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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

करविन्दस्वामी
आपस्तम्ब शुल्वसूत्र के ये एक भाष्यकार हुए हैं।

करवीरप्रतिपदाव्रत
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। किसी देवालय के उद्यान में खड़े हुए करवीर वृक्ष का पूजन करना चाहिए। तमिलनाडु में यह व्रत वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है।

कलश
धार्मिक कृत्यों में कलश की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। इसमें वरुण की पूजा होता है। विवाह, मूर्तिस्थापना, जयप्रयाण, राज्याभिषेक आदि के समय एक कलश अथवा कई कलशों की अथवा अधिक से अधिक 108 कलशों की स्थापना की जाती है। कलश की परिधि 15 अंगुल से 50 अंगुल तक; ऊँचाई 16 अंगुल तक; तली 12 अंगुल और मुँह 8 अंगुल चौड़ा होना चाहिए। हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.608 में इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी हुई है :
कलां कलां गृहीन्वा च देवाना विश्वकर्मणा। निर्मितोऽयं सुरैर्यस्मात् कलशस्तेन उच्यते।।
ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में 'पात्र' या 'घट' के लिए व्यवहृत शब्द 'कलश' था, जो कच्ची या पक्की मिट्टी का बना होता था। दोनों प्रकार के पात्र व्यवहार में आते थे। सोमरस के काष्ठनिर्मित द्रोणकलश का उल्लेख प्रायः यज्ञों में हुआ है।

कलस
इसकी व्युत्पत्ति 'क (जल) से लस सुशोभित होता है' (केन लसतीति) की गयी है। कालिकापुराण (पुष्याभिषेक, अध्याय 87) में उसकी उत्पत्ति और धार्मिक माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है :
देवता और असुरों द्वारा अमृत के लिए जब सागर का मन्थन हो रहा था तो अमृत (पीयुष) के धारणार्थ विश्वकर्म ने कलश का निर्माण किया। देवताओं की पृथक्-पृथक् कलाओं को एकव करके यह बना था, इसलिए कलस कहलाया। नव कलस हैं, जिनके नाम हैं गोह्य, उपगोह्य, मरुत्, मयूख, मनोहा, कृषिभद्र, तनुशोधक, इन्द्रियघ्न औऱ विजय। हे राजन्, इन नामों के क्रमशः नौ नाम और हैं उनको सुनो, जो सदैव शान्ति देने वाले हैं। प्रथम क्षितीन्द्र, द्वितीय जलसम्भव, तीसरा पवन, चौथा अग्नि, पाँचवाँ यजमान, छठा कोशसम्भव, सातवाँ सोम, आठवाँ आदित्य औऱ नवाँ विजय। कलस को पञ्चमुख भी कहा गया है, वह महादेव के स्वरूप को धारण करनेवाला है। कलस के पाँच मुखों में पञ्चानन महादेव स्वयं निवास करते हैं, इसलिए सम्यक् प्रकार से वामदेव आदि नामों से मण्डल के पद्मासन में पञ्चवकधट का न्यास करना चाहिए। क्षितीन्द्र को पूर्व में, जलसम्भव को पश्चिम में, पवन को वायव्य में, अग्निसम्भव को अग्निकोण में, यजमान को नैऋत्य में, कोशसम्भव को ईशान में सोम को उत्तर में और आदित्य को दक्षिण में रखना चाहिए। कलस के मुख में ब्रह्मा और ग्रीवा में शङ्कर स्थित हैं। मूल में विष्णु और मध्य में मातृगण का न वास हैं। दिक्पाल देवता दसों दिशाओं से इसका मध्य में वेष्टन करते हैं और उदर में सप्तसागर तथा सप्त द्वीप स्थित हैं। नक्षत्र, ग्रह, सभी कुलपर्वत, गङ्गा आदि नदियाँ, चार वेद, सभी कलस में स्थित हैं। कलस में इनका चिन्तन करना चाहिए। रत्न, सभी बीज, पुष्प, फल, वज्र, मौक्तिक, वैदूर्य, महापद्म, इन्द्रस्फटिक, बिल्व, नागर, उदुम्बर, बोजपूरक, जम्बीर, आभ्र, आम्लातक, दाडिम, यव, शालि, नीवार, गोधूम, सित सर्षप, कुंकुम, अगुरु, कर्पूर, मदन, रोचन, चन्दन, मांसी, एला, कुष्ठ, कर्पूरपत्र, चण्ड, जल, निर्यासक, अम्बुज, शैलेय, बदर, जाती, पत्रपुष्य, कालशाक, पृक्का, देवी, पर्णक, वच, धात्री, मज्जिष्ठ, तुरुष्क, मङ्गलाष्टक, दूर्वा, मोहनिका, भद्रा, शतमूली, शतावरी, पर्णों में शवल, क्षुद्रा, सहदेवी, गजाङ्कुश, पूर्णकोषा, सिता, पाठा, गुञ्जा, सुरसी, कालस, व्यामक, गजदन्त, शतपुष्पा, पुनर्णवा, ब्राह्मी, देवी, सिता, रुद्रा और सर्वसन्धानिका, इन सभी शुभ वस्तुओं को लाकर कलस में निधापन करना चाहिए। कलस के देवता विधि, शम्भु, गदाधर (विष्णु) का यथाक्रम पूजन करना चाहिए। विशेष करके शम्भु का। प्रशादमन्त और शम्भुतन्त्र से शङ्कर का प्रथम पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात् नानाविधि से दिक्पालों का पूजन करना चाहिए। पहले स्थापित कलसों में नवग्रोहों की और मातृघटों में मातृकाओं की पूजा करनी चाहिए। घट में सभी देवताओं की पृथक्-पृथक् पूजा होती है। मुख्यतया पूर्वोक्त नव देवताओं की। भक्ष्य, माल्य, पेय, पुष्प, फल, यावक, पायस आदि यथासम्भव आयोजनों से राजा को सभी देवताओं का पूजन करना चाहिए। ागासवयोजन, 14. सूचीवापकर्म, 15. सूत्रक्रीड़ा, 16. प्रहेलिका, 17. प्रतिमाला, 18. दुर्वचकयोग, 19. पुस्तकवाचन, 20. नाटिकाख्यायिकादर्शन, 21.काव्यसमस्यापूरण, 22. पट्टिका-वेत्र-बाण-विकल्प, 23. तर्कु-कर्म, 24. तक्षण, 25. वास्तुविद्या, 26. ख्प्यान्तरपरीक्षा, 27. धातुवाद, 28. मणिरागज्ञान, 29. आकरज्ञान, 30. वृक्षायुर्वेदयोग, 31. मेष-कुक्कुट-लावक-युद्ध, 32.शुकसारिकाप्रलापन, 33. उदकघात, 34.चित्रायोग, 35. माल्यग्रथनविकल्प, 36. शेखरापीडयोजन, 37. नेपथ्यायोग, 38. कर्णपत्रभङ्ग, 39. गन्धयुक्ति, 40. भूषणयोजन, 41. ऐन्द्रजाल, 42. कौचुमारयोग, 43. हस्तलाघव, 44. चित्रशाक-पूप-भक्ष्य-विकल्पक्रिया, 45. केशमार्जनकौशल, 46. अक्षरमुष्टिकाकथन, 47. म्लेच्छित-कविकर्म, 48. देशभाषज्ञान, 49. पुष्पशकटिकाः निमित्र-ज्ञान, 50. यन्त्रमातृका, 51. धारणमातृका, 52. सम्पाठ्य, 53. मानसीकाव्यक्रिया, 54. मानसीकाव्यक्रिया, 55. छलितकयोग, 56. अभिधानकोषछन्दोज्ञान, 57. वस्त्रगोपन, 58. द्यूतविशेष, 59. आकर्षक्रीड़ा, 60. बालकक्रीडन, 61. वैनायिकीविद्याज्ञान, 62. वैजयिकीविद्याज्ञान, 63. वैतालिकीविद्याज्ञान, 64. उत्सादनभागवत की श्रीधरी टीका में भी इन कलाओं की सूची दी गयी है। कला का एक अर्थ जिह्वा भी है। हठयोगप्रदीपिका (3.37) में कथन हैं :कलां पराङ्मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत्। (जिह्वा को उलटी करके तीन नाडियों के मार्ग कपाल-गह्वर में लगाना चाहिए।)अकार या शक्ति का माप भी कला कहा जाता है, यथा चन्द्रमा की पंद्रहवी कला, सोलह कला का अवतार (षोडशकलोऽयं पुरुषः।)। राशि के तीसवें अंश के साठवें भाग को भी कला कहते हैं। 165 कलानिधितन्त्रएक मिश्रित तन्त्र। मिश्रित तन्त्रों में देवी की उपासना दो लाभों के लिए बतायी गयी हैं; पार्थिव सुख तथा मोक्ष, जबकि शुद्ध तन्त्र केवल मोक्ष के लिए मार्ग दर्शाते हैं। `कलानिधितन्त्र` में कलाओं के माध्यम से तान्त्रिक साधना का मार्ग बतलाया गया है। 165 कलियह शब्द ऋग्वेद में अश्विनों द्वारा रक्षित किसी व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में कलि (बहुवचन) का प्रयोग गन्धर्वों के वर्णन के साथ हुआ है। विवाद, कलह; बहेड़े के वृक्ष और कलियुग के स्वामी असुर का नाम भी कलि है। कलियुगविश्व की आयु के सम्बन्ध में हिन्दू सिद्धान्त तीन प्रकार के समयविभाग उपस्थित करता है। वे हैं-- युग, मन्वन्तर एवं कल्प। युग चार हैं-- कृत्, त्रेता, द्वापर एवं कलि। ये प्राचीनोक्त स्वर्ण, रूपा, पीतल एवं लौह युग के समानार्थक हैं। उपर्युक्त नाम जुए के पास के पक्षों के आधार पर रखे गये हैं। कृत सबसे भाग्यवान् माना जाता है जिसके पक्षों पर चार बिन्दु हैं, त्रेता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि पर मात्र एक बिन्दु है। ये ही सब सिद्धान्त युगों के गुण एवं आयु पर भी घटते हैं। क्रमशः इन युगों में मनुष्य के अच्छे गुणों का ह्रास होता है तथा युगों को आयु भी क्रमशः 4800 वर्ष, 3600 वर्ष, 2400 वर्ष 1200 वर्ष है। सभी के योग को एक महायुग कहते हैं जो 12000 वर्ष का है। किन्तु ये वर्ष दैवी हैं और एक दैवी वर्ष 360 मानवीय वर्ष के तुल्य होता है, अतएव एक महायुग 43,20,000 वर्ष का होता है। कलि का मानवीय युगमान 4,32,000 वर्ष हैं। कलि (तिष्य) युग में कृत (सत्ययुग) के ठीक विपरीत गुण आ जाते हैं। वर्ण एवं आश्रम का साङ्कर्य, वेद एवं अच्छे चरित्र का ह्रास, सर्वप्रकार के पापों का उदय, मनुष्यों में नानाव्याधियों की व्याप्ति, आयु का क्रमशः क्षीण एवं अनिश्चित होना, बर्बरों द्वारा पृथ्वी पर अधिकार, मनुष्यों एवं जातियों का एक दूसरे से संघर्ष आदि इसके गुण हैं। इस युग में धर्म एकपाद, अधर्म चतुष्पाद होता है, आयु सौ वर्ष की। युग के अन्त में पापियों के नाश के लिए भगवान् कल्कि-अवतार धारण करेंगे। युगों की इस कालिक कल्पना के साथ एक नैतिक कल्पना भी है, जो ऐतरेय ब्राह्मण तथा महाभारत में पायां जाती हैं :कलिः श्यानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः।, उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतः सभ्पद्यते चरन्।।, (सोनेवाले के लिए कलि, अँगड़ाई लेनेवाले के लिए द्वापर, उठनेवाले के लिए त्रेता और चलने वाले के लिए कृत (सत्ययुग) होता है।)कल्किपुराण (प्रथम अध्याय) में कलियुग उत्पत्ति का वर्णन निम्नांकित है :संसार के बनानेवाले लोकपितामह ब्रह्मा ने प्रलय के अन्त में घोर मलिन पापयुक्त एक व्य.क्ति को अपने पृष्ठ भाग से प्रकट किया। वह अधर्म नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसके वंशानुकीर्तन, श्रवण और स्मरण से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। अधर्म की सुन्दर विडालाक्षी (बिल्ली के जैसी आँखवाली) भार्या मिथ्या नाम की थी। उसका परमकोपन पुत्र दम्भ नामक हुआ। उसने अपनी बहिन माया से लोभ नामक पुत्र और और निकृति नामक पुत्री को उत्पन्न किया, उन दोनों से क्रोध नामक पुत्र उथ्पन्न हुआ। उसने अपनी हिंसा नामक बहिन से कलि महाराज को उत्पन्न किया। वह दाहिने हाथ से जिह्वा और वाम हस्त से उपस्थ (शिश्न) पड़े हुए, अंजन के समान वर्णवाला, काकोदर, कराल मुखवाला और भयानक था। उससे सड़ी दुर्गन्ध आती थी और वह ध्यूत, मद्य, हिंसा, स्त्री तथा सुवर्ण का सेवन करने वाला था। उसने अपनी दुरुक्ति नामक बहिन से भय नामक पुत्र और मृत्यु नामक पुत्री उत्पन्न किये। उन दोनों का पुत्र निरय. हुआ। उसने अपनी यातना नामक बहिन से सहस्रों रूपों वाला लोभ नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस प्रकार कलि के वंश में असंख्य धर्सनिन्दक सन्तान उत्पन्न होती गयीं।`
गरुडपुराण (युगधर्म, 117 अ०) में कलिधर्म का वर्णन इस प्रकार है :
जिसमें सदा अनृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विवाद, शोक, मोह भय और दैन्य बने रहते हैं, उसे कलि कहा गया है। उसमें लोग कामी और सदा कटु बोलनेवाले होंगे। जनपद दस्युओं से आक्रान्त और वेद पाखण्ड से दूषित होगा। राजा लोग प्रजा का भक्षण करेंगे। ब्राह्मण शिश्नोदरपरायण होंगे। विद्यार्थी व्रतहीन और अपवित्र होंगे। गृहस्थ भिक्षा माँगेंगे। तपस्वी ग्राम में निवास करने वाले, धन जोड़ने वाले और लोभी होंगे। क्षीण शरीर वाले, अधिक खाने वाले, शौर्यहीन, मायावी, दुःसाहसी भृत्य (नौकर) अपने स्वामी को छोड़ देंगे। तापस सम्पूर्ण व्रतों को छोड़ देंगे। शूद्र दान ग्रहण करेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे, प्रजा उद्विग्न, शोभाहीन और पिशाच सदृश होगी। बिना स्नान किये लोग भोजन, अग्नि, देवता तथा अतिथि का पूजन करेंगे। कलि के प्राप्त होने पर पितरों के लिए पिण्डोदक आदि क्रिया न होगी। सम्पूर्ण प्रजा स्त्रियों में आसक्त और शूद्रप्राय होगी। स्त्रियाँ भी अधिक सन्तानवाली और अल्प भाग्यवाली होंगी। खुले सिर वाली (स्वच्छन्द) और अपने सत्पति की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली होंगी। पाखण्ड से आहत लोग विष्णु की पूजा नहीं करेंगे, किन्तु दोष से परिपूर्ण कलि में एक गुण होगा—कृष्ण के कीर्तन मात्र से मनुष्य बन्धनमुक्त हो परम गति को प्राप्त करेंगे। जो फल कृतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में परिचर्या से प्राप्त होता है वह कलियुग में हरि-कीर्तन से सुलभ है। इसलिए हरि नित्य ध्येय और पूज्य हैं।
भागवत पुराण (द्वादश स्कन्ध, तीन अध्याय) में कलिधर्म का वर्णन निम्नांकित है :
कलियुग में धर्म के तप, शौच, दया, सत्य इन चार पाँवों में केवल चौथा पाँव (सत्य) शेष रहेगा। वह भी अधार्मिकों के प्रयास से क्षीण होता हुआ अन्त में नष्ट हो जायेगा। उसमें प्रजा लोभी, दुराचारी, निर्दय, व्यर्थ वैर करनेवाली, दुर्भगा, भूरितर्ष (अत्यन्त तृषित) तथा शूद्रदासप्रधान होगी। जिसमें माया, अनृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह,भय, दैन्य अधिक होगा वह तामसप्रधान कलियुग कहलायेगा। उसमें मनुष्य क्षुद्रभाग्य, अधिक खानेवाले, कामी, वित्तहीन और स्त्रियाँ स्वैरिणी और असती होंगी। जनपद दस्युओं से पीड़ित, वेद पाखण्डों से दूषित, राजा प्रजाभक्षी, द्विज शिश्नोदरपरायण, विद्यार्थी अव्रत और अपवित्र, कुटुम्बी भिक्षाजीवी, तपस्वी ग्रामवासी और संन्यासी अर्थलोलुप होंगे। स्त्रियाँ ह्रस्वकाया, अतिभोजी बहुत सन्तानवाली, निर्लज्ज, सदा कटु बोलनेवाली, चौर्य, माया और अतिसाहस से परिपूर्ण होंगी। क्षुद्र, किराट और कुटकारी व्यापार करेंगे। लोग बिना आपदा के भी साधु पुरुषों से निन्दित व्यवसाय करेंगे। भृत्य द्रव्यरहित उत्तम स्वामी को भी छोड़ देंगे। पति भी विपत्ति में पड़े कुलीन भृत्य को त्याग देंगे। लोग दूध न देनेवाली गाय को छोड़ देंगे। कलि में मनुष्य माता-पिता, भाई, मित्र, जाति को छोड़कर केवल स्त्री से प्रेम करेंगे, साले के साथ संवाद में आनन्द लेंगे, दीन और स्त्रैण होंगे। शूद्र दान लेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे। अधार्मिक लोग उच्‍च आसन पर बैठकर धर्म का उपदेश करेंगे। कलि में प्रजा नित्य उद्विग्न मनवाली, दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, अन्नरहित भूतल में अनावृष्टि के भय से आतुर; वस्त्र, अन्न, पान, शयन, व्यवसाय, स्नान, भूषण से हीन; पिशाच के सदृश दिखाई पड़नेवाली होगी। लोग कलि में आधी कौड़ी के लिए भी विग्रह करके मित्रों को छोड़ देंगे, प्रियों का त्याग करेंगे और अपने प्राणों का भी हनन करेंगे। मनुष्य अपने से बड़ों और माता-पिता, पुत्र और कुलीन भार्या की रक्षा नहीं करेंगे। लोग क्षुद्र और शिश्नोदर परायण होंगे। पाखण्ड से छिन्न-भिन्न बुद्धि वाले लोग जगत् के परम गुरु, जिनके चरणों पर तीनों लोक के स्वामी आनत हैं, उन भगवान् अच्युत की पूजा प्रायः नहीं करेंगे।
द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) व्रात्य (सावित्री- पतित) और राजा लोग शूद्रप्राय होंगे। सिन्धु के तट, चन्द्रभागा (चिनाव) की घाटी, काञ्ची और कश्मीरमण्डल में शूद्र, व्रात्य, म्लेच्छ तथा ब्रह्मवर्चस से रहित लोग शासन करेंगे। ये सभी राजा समसामयिक और म्लेच्छप्राय होंगे। ये सभी अधार्मिक और असत्यपरायण होंगे। ये बहुत कम दान देनेवाले और तीव्र क्रोध वाले, स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मण को मारनेवाले और दूसरे की स्त्री तथा धन का अपहरण करेंगे। ये उदित होते ही अश्त तथा अल्प शक्ति और अल्पायु होंगे। असंस्कृत, क्रियाहीन, रजस्तमोगुण से धिरे, राजा रूपी ये म्लेच्छ प्रजा को खा जायेंगे। इनके अधीन जनपद भी इन्हीं के समान आचार वाले होंगे और वे राजाओं द्वारा तथा स्वयं परस्पर पीड़ित होकर क्षय को प्राप्त होंगे।
इसके पश्चात् प्रतिदिन धर्म, सत्य, शौच, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मृति कलिकाल के द्वारा क्षीण होंगे। कलि में मनुष्य धन के कारण ही जन्म से गुणी माना जायेगा। धर्म-न्याय-व्यवस्था में बल ही कारण होगा। दाम्पत्य सम्बन्ध में केवल अभिरुचि हेतु होगी और व्यवहार में माया। स्त्रीत्व और पुंस्त्व में रति और विप्रत्व में सूत्र कारण होगा। आश्रम केवल चिह्न से जाने जायेंगे और वे परस्पर आपत्ति करनेवाले होंगे। अवृत्ति में न्याय दौर्बल्य और पाण्डित्य में वचन की चपलता होगी। असाधुत्व में दरिद्रता और साधुत्व में दम्भ प्रधान होगा। विवाह में केवल स्वीकृति और अलंकार में केवल स्नान शेष रहेगा। दूर घूमना ही तीर्थ और केश धारण करना ही सौन्दर्य समझा जायेगा। स्वार्थ में केवल उदर भरना, दक्षता में कुटुम्ब पालन, यश में अर्थसंग्रह होगा। इस प्रकार दुष्ट प्रजा द्वारा पृथ्वी के आक्रान्त होने पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में जो बली होगा वही राजा बनेगा। लोभी, निर्घृण, डाकू, अधर्मी राजाओं द्वारा धन और स्त्री से रहित होकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में चली जायेगी। दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, शाक, मूल, आमिष, क्षौद्र, फल, पुष्प भोजन करनेवाली प्रजा वृष्टि के अभाव में नष्ट हो जायेगी। बात, तप, प्रावृट्, हिम, क्षुधा, प्यास, व्याधि, चिन्ता आदि से प्रजा सन्तप्त होगी। कलि में परमायु तीस बीस वर्ष होगी। कलि के दोष से मनुष्यों का शरीर क्षीण होगा। मनुष्यों का वर्णाश्रम और वेदपथ नष्ट होगा। धर्म में पाखण्ड की प्रचुरता होगी और राजाओं में दस्युओं की, वर्णों में शूद्रों की, गौओं में बकरियों की, आश्रमों में गार्हस्थ्य की, बन्धुओं में यौन सम्बन्ध की, ओषधियों में अनुपाय की, वृक्षों में शमी की, मेघों में विद्युत की, घरों में शून्यता की प्रधानता होगी। इस प्रकार खरधर्मी मनुष्यों के बीच गत प्राय कलियुग में धर्म की रक्षा करने के लिए अपने सत्त्व से भगवान् अवतार लेंगे।
165, 166, 167, 168

कलिसंतरणोपनिषद्
एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें कलि से उद्धार पाने का दर्शन प्रतिपादित है, जो केवल भगवान् के नामों का जप ही है। जप का मुख्य मन्त्र :
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। यही माना गया है।

कल्प
विश्व की आयु के सम्बन्ध में युग के साथ समय के दो और बृहत् मापों का वर्णन आता है। वे हैं मन्वन्तर एवं कल्प। युग चार हैं--कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि। इन चार युगों का एक महायुग होता है। 1000 महायुग मिलकर एक कल्प बनाते हैं। इस प्रकार कल्प एक विश्व की रचना से उसके नाश तक की आयु का नाम है।
कल्प का अर्थ कल्पसूत्र भी है। कल्प छः वेदाङ्गों में से एक है। कौन-सा यज्ञ किसलिए, किस विधि-विधान से करना चाहिए यह कल्पसूत्रों के अनुशीलन से ज्ञात हो सकता है।

कल्कि
भगवान् विष्णु के दस अवतारों में से अन्तिम अवतार, जो कलियुग के अन्त में होगा। कल्कि-उपपुराण (अध्याय 2, कल्किजन्मोपनयन) में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दे० 'अवतार'।

कल्किद्वादशी
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी। कल्कि इसके देवता हैं। वाराह पुराण (48.1.24) में इसका विस्तृत वर्णन है।

कल्पतरु
एक अद्वैतवेदान्तीय उपटीका ग्रन्थ, जिसका पूर्ण नाम 'वेदान्तकल्पतरु' है। इसके रचयिता स्वामी अमलानन्द का आविर्भाव दक्षिण भारत में हुआ था। यह ग्रन्थ संवत् 1354 वि० से पूर्व लिखा जा चुका था। इस ग्रन्थ में शांकरभाष्य पर लिखित वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या की गयी है।
इसी प्रकार के उपनाम वाला दूसरा ग्रन्थ 'कृत्यकल्पतरु' धर्मशास्त्र पर मिलता है। इसके रचयिता बारहवीं शती में उत्पन्न लक्ष्मीधर थे जो गहड़वार राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक (मन्त्रियों में से एक) थे।

कल्पपादपदान
कल्पवृक्ष की सुवर्णप्रतिमा का दान। इसकी गणना महादानों में है।
वंगदेशीय वल्लालसेन विरचित दानसागर के महादानदानावर्त में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।


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