वेद चार हैं, उनमें से ऋग्वेद सबसे प्रमुख और मौलिक है। क्योंकि सम्पूर्ण सामवेद और यजुर्वेद का पद्यात्मक अंश तथा अथर्ववेद के कतिपय अंश ऋग्वेद से ही लिये गये हैं। पातञ्जल महाभाष्य (पस्पशाह्निक) के अनुसार ऋग्वेद की इक्कीस संहिताएँ थीं। किन्तु आजकल केवल एक ही शाकल संहिता उपलब्ध है जिसमें 1028 सूक्त (11 वालखिल्यों को लेकर) हैं। शाकल संहिता का दो प्रकार से विभाजन किया गया है। प्रथमतः यह मण्डल, अनुवाक और वर्ग में विभाजित है, जिसके अनुसार इसमें 10 मण्डल, 85 अनुवाक और 2008 वर्ग हैं। दूसरे विभाजन के अनुसार इसमें 8 अष्टक, 64 अध्याय और 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त के ऋषि, देवता और छन्द विभिन्न हैं। ऋषि वह है जिसको मन्त्र का प्रथम साक्षात्कार हुआ था। (आधुनिक भाषा में ऋषि वह था जिसने उस सूक्त की रचना की अथवा परम्परा से उसे ग्रहण किया था। सूक्त का वर्णनीय विषय देवता होता है। छन्द विशेष प्रकार का पद्य होता है जिसमें सूक्त की रचना हुई है।
व्याख्यान और अध्यापन के क्रम से ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ बतलायी गयी हैं-- (1) शाकल, (2) वाष्कल, (3) आश्वलायन, (4) शाङ्कखायन और (5) माण्डुकेय। कुछ विद्वानों के अनुसार इसकी सत्ताईस शाखाएँ थीं, जिनके नाम निम्नाङ्कित हैं
ऋग्वेद में देवतात्त्व के अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन हुआ है। सम्पूर्ण विश्व का किसी न किसी 'दैवत' के रूप में ग्रहण है। मुख्य देवताओं को स्थानक्रम से तीन वर्गों-- (1) भूमिस्थानीय, (2) अन्तरिक्षस्थानीय तथा (3) व्योमस्थानीय में बाँटा गया है। इसी प्रकार परिवारक्रम से देवताओं के तीन वर्ग हैं-- (1) आदित्यवर्ग (सूर्य परिवार), (2) वसुवर्ग तथा (3) रुद्रवर्ग। इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक देवता भी हैं, जैसे श्रद्दा, मन्यु, वाक् आदि। बहुत से ऋषिपरिवारों का भी देवीकरण हुआ है, जैसे ऋभु आदि। नदी, पर्वत, यज्ञपात्र, यज्ञ के अन्य उपकरणों का भी देवीकरण किया गया है।
ऋग्वेद के देवमण्डल को देखकर अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसमें बहुदेववाद का ही प्रतिपादन किया गया है। परन्तु यह मत गलत है। वास्तव में देवमण्डल के सभी देवता एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं; अपितु वे एक ही मूल सत्ता के दृश्य जगत् में व्यक्त विविध रूप हैं। सत्ता एक ही है। स्वयं ऋग्वेद में कहा गया है:
[मूल सत्ता एक ही है। उसी को विप्र (विद्वान्) अनेक प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं। उसी को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि कहा गया है।] वरुण, इन्द्र, सोम, सविता, प्रजापति, त्वष्टा आदि भी उसी के नाम हैं।
एक ही सत्ता से सम्पूर्ण विश्व का उद्भव कैसे हुआ है, इसका वर्णन ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.90) में विराट् पुरुष के रूपक से बहुत सुन्दर रूप में हुआ है। इसके कुछ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं :
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्।।1।।
[पुरुष (विश्व में पूर्ण होने वाली अथवा व्याप्त सत्ता) सहस्र (असंख्यात अथवा अनन्त) सिर वाला, सहस्र आँख वाला तथा सहस्र पाँव वाला है। वह भूमि (जगत्) को सभी ओर से घेरकर भी इसका अतिक्रमण दस अंगुल से किये हुए है। अर्थात् पुरुष इस जगत् में समाप्त न होकर इसके भीतर और परे दोनों ओर है।]
[जितना भी विश्व का विस्तार है वह सब इसी विराट्-पुरुष की महिमा है। यह पुरुष अनन्त महिमा वाला है। इसके एक पाद (चतुर्थांश= कियदंश) में ही सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इसके अमृतमय तीन पाद (अधिकांश) प्रकाशमय लोक को आलोकित कर रहे हैं।]
[ब्राह्मण इसका मुख था, राजन्य (क्षत्रिय) इसकी भुजाएँ थीं, जो वैश्य (सामान्य जनता) है वह इसकी जंघा थी; इसके पाँवों से शूद्र उत्पन्न हुआ। अर्थात् सम्पूर्ण समाज विराट पुरुष से ही उत्पन्न हुआ और उसी का अङ्गभूत है।]
[देवों (दिव्य शक्तिवाले पुरुषों) ने यज्ञ से ही यज्ञ का अनुष्ठान किया, अर्थात् विश्वकल्याणी मूल सत्ता का ही विश्वहित में विस्तार किया। यज्ञ के जो नियम बने वे ही प्रथम धर्म हुए। जो इस विराट् पुरुष की उपासना करने वाले लोग हैं वे ही आदरणीय देवता हैं।]
ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' (अष्टक 8, अध्याय 7, वर्ग 17) में गूढ़ दार्शनिक प्रश्न उठाये गये हैं :
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं, नासीद्रजो नो व्योमाऽपरो यत्। किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्।।1।।, न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद् धान्यन्न परः किञ्चनास।।2।। तम आसीत् तमसा गूढ़मग्रे ऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। तच्छ्येनाभ्यपिहितं यदासीत्, तपसस्तन्महिना जायतैकम्।।3।। कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीप्या कवयो मनीषा।।4।। तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम् अधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत्। रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्, स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात्।।5।। को अद्धा वेद क इह प्रावोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा, को वेद यत आबभूव।।6।। इयं विसृष्टिर्यत आबभूव, यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद।।7।।
[उस समय न तो असत् (शून्य रूप आकाश] था और न सत् (सत्त्व, रज तथा तम मिलाकर प्रधान) था। उस समय रज (परमाणु) भी नहीं थे और न विराट व्योम (सबको धारण कने वाला स्थान) था। यह जो वर्तमान जगत् है वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता और न उससे अधिक अथाह हो सकता है, जैसे कुहरे का जल न तो पृथ्वी को ढँक सकता है और न नदी में उससे प्रवाह चल सकता है। जब यह जगत् नहीं था तो मृत्यु भी न थी और न अमृत था। न रात थी और न दिन था। एक ही सत्ता थी, जहाँ वायु की गति नहीं है। वह सत्ता स्वयं अपने प्राण से प्राणित थी। उस सत्ता के अतिरिक्त कुछ नहीं था। तम था। इसी तम से ढँका हुआ वह सब कुछ था-- चिह्न और विभाग रहित। वह अदेश और अकाल में सर्वत्र सम और विषय भाव से नितान्त एक में मिला और फैला हुआ था। जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढँकी था-- आकारहीन। तब तपस् की महान् शक्ति से सर्व प्रथम एक की उत्पत्ति हुई। सबसे पहले (विश्व के विस्तार की, कामना उठ खड़ी हुई। जब ऋषियों ने विचार और जिज्ञासा की तो उनको पता लगा कि यही कामना सत् और असत् को बाँधने का कारण हुई। सत् और असत् की विभाजक रेखा तिर्यक् रूप से फैल गयी। इसके नीचे और ऊपर क्या था? अत्यन्त शक्तिशाली बीज था। इधर जहाँ स्वतन्त्र क्रिया थी उधर परा शक्ति थी। वास्तव में कौन जानता है और कह सकता है कि यह सृष्टि कहाँ से हुई? देवताओं की उत्पत्ति इस सृष्टि से पीछे की है। फिर कौन कह सकता है कि यह सृष्टि कब हुई। वेद ने जो सृष्टिक्रम का वर्णन किया है वह उसको कैसे ज्ञात हुआ? जिससे यह सृष्टि प्रकट हुई उसी ने इसको रचा अथवा नहीं रचा है (और यह स्वतः आविर्भूत हो गयी है?। परम आकाश में इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (निरीक्षण करनेवाला) है, वही इसको जानता है, अथवा शायद वह भी नहीं जानता।]
ऋग्वेद में जिस पूजापद्धति का विधान है उसमें देवस्तुति प्रथम है। मन्त्रोच्चारण द्वारा साधक अपने साध्य से सान्निध्य स्थापित करना चाहता है। इसके साथ ही यज्ञ का विधान है, जिसका उद्देश्य है अपनी सम्पत्ति औऱ जीवन को देवार्थ (लोकहिताय) समर्पित करना। देव और मनुष्य का साक्षात्कार सीधा-सुगम है। अतः प्रतिमा की आवश्यकता है। जिनका देव और यज्ञ में विश्वास नहीं वे शिश्नदेव (शिश्नोदरपरायण) हैं। इस प्रकार इसमें देवपूजन और अतिथिपूजन पर बल दिया गया है। पितरों के प्रति आदर-श्रद्धा का आदेश है।
ऋग्वेद में ऋत की महती कल्पना है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्यवस्था बनाये रखने में समर्थ है। यही कल्पना नीति का आधार है। वरुणसूक्त (ऋ० वे० 5.85.7) में सुन्दर नैतिक उपदेश पाये जाते हैं। ऋत के साथ सत्य, व्रत और धर्म की महत्त्वपूर्ण कल्पनाएँ तथा मान्यताएँ हैं।
हिन्दू धर्म के सभी तत्त्व मूलरूप से ऋग्वेद में वर्तमान हैं। वास्तव में ऋग्वेद हिन्दू धर्म और दर्शन की आधारशिला है। भारतीय कला और विज्ञान दोनों का उदय यहीं पर होता है। विश्व के मूल में रहनेवाली सत्ता के अव्यक्त और व्यक्त रूप में विश्वास, मन्त्र, यज्ञ, अभिचार आदि से उसके पूजन और यजन आदि मौलिक तत्त्व ऋग्वेद में पाए जाते हैं। इसी प्रकार तत्त्वों को जानने की जिज्ञासा, जानने के प्रकार, तत्त्वों के रूपकात्मक वर्णन, मानवजीवन की आंकाक्षाओं, आदर्शों तथा मन्तव्य आदि प्रश्नों पर ऋग्वेद से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। दर्शन की मूल समस्याओं; ब्रह्म, आत्मा, माया, कर्म, पुनर्जन्म आदि का स्रोत भी ऋग्वेद में पाया जाता है। देववाद, एकेश्वरवाद, सर्वेश्वरवाद, अद्वैतवाद, सन्देहवाद आदि दार्शनिक वादों का भी प्रारम्भ ऋग्वेद में ही दिखाई पड़ता है।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों का स्वतन्त्र भाष्य किया है। उनका 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' अति प्रभावशाली ग्रन्थ है, जो वेदभाष्य की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें निम्नांकित विषयों पर विचार हुआ है :
1. वेदों का उद्गम, 2. वेदों का अपौरुषेयत्व और सनातनत्व, 3. वेदों का विषय, 4. वेदों का वेदत्व, 5. ब्रह्मविद्या,. 6. वेदों का धर्म, 7. सृष्टिविज्ञान, 8. सृष्टिचक्र, 9. गुरुत्व और आकर्षण शक्ति, 10. प्रकाशक औऱ प्रकाशित, 11. गणितशास्त्र, 12. मोक्षशास्त्र, 13. नौ-निर्माण तथा वायुयान निर्माण कला, 14. बिजली और ताप, 15. आयुर्वेद विज्ञान, 16. पुनर्जन्म, 17. विवाह, 18. नियोग, 19. शासक तथा शासित के धर्म, 20. वर्ण और आश्रम, 21. विद्यार्थी के कर्तव्य, 22. गृहस्थ के कर्तव्य, 23. वानप्रस्थ के कर्तव्य, 24. संन्यासी के कर्तव्य, 25. पञ्च महायज्ञ, 26. ग्रन्थों का प्रामाण्य, 27. योग्यता और अयोग्यता, 28. शिक्षण और अध्ययनपद्धति, 29. प्रश्नों और सन्देहों का समाधान 30. प्रतिज्ञा, 31. वेद सम्बन्धी प्रश्नोत्तर, 32. वैदिक शब्दों के विशेष नियम--निरुक्त, 33. वेद और व्याकरण के नियम, 34. अलंकार और रूपक
पाश्चात्य विद्वानों के मन्तव्यों के परिष्कारार्थ इस प्रकार का वेदार्थविचार अत्युपयोगी है।
ऋजिश्वा
ऋजिश्वा का उल्लेख ऋग्वेद (1.51,5; 5.3, 8; 10.1.1; 6.20.7) में अनकों बार आया है, किन्तु अस्पष्ट रूप से, जैसे कि यह अति प्राचीन नाम हो। यह पिप्रु तथा कृष्णगर्भ आदि दैत्यों से युद्ध करने में इन्द्र की सहायता करता है। लुड्विग के अनुसार यह औशिज का पुत्र है, किन्तु यह सन्देहात्मक धारणा है। वह दो बार स्पष्ट रूप से वैदथिन अथवा विदयी का वंशज कहा गया है (ऋ० 4.16.13; 5.29.11)।
ऋजुकाम
कश्यप मुनि का एक पर्याय। इसका शब्दार्थ है, 'जिसकी कामना सरल हो।' ऋजुकामता एक धार्मिक गुण माना जाता है।
ऋजुविमला
पूर्वमीमांसा सूत्र पर लिखा हुआ व्याख्याग्रन्थ। इसका रचनाकाल 700 ई० के लगभग और रचनाकार हैं प्रभाकरशिष्य शालिकनाथ पण्डित।
ऋणमोचनतीर्थ
सहारनपुर-अम्बाला के बीच जगाधरी के समीप एक पुण्यस्थान। यहाँ भीष्मपञ्चमी को मेला लगता है। 'ऋणमोचन तीर्थ' नामक सरोवर है। इसमें स्नान करने के लिए दूर-दूर से यात्री आते हैं। यह सरोवर जंगल में है।
ऋत
स्वाभाविक व्यवस्था, भौतिक एवं आध्यात्मिक निश्चित दैवी नियम। यह विधि, जिसे 'ऋत' कहते हैं, अति प्राचीन काल में व्यवस्थित हुई थी। ऋत का पालन सभी देवता, प्रकृति आदि नियमपूर्वक करते हैं। ईरानी भाषा में यह नियम 1600 ई० पू० 'अर्त' के नाम से और अवेस्ता में 'अश' के नाम से पुकारा जाता था। ऋत की सभी शक्तियों को धारण करने वाला देवता वरुण है (ऋ० 5.85.7)। प्रकृति के सभी उपादान उसके विषय हैं एवं वह देखता है कि मनुष्य उसके नियमों का पालन करते हैं या नहीं। वह नैतिकों को पुरस्कार एवं अनैतिकों को दण्ड देता है। वरुण के अतिरिक्त अन्य देवताओं का भी ऋत से सम्बन्ध है। उसी के माध्यम से देवगण अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं।
ऋत के तीन क्षेत्र हैं --(1) विश्वव्यवस्था, जिसके द्वारा ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपने क्षेत्र में नियमित रूप से कार्य करते हैं, (2) नैतिक नियम, जिसके अनुसार व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का निर्वाह होता है। (3) कर्मकाण्डीय व्यवस्था, जिसके अन्तर्गत धार्मिक क्रियाओं के विधि-निषेध, कार्यपद्धति आदि आते हैं। दे० ऋग्वेद, 2. 24. 7-8-10; 7.86.1; 7.87.1-2। सृष्टि प्रक्रिया में बतलाया गया है कि तप से ऋत और सत्य उत्पन्न हुए; फिर इनसे क्रमश रात्रि, समुद्र, अर्णव, संवत्सर, सूर्य, चन्द्र आदि उत्पन्न हुए।
फसल कटने के बाद खेत में पड़ी हुई बालियों के दानों को चुनने वाली उञ्छवृत्ति को भी ऋत कहते हैं। मनुस्मृति (4.4.5) में कहा है :
ऋतामृताभ्यां जीवेतु मृतेन प्रमृतेन वा। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन।। ऋतमुञ्छशिलं, ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्। मृतन्तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्।।
[ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत, सत्य-अनृत, इनके द्वारा जीवन निर्वाह कर ले, किन्तु कुत्ते की वृत्ति (नौकरी आदि) से कभी भी जीवन-यापन न करे।
शिल-उच्छ को ऋत, भिक्षा न माँगने को अमृत, भीख माँगने को मृत, हल जोतने को प्रमृत कहा गया है।]
ऋतधामा
जिसका सत्य धाम (तेज) है; अग्नि, विष्णु, एक भावी इन्द्र। यजुर्वेद (5.32) में कथन है :
हव्यसूदन ऋतधामासि स्वर्ज्योतिः।'
ऋतधामा रुद्रसावर्णि मनु के काल में इन्द्र होगा; यह भागवत (8.13.28) में कहा गया है :
भविता रुद्रसावर्णिः राजन् द्वादशमो मनुः। ऋतधामा च देवेन्द्रो देवाश्च हरितादयः।।
ऋत्विक् (ऋत्विज्)
जो ऋतु में यज्ञ करता है, याज्ञिक, पुरोहित। मनु (2.143) में कथन है :
अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान्। यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते।।
[अग्नि की स्थापना, पाकयज्ञ, अग्निष्टोम आदि यज्ञ जो यजमान के लिए करता है वह उसका ऋत्विक् कहा जाता है।] उसके पर्याय हैं-- (1) याजक, (2) भरत, (3) कुरु, (4) वाग्यत, (5) वृक्तवर्हिष (6) यतश्रुच, (7) मरुत्, (8) सबाध और (9) देवयव।
यज्ञकार्य में योगदान करने वाले सभी पुरोहित ब्राह्मण होते हैं। पुरातन श्रौत यज्ञों में कार्य करने वालों की निश्चित संख्या सात होती थी। ऋग्वेद की एक पुरानी तालिका में इन्हें होता, पोता, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रशास्ता, अध्वर्यु और ब्रह्मा कहा गया है। सातों में प्रधान 'होता' माना जाता था जो ऋचाओं का गान करता था। वह प्रारम्भिक काल में ऋचाओं की रचना भी (ऊह विधि से) करता था। अध्वर्यु सभी यज्ञकार्य (हाथ से किये जाने वाले) करता था। उसकी सहायता मुख्य रूप से आग्नीध्र करता था, ये ही दोनों छोटे यज्ञों को स्वतन्त्र रूप से कराते थे। प्रशास्ता जिसे उपवक्ता तथा मैत्रावरुण भी कहते हैं, केवल बड़े यज्ञों में भाग लेता था और होता को परामर्श देता था। कुछ प्रार्थनाएँ इसके अधीन होती थीं। पोता, नेष्टा एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध सोमयज्ञों से था। बाद में ब्रह्मा को ब्राह्मणाच्छंसी कहने लगे जो यज्ञों में निरीक्षक का कार्य करने लगा।
ऋग्वेद में वर्णित दूसरे पुरोहित साम गान करते थे। उद्गाता तथा उसके सहायक प्रस्तोता एवं दूसरे सहायक प्रतिहर्ता के कार्य यज्ञों के परवर्ती काल की याद दिलाते हैं। ब्राह्मण काल में यज्ञों का रूप जब और भी विकसित एवं जटिल हुआ तब सोलह पुरोहित होने लगे, जिनमें नये ऋत्विक् थे अच्छावाक्, ग्रावस्तुत्, उन्नेता तथा सुब्रह्मण्य, जो औपचारिक तथा कार्यविधि के अनुसार चार-चार भागों में बटे हुए थे- होता, मैत्रावरुण, अच्छावाक्, तथा ग्रावस्तुत्; उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता तथा सुब्रह्मण्य; अध्वर्यु, प्रतिस्थाता, नेष्टा तथा उन्नेता और ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध्र तथा पोता।
इनके अतिरिक्त एक पुरोहित और होता था जो राजा के सभी धार्मिक कर्तव्यों का आध्यात्मिक परामर्शदाता था। यह पुरोहित बड़े यज्ञों में ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करता था तथा सभी याज्ञिक कार्यों का मुख्य निरीक्षक होता था। यह पुरोहित प्रारंभिक काल में होता होता था तथा सर्वप्रथम मन्त्रों का गान करता था। पश्चात् यही ब्रह्मा का स्थान लेकर यज्ञनिरीक्षक का कार्य करने लगा।
ऋतुमती
ऋतुचक्र स्त्री। उसके पर्याय हैं (1) रजस्वला, (2) स्त्रीधर्मिणी, (3) अवी, (4) आत्रेयी, (5) मलिनी, (6) पुष्पवती और (7) उदक्या। धर्मशास्त्र में ऋतुमती के कर्तव्यों का वर्णन है। उसे इस काल में सब कार्यों से अलग होकर एकान्त में रहना चाहिए। पति के लिए भी यह नियम है कि वह प्रथम चार दिन पत्नी का स्पर्श न करे। पत्नी का यह कर्तव्य है कि वह स्नान के पश्चात् पति की कामना करे। पति के लिए ऋतुकाल के चार दिन बाद पत्नी के पास जाना अनिवार्य है :