रजस्वला स्त्री का चौथे दिन किया जाने वाला स्नान। इस स्नान के पश्चात् पति का मुख देखना चाहिए। पति के समीप न होने पर पति का मन में ध्यान करके सूर्य का दर्शन कर लेना चाहिए ऐसा धर्मशास्त्र में विधान है।
ऋतुव्रत
हेमाद्रि, व्रतखण्ड (2.858-861) में पाँच ऋतुव्रतों का उल्लेख है जिनका निर्देश यथा स्थान कियां गया है।
ऋभु
उच्च देव, वायुस्थानीय देवगण। ऋग्वेद (9.21.6) में कथन है :
ऋभुर्न रथ्यं नवं दधतो केतुमादिशे।'
महाभारत के वनपर्व में ऋभुओं को देवताओं का भी देवता कहा गया है :
ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः। तेषां लोकाः परतरे यान्यजन्तीह देवताः।।
[ऋभु देवताओं के भी देव हैं। उनके लोक बहुत परे हैं, जिनके लिए यहाँ देवता लोग यज्ञ करते हैं।]
ऋष्यशृङ्ग
विभाण्डक ऋषि के पुत्र, एक ऋषि। उनकी पत्नी राजा लोमपाद की कन्या शान्ता थी।
वीर शैव या लिङ्गायतों के ऋष्यशृंङ्ग नामक एक प्राचीन आचार्य भी थे।
ऋषभध्वज
शिव का एक पर्याय, उनकी ध्वजा में ऋषभ (बैल) का चिह्न रहता है।
ऋषि
वेद; ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला। जो ज्ञान के द्वारा मन्त्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है वह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं-- (1) व्यास आदि महर्षि, (2) भेल आदि परमर्षि, (3) कण्व आदि देवर्षि, (4) वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि, (5) सुश्रुत आदि श्रुतर्षि, (6) ऋतुपर्ण आदि राजर्षि, (7) जैमिनि आदि काण्डर्षि। रत्नकोष में भी कहा गया है:
[ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं।]
सामान्यतः वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे (ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः)। ऋग्वेद में प्रायः पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषिपरिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही। ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्रायः त्वष्टा से की गयी है जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे। निस्सन्देह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रान्त लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हे राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। साधारण मन्त्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मन्त्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।
परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं के साक्षात्कार करने वाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ। प्रत्येक वैदिक सूक्त के उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है। ऋषिगण पवित्र पूर्व काल के प्रतिनिधि हैं तथा साधु माने गये हैं। उनके कार्यों को देवताओं के कार्य के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उन्हें सात के दल में उल्लिखित किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में उनके नाम गोतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप एवं अत्रि बताये गये हैं। ऋग्वेद में कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक्, वसिष्ठ, व्यश्व तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं। अथर्ववेद में और भी बड़ी तालिका है, जिसमें अङ्गिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप , वसिष्ठ, भरद्वाज, गविष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवन्त, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उशना काव्य, गोतम तथा मुद्गल के नाम सम्मिलित हैं।
वैदिक काल में कवियों की प्रतियोगिता का भी प्रचलन था। अश्वमेघ यज्ञ के एक मुख्य अङ्ग 'ब्रह्मोद्य' (समस्या पूर्ति) का यह एक अङ्ग था। उपनिषद्-काल में भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही। इस कार्य में सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवल्क्य जो विदेह राजा जनक की राजसभा में रहते थे।
ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्षेय कहा जाता है। यह विश्वास है कि कलियुग में ऋषि नहीं होते, अतः इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है और न नयी स्मृतियों की रचना। उनकी रचनाओं का केवल अनुवाद, भाष्य और टीका ही सम्भव हैं।
ऋषिकुल्या
एक पवित्र नदी। महाभारत (तीर्थयात्रा पर्व, 3.84.46) में इसका उल्लेख है :
[मनुष्य ऋषिकुल्या नदी में स्नान कर पापरहित होकर तथा देवताओं और पितरों का पूजन करके ऋषिलोक को प्राप्त होता है।]
ऋषिकेश
दे० 'हृषीकेश'।
ऋषिपञ्चमी व्रत
ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार ऋषिपञ्चमी का वर्णन करते हुए हेमाद्रि कहते हैं कि यह व्रत भाद्र शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है। यह सभी वर्णों के लिए है, किन्तु प्रायः स्त्रियाँ ही यह व्रत वर्ष भर की अपवित्रता एवं छूत के प्रायश्चित्तार्थ करती हैं। नदी के स्नानोपरान्त व्रत करने वाले को दैनिक कर्त्तव्यों से मुक्त हो अग्निहोत्रमण्डप में आना चाहिए, वहाँ सप्तर्षियों की कुश से बनी मूर्ति को पञ्चामृत में नहलाना चाहिए, फिर उन्हें चन्दन तथा कपूर लगाना चाहिए। उनकी पूजा फूल, सुगन्धित पदार्थ, धूप, दीप, श्वेतवस्त्र, यज्ञोपवीत, नैवेद्य से करके अर्घ्य देना चाहिए। इस व्रत को करने से सभी पापों से मुक्ति, तीनों प्रकार की बाधाओं से त्राण तथा भाग्योदय होता है। इस व्रत को करनेवाली स्त्री आनन्दोपभोग व सुन्दर शरीर, पुत्र, पौत्र आदि प्राप्त करती है।
ऋष्यमूक पर्वत
रामायण की घटनाओं से सम्बद्ध दक्षिण भारत का पवित्र गिरि। विरूपाक्ष मन्दिर के पास से ऋष्यमूक तक मार्ग जाता है। यहाँ तुङ्गभद्रा नदी धनुषाकार बहती है। नदी में चक्रतीर्थ माना जाता है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराममन्दिर है। पास की पहाड़ी को 'मतङ्ग पर्वत' मानते हैं। इसी पर्वत पर मतङ्ग ऋषि का आश्रम था। पास ही चित्रकूट और जालेन्द्र नाम के शिखर हैं। यही तुङ्गभद्रा के उस पार दुन्दुभि पर्वत दीख पड़ता है, जिसके सहारे सुग्रीव ने श्री राम के बल की परीक्षा करायी थी। इन स्थानों में स्नान-ध्यान करने का विशेष महत्त्व है।