शीघ्र गति और सन्नद्धता के लिए पहना गया जाँघिया, जो सिक्खों के लिए आवश्यक है। गुरु गोविन्दसिंह ने मुगल साम्राज्य से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली सेना बनायी। अपने सैनिकों पर पूर्णरूप से धार्मिक प्रभाव डालने के लिए उन्होंने अपने हाथ से उन्हें 'खड्ग दी पहुल' तलवार का धर्म दिया तथा उनसे बहुत सी प्रतिज्ञाएँ करायीं। इन प्रतिज्ञाओं में 'क' से प्रारम्भ होने वाले पाँच पहनावों का ग्रहण करना भी था। कच्छ (कच्छा) उन पाँचों में से एक है। पाँच पहनावे हैं-- कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश एवं कंघा।
कज्जली
भाद्र कृष्ण तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णुपूजा का विधान है। निर्णयसिन्धु के अनुसार यह मध्य देश (बनारस, प्रयाग आदि) में अत्यन्त प्रसिद्ध है।
कठरुद्रोपनिषद्
उत्तरकालीन एक उपनिषद्। जैसा कि नाम से प्रकट है, यह कठशाखा तथा रुद्र देवता से सम्बद्ध उपनिषद् है। इसमें रुद्र की महिमा तथा आराधाना बतलायी गयी है।
कठश्रुति उपनिषद्
यह संन्यासमार्गीय एक उपनिषद् है। इसका रचनाकाल मैत्रायणी उपनिषद् के लगभग है।
कठोपनिषद्
कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत यह उपनिषद् है। इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं। इसके विषय का प्रारम्भ उद्दालकपुत्र वाजश्रवस ऋषि के विश्वजित् यज्ञ के साथ होता है। इसमें नचिकेता की प्रसिद्ध कथा है, जिसमें श्रेय और प्रेय का विवेचन किया गया है। नचिकेता ने यमराज से तीन वर माँगे थे, जिनमें तीसरा ब्रह्मज्ञान का वर था। यमराज द्वारा नचिकेता के प्रति वर्णित ब्रह्मविद्या का उपदेश इसका प्रतिपाद्य मुख्य विषय है।
कण्टकोद्धार
आचार्य रामानुज (विक्रमाब्द प्रायः 1194) ने अपने मत की पुष्टि, प्रचार एवं शाङ्करमत के खण्डन के लिए अनेकों ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से 'कण्टकोद्धार' भी एक है। इसमें अद्वैतमत का निराकरण करके विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है।
कटदानोत्सव
यह उत्सव भाद्रपद शुक्ल एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा को जब भगवान्, विष्णु दो मास के और शयन के लिए करवट बदलते हैं, मनाया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.813; स्मृतिकौस्तुभ, 153।
कणाद
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ऋषि। इनका वैशेषिकसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। प्रशस्तपाद का 'पदार्थधर्मसंग्रह' नामक ग्रन्थ ही वैशेषिक दर्शन का भाष्य कहलाता है। परन्तु यह भाष्य नहीं है और सूत्रों के आधार पर प्रणीत स्वतन्त्र ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ में कणाद ने धर्म का लक्षण इस प्रकार बतलाया है :
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।'
[जिससे अभ्युदय (ऐहलौकिक सुख) तथा निःश्रेयस (पारमार्थिक मोक्ष) की सिद्धि हो वह धर्म है।]
इसके पश्चात् सब पदार्थों के प्रकार, लक्षण तथा स्वरूप का परिचय दिया गया है। उनके मतानुसार नाना भेदों से भिन्न अनन्त पदार्थ हैं। इन समस्त पदार्थों की अवगति हजार युग बीत जाने पर भी एक-एक को पकड़कर नहीं हो सकती। अतः श्रेणीविभाग द्वारा विश्व के सभी पदार्थों का ज्ञान इस दर्शन के द्वारा कराया गया है। इसमें विशेषताओं के आधार पर पदार्थों का वर्णन किया गया है, अतः इसका नाम वैशेषिक दर्शन है।
प्रसिद्ध है कि कश्यप गोत्र के ऋषि कणाद ने उग्र तप किया और इन्होंने शिलोञ्छ बीनकर अपना जीवन बिताया इसीलिए ये कणाद (कण= दाना खाने वाले) कहलाये। अथवा कण= अणु के सिद्धान्तप्रवर्तक होने से ये कणाद कहे गये। इनके शुद्ध अन्तःकरण में इसीलिए पदार्थों के तत्त्वज्ञान का उदय हुआ।
कणाद ने प्रमेय के विस्तार के साथ अपने सूत्रों में आत्मा और अनात्मा पदार्थों का विवेचन किया है। परन्तु शास्त्रार्थ की विधि और प्रमाणों के विस्तार के साथ इन वस्तुओं के विवेचन की आवश्यकता थी। इसकी पूर्ति गौतम के 'न्यायदर्शन' में की गयी है। दे० 'वैशिषिक दर्शन'।
कण्व
ऋग्वेद के प्रथम सात मण्डलों के सात प्रमुख ऋषियों में कण्व का नाम आता है। आठवें मण्डल की ऋचाओं की रचना भी कण्व परिवार की ही है, जो पहले मण्डल के रचयिता हैं।
ऋग्वेद तथा परवर्त्ती साहित्य (ऋ० 1.36,8,10,11,17,19,39,7,9; 47,5; 112M5; 117,8; 118,7; 139,9; 5.41,4; 8.5,23,25; 7-18; 8, 20; 49, 10; 50, 10; 10. 71, 11; 115,5; 150,5; अथर्व वेद 4.37,1; 7. 15, 1; 18.3,15; वाजसनेयी सं० 17.74; पञ्चविंश ब्रा० 8.2,2; 9.2,9; कौ० ब्रा० 28.8) में कण्व का नाम बार-बार आता है। उनके पुत्र तथा वंशजों का उद्धरण, विशेष कर ऋग्वेद के आठवें मण्डल में कण्वाः, कण्वस्य सूनवः, काण्वायनाः एवं काण्व नामों से आया है। कण्व के एक वंशज का एकवचन में अकेले वा पैतृक पदवी के साथ 'कण्व नार्षद' (ऋ० 1.48, 4; 8.34, 1) रूप में तथा 'कण्व-श्रायस' (तैत्ति० सं० 5.4,7,5; काठक सं० 21.8, मैत्रा० सं० 3.3,9) के रूप में तथा बहुवचन में 'कण्वाः सौश्रवसः' के रूप में उद्धरण है। कण्वपरिवार का अत्रिपरिवार से सम्बन्ध प्रतीत होता है, किन्तु विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं। अथर्ववेद के एक परिच्छेद में दोनों परिवारों में प्रतियोगिता परिलक्षित है (अ० 2.25)।
कण्वाश्रम
बिजनौर जिले के अन्तर्गत अथवा मतान्तर से कोटद्द्वार से छः मील दूर मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम है। दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन यहाँ हुआ था।