श्रावण शुक्ल चतुर्थी को गणेशपूजन का विधान है। दे० व्रतार्क, 78 ब 84 अ.; व्रतराज 160-168। दोनों ग्रन्थों में विक्रमार्कपुर का उल्लेख है और कहते हैं कि महाराज विक्रमादित्य ने इस व्रत का आचरण किया था।
कपालकुण्डला
इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपालों (खोपड़ियों) का कुण्डल धारण करनेवाली (साधिका)।' कापालिक पंथ में साधक और साधिकाएँ दोनों कपालों के कुण्डल (माला) धारण करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखे गये 'मालतीमाधव' नाटक में एक मुख्य पात्र अघोरघण्ट कापालिक संन्यासी है। वह चामुण्डा देवी के मन्दिर का पुजारी था, जिसका सम्बन्ध तेलुगुप्रदेश के श्रीशैल नामक शैव मन्दिर से था। कपालकुण्डला अघोरघण्ट की शिष्य थी। दोनों योग की साधना करते थे। वे पूर्णरूपेण शैव विचारों के मानने वाले थे, एवं नरबलि भी देते थे। संन्यासिनी कपालकुण्डला मुण्डों की माला पहनती तथा एक भारी डण्डा लेकर चलती थी, जिसमें घण्टियों की रस्सी लटकती थी। अघोरघण्ट मालती को पकड़कर उसकी बलि देना चाहता था, किन्तु वह उससे मुक्त हो गयी।
कपालमोचन तीर्थ
सहारनपुर से आगे जगाधारी से चौदह मील दूर एक तीर्थ। यहाँ कपालमोचन नामक सरोवर है, इसमें स्नान करने के लिए यात्री दूर दूर से आते हैं। यह स्थान जंगल में स्थित और रमणीक है।
कपाली
शब्दार्थ है 'कपाल (हाथ में) धारण करने वाला' अथवा 'कपाल (मुण्ड) की माला धारण करने वाला।' यह शिव का पर्याय है। किन्तु 'चर्यापद' में इसका एक दूसरा ही अर्थ है। कपाली की व्युत्पत्ति उसमें इस प्रकार बतायी गयी है : 'कम् महासुखं पालयति इति कपाली। अर्थात् जो 'क' महासुख का पालन करता है वह कपाली है। इस साधना में 'डोम्बी' (नाड़ी) के साधक को कपाली कहते हैं।
कपालेश्वर
शिव का पर्याय। कापालिक एक सम्प्रदाय की अपेक्षा साधकों का पंथ कहला सकता है, जो विचारों में वाममार्गी शाक्तों का समीपवर्ती है। सातवीं शताब्दी के एक अभिलेख में कपालेश्वर (देवता) एवं उनके संन्यासियों का उल्लेख पाया जाता है। मुण्डमाला धारण किये हुए शिव ही कपालेश्वर हैं।
कपिल
सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महामुनि। कपिल के 'सांख्य सूत्र' जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, छः अध्यायों में विभक्त हैं और संख्या में कुल 524 हैं। इनके प्रवचन के बारे में पञ्चशिखचार्य ने लिखा है :
'निर्माणचित्तमधिष्ठाय भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच।''
[सृष्टि के आदि में भगवान् विष्णु ने योगबल से 'निर्माण चित्त' (रचनात्मक देह) का आधार लेकर स्वयं उसमें प्रवेश करके, दयार्द्र होकर कपिल रूप से परम तत्त्व की जिज्ञासा करने वाले अपने शिष्य आसुरि को इस तन्त्र (सांख्यसूत्र) का प्रवचन किया।]
पौराणिकों ने चौबीस अवतारों में इनकी गणना की है। भागवत पुराण में इनकों विष्णु का पञ्चम अवतार बतलाया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार 'तत्त्वसमास सूत्र' नामक एक संक्षिप्त सूत्र रचना को कपिल का मूल उपदेश मानना चाहिए।
इनकी जन्मभूमि गुजरात का सिद्धपुर और तपःस्थल गंगा-सागरसंगम तीर्थ कहा जाता है।
कपिल-उपपुराण
यह उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक है।
कपिलादान
श्राद्धकर्म के सम्बन्ध में ग्यारहवें दिन 'कपिलाधेनु दान' तथा वृषोत्सर्ग मृतक के नाम पर किया जाता है। यह दान महाब्राह्मण को दिया जाता है।
कपिष्ठलकठसंहिता
यजुर्वेद की पाँच शाखाओं में से कपिष्ठल-कठ एक शाखा है। 'कपिष्ठलकठसंहिता' इसी शाखा की है।
कपिलवस्तु
अब तक यह मान्य था कि पिपरवहवा से नौ मील उत्तर-पश्चिम नेपाल राज्य में तिलौरा नामक स्थान ही गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोदन की राजधानी था। यहाँ विशाल भग्नावशेष हैं। यह स्थान लुम्बिनी से पन्द्रह मील पश्चिम है। किंतु नवीन खोजों से प्रमाणित होता है कि बस्ती जिला, उत्तर प्रदेश का पिपरहवा नामक स्थान ही प्राचीन कपिलवस्तु है।
बौद्ध परम्परा (दीग्धनिकाय) के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में कपिल मुनि का आश्रम था। अयोध्या से निष्कासित इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों ने यहाँ पहुँचकर शाक (शाक) वन के बीच शाक्य जनपद की स्थापना की। सम्भवतः कापिल सांख्य के अनीश्वरवादी दर्शन का प्रभाव शाक्यों (विशेष कर गौतम बुद्ध) पर इसी परम्परा से पड़ता रहा होगा।