण्डार को लुटाती तथा हर एक को उसका `भाग` प्रदान करती है।
उषा का नियमित रूप से पूर्व में उदय उसे 'ऋत' का रूप प्रमाणित करता है। वह 'ऋत' में उत्पन्न हुई तथा ऋत की रक्षा करने वाली है। वह ऋत की उपेक्षा न करते हुए नित्य उसी स्थान पर आती है। उषा का पूर्व में उदय प्रत्येक उपासक को जगाता है कि वह अपने यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करे।
उषा का सूर्य से निकट का सम्बन्ध है। सूर्य के पूर्व उदित होने के कारण, इसे सूर्य की माता कहा गया है। किन्तु सूर्य उषा का पीछा उसी प्रकार करता है, जैसे नवयुवक युवती का इस दृष्टिबिन्दु से उषा सूर्य की पत्नी कहलाती है। इन्द्र का प्रकटीकरण बादल की गरज एवं विद्युत्-ध्वनि में होता है। उषा अपनी प्रातःकालीन पूर्वी लालिमा (सुन्हरे रंग) के रूप में उसी प्रकार सुकुमार स्त्री रूपिणी है, जैसे इन्द्र कठोर एवं पुरुष रूपी। अग्नि वैदिक पुरोहित, इन्द्र वैदिक योद्धा एवं उषा वैदिक नारी है। पौराणिक कल्पना में उषा सूर्य की पत्नियों--- संज्ञाछाया, उषा और प्रत्यूषा-- में से एक है। सूर्य की परिवार मूर्तियों में इसका अंकन होता है और सूर्य के पार्श्व में यह अन्धकार रूपी राक्षसों पर बाणप्रहार करती हुई दिखायी जाती है।
[दे० ऋ० 4.51; 1.113; 7.79; 1.24; 4.54; 1.115; 10.58।]

उषःकाल
(1) सूर्योदय से पाँच घड़ी पूर्व का काल अथवा पूर्व दिवसीय सूर्योदय से 55 घड़ी बाद का समय। यथा
पञ्च पञ्च उषःकालः सप्त पञ्चारुणोदयः। अष्ट पञ्च भवेत् प्रातः शेषः सूर्योदयो मतः।।
[पहले दिन की 55 घड़ी बीतने पर उषःकाल, 57 घड़ी बीतने पर अरुणोदय और 58 घड़ी के बाद सूर्योदय काल माना गया है।] (कृत्यसारसमुच्चय)। उषःकाल का धार्मिक कृत्यों के लिए बड़ा महत्त्व है।
(2) रात्रि का अवसान भी उषःकाल कहलाता है। वह नक्षत्रों के प्रकाश की मन्दता से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक रहता है। तिथितत्त्व में वराह का कथन है :
अर्धास्तमयात् संध्या व्यक्तीभूता न तारका यावत्। तेजःपरिहानिरुषा भानोरर्धोदयं यावत्।।
[सूर्य के अर्धास्तमन से लेकर जब तक तारे न दिखाई दें इस बीच के समय को सन्ध्या कहते हैं तथा ताराओं के तेज के मन्द होने से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक के समय को उषःकाल कहते हैं।]

उषापति
उषा का पति अनिरुद्ध। यह कामदेव के अवतार प्रद्युम्न यादव का पुत्र माना जाता है। उषा बाणासुर की पुत्री थी। पहले दोनों का गान्धर्व विवाह हुआ था, पुनः कृष्ण-बलराम आदि ने युद्ध में बाणासुर को पराजित कर उसे धूम-धाम के साथ विवाह करने को विवश कर दिया। (आधुनिक विचारकों के अनुसार बाणासुर असीरिया देश का प्रतापी शासक था।)

उष्‍णीष
शिरोवेष्टन, वैदिक भारतीयों द्वारा व्यवहृत पगड़ी, जिसे पुरुष अथवा स्त्री समान रूप से व्यवहार करते थे। दे० ऐ० ब्रा०, 6.1; शत० ब्रा०, 3.3; 2.3; 4.5.2.7;2.1.8 (इन्द्राणी का उष्णीष) आदि एवं काठक संहिता, 13.10। व्रात्यों के उष्णीष का अथर्ववेद (15.2.1) एवं पञ्चविंश ब्रा० (17.1.14;16.6.13) में प्रचुर उल्लेख मिलता है। वाजपेय (शतपथ ब्रा० 5.3.5.33) तथा राजसूय (मैत्रायणी सं० 4.4.3) यज्ञों में राजपद के चिह्न रूप में राजा द्वारा उष्णीष धारण किया जाता था। शिरोभूषा के रूप में देवताओं को भी उष्णीष दिखलाया जाता है। भावप्रकाश में कथन है :
उष्णीषं कान्तिकृत् केश्यं रजोवातकफापहम्। लघु चेच्छस्यते यस्माद् गुरु पित्ताक्षिरोगकृत्।।
[पगड़ी शोभी बढ़ाती है और बालों का हित करती है। वात, पित्त, कफ सम्बन्धी रोगों से बचाती है। छोटी पगड़ी अच्छी होती है, बड़ी पगड़ी पित्त तथा आँखों के रोगों को बढ़ाती है।]
उष्णीष धारण माङगलिक माना जाता है। शुभ अवसरों पर इसका धारण शिष्टाचार का एक आवश्यक अङ्ग है।

स्वरवर्ण का षष्ठ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तन्त्रात्मक महत्त्व निम्नांकित है :
शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली। पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा।। पञ्चप्राणयुतं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा। धर्मार्थकाममोक्षञ्च सदा सुखप्रदायकम्।।
[ऊ अक्षर शङ्क्ख तथा कुन्द के समान श्वेतवर्ण का है। परम कुण्डलिनी (शक्ति का अधिष्ठान) है। यह पञ्च प्राणमय तथा पञ्च देवमय है। पाँच प्राणों से संयुक्त यह वर्ण पीत विद्युत की लता के समान है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और सुख को सदा देनेवाला है।] वर्णोद्धारतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं :
ऊः कण्टकी रति शान्तः क्रोधनो मधुसूदनः। कामराजः कुजेशश्च महेशो वामकर्णकः।।, अर्धीशो भैरवः सूक्ष्मो दीर्घघोषा सरस्वती। विलासिनी विघ्‍नकर्ता लक्ष्मणो रूपकर्षिणी।। महाविद्येश्वरी षष्ठा षण्ढो भूः कान्यकुब्जकः।।

ऊर्णा
ऊन; भेड़ आदि के रोम। भौंहों का मध्यभाग भी ऊर्णा कहलाता है। दोनों भौंहों के मध्य में मृणालतन्तुओं के समान सूक्ष्म सुन्दर आकार की उठी हुई रेखा महापुरुषों का लक्षण है। यह चक्रवर्ती राजा तथा महान् योगियों के ललाट में भी होती है। योगमूर्तियों के ललाट में ऊर्ण अङ्कित की जाती है। वह ध्यान का प्रतीक है।

ऊर्णनाभ
एक प्राचीन निरुक्तकार, जिनका उल्लेख यास्क ने निघण्टु की व्याख्या में किया है।

ऊर्ध्वपुण्ड्र
चन्दन आदि के द्वारा ललाट पर ऊपर की ओर खींची गयी पत्राकार रेखा। यथा :
ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्याद्वारिमृद्भस्मचन्दनैः।
[ब्राह्मण जल, मिट्टी, भस्म और चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक करे।]
ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुयार्त् क्षत्रियस्तु त्रिपुण्ड्रकम्। अर्द्धचन्द्रन्तु वैश्यश्च वर्तुलं शूद्रयोनिजः।।
[ब्राह्मण ऊर्ध्वपुण्ड्र, क्षत्रिय त्रिपुण्ड्र, वैश्य अर्धचन्द्र, शूद्र वर्तुलाकार चन्दन लगाये।]
विविध आकारों में सभी सनातनधर्मी व्यक्तियों द्वारा तिलक लगाया जाता है। किन्तु ऊर्ध्वपुण्ड्र वैष्णव सम्प्रदाय का विशेष चिह्न है। वासुदेव तथा गोपीचन्दन उपनिषदों (भागवत ग्रन्थों) में इसका प्रशंसात्मक वर्णन पाया जाता है। यह गोपीचन्दन से ललाट पर एक, दो या तीन खड़ी लम्ब रेखाओं के रूप में बनाया जाता है।
देवप्रसादी चन्दन, रोली, गंगा की या तुलसीमूल की रज या आरती की भस्म से भी ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक किया जाता है। प्रसादी कुंकुम या रोली से मस्तक के मध्य एक रेखा बनाना लक्ष्मी या श्री का रूप कहा जाता है। पत्राकार दो रेखाएँ बनाना भगवान का चरणचिह्न माना जाता है। ऊँकार की चौथी मात्रा अर्धचन्द्र और बिन्दु के लम्ब रूप में भी वह होता है।

उर्ध्वमेढ्र
शिव का एक पर्याय। इसका शाब्दिक अर्थ है जिसका मेढ्र (लिङ्ग) ऊपर की ओर हो। लिङ्ग निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चित ज्ञान का प्रतीक है। शिव ज्ञान के सन्दोह हैं। स्कन्द पुराण आदि कई ग्रन्थों में ऊर्ध्वमेढ्र शिव की कथाएँ पायी जाती हैं।


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