प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ। इसका प्रचार बङ्गाल की ओर है, इसको 'कातन्त्र व्याकरण' भी कहते हैं। कलाप व्याकरण के आधार पर अनेक व्याकरण ग्रन्थ बने हैं, जो बङ्गाल में प्रचलित हैं। बौद्धों में इस व्याकरण का अधिक प्रचार था, इसीलिए इसकों 'कातन्त्र' (कुत्सित ग्रन्थ) ईर्ष्यावश कहा गया है, अथवा कार्तिकेय के वाहन कलापी (मोर पक्षी) ने इसको प्रकट किया था इससे भी इसका 'कातन्त्र' नाम चल पड़ा।
कलापी
पाणिनि के सूत्रों में जिन वैयाकरणों का उल्लेख किया गया है, उनमें कलापी (4.3.104) भी एक है।
कल्लिनाथ
गान्धर्व वेद (संगीत) के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं; सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ। इनमें से कइयों के शास्त्रीय ग्रन्थ मिलते हैं।
कवच
देवपूजा के प्रमुख पंचाग स्तोत्रों में प्रथम अंग (अन्य चार अंग अर्गला, कीलक, सहस्रनाम आदि हैं)। स्मार्तों के गृहों में देवी की दक्षिणमार्गी पूजा की सबसे महत्वपूर्ण स्तुति चण्डीपाठ है जिसे दुर्गासप्तशती भी कहते हैं। इसके पूर्व एवं पीछे दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पाठ होता है। ये कवच कीलक एवं अर्गलास्तोत्र, हैं, जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण से लिये गये हैं। कवच में कुल 50 पद्य हैं तथा कीलक में 14। इसमें शस्त्ररक्षक लोहकवच के तुल्य ही शरीर के अंगों की रक्षात्मक प्रार्थना की गयी है।
किसी धातु की छोठी डिबिया को भी कवच कहते हैं, जिसमें भूर्जपत्र पर लिखा हुआ कोई तान्त्रिक यन्त्र या मन्त्र बन्द रहता है। पृथक्-पृथक् देवता तथा उद्देश्य के पृथक्-पथक् कवच होते हैं। इसको गले अथवा बाँह में रक्षार्थ बाँधते हैं। मलमासतत्त्व में कहा है :
यथा शस्त्रप्रहाराणां कवचं प्रतिवारणम्। तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम्।।
[जैसे शस्त्र के प्रहार से चर्म अथवा धातु का बना हुआ कवच (ढाल) रक्षा करता है, उसी प्रकार दैवी आघात से (यान्त्रिक शान्ति) कवच रक्षा करता है।]
कवि कर्णपूर
वंगदेशीय भक्त कवि। सन् 1570 के आसपास बङ्गाल में धार्मिक साहित्य के सर्जन की ओर विद्वानों की अधिक रुचि थी। इसी समय चैतन्य महाप्रभु के जीवन पर लगभग पाँच विशिष्ट ग्रन्थ लिखे गये; दो संस्कृत तथा शेष बँगला में। इनमें पहला है संस्कृत नाटक 'चैतन्यचन्द्रोदय' जिसकी रचना कवि कर्णपूर ने की थी। इसमें चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का काव्यमय विवेचन है।
कवितावली
सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कविताबद्ध श्रीराम की कथा, जो कवित और सवैया छन्दों में है। इसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास हैं। भक्ति भावना से भीना हुआ यह व्रजभाषा का ललित काव्य है।
कवीन्द्राचार्य
शतपथ ब्राह्मण के तीन भाष्यकारों में से एक कवीन्द्राचार्य भी हैं।
कश्मीरशैवमत
शैवमत की एक प्रसिद्ध शाखा कश्मीरी शैवों की है। यहाँ 'शैव आगमों' को शिवोक्त समझा गया एवं इन शैवों का यही धार्मिक आधार बन गया। 850 ई. के लगभग 'शिवसूत्रों' को रहस्यमय एवं नये शब्दों में शिवोक्त ठहराया गया एवं इससे प्रेरित हो दार्शनिक साहित्य की एक परम्परा यहाँ स्थापित हो गयी, जो लगभग तीन शताब्दियों तक चलती रही। 'शिवसूत्र' एवं 'स्पन्दकारिका' जो यहाँ के शैवमत के आधार थे, प्रायः दैनिक चरितावली पर ही विशेष रूप से प्रकाश डालते हैं। किन्तु 900 ई० के लगभग सोमानन्द की 'शिवदृष्टि' ने सम्प्रदाय के लिए एक दार्शनिक रूप उपस्थित किया। यह दर्शन अद्वैतवादी है एवं इसमें मोक्ष प्रत्यभिज्ञा (शिव से एकाकार होने के ज्ञान) पर ही आधारित है। फिर भी विश्व को केवल माया नहीं बताया गया, इसे शक्ति के माध्यम से शिव का आभास कहा गया है। विश्व का विकास सांख्य दर्शन के ढंग का ही है, किन्तु इसकी बहुत कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। यह प्रणाली 'त्रिक' कहलाती है, क्योंकि इसके तीन सिद्धान्त हैं----शिव, शक्ति एवं अणु; अथवा पति, पाश एवं पशु। इसका सारांश माधवकृत ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ अथवा चटर्जी के ‘कश्मीर शैवमत’ में प्राप्त हो सकता है। आगमों की शिक्षाओं से भी यह अधिक अद्वैतवादी है, जबकि नये साहित्यिक इसे आगमों के अनुकूल सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। इस मत परिवर्तन का क्या कारण हो सकता है? आचार्य शङ्कर ने अपनी दिग्विजय के समय कश्मीर भ्रमण किया था, इसलिए हो सकता है कि उन्होंने वहाँ के शैव आचार्यों को अद्वैतवाद के पक्ष में लाने का उपक्रम किया हो!
कश्यप
प्राचीन वैदिक ऋषियों में प्रमुख ऋषि, जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एवं रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एवं अति प्राचीन कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार इन्होंने `विश्वकर्मभौवन` नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मण में कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है : `स यत्कूर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत्। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः।`
महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति एवं वंशावली के वर्णन में कहा गया है कि ब्रह्मा के छः मानस पुत्रों में से एक 'मरीचि' थे जिन्होंने अपनी इच्छा से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया। कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हुई उसका विवरण निम्नांकित है :
1. अदिति से आदित्य (देवता) 2. दिति से दैत्य 3. दनु से दानव 4. काष्ठा से अश्वादि, 5. अनिष्टा से गन्धर्व 6. सुरसा से राक्षस 7. इला से वृक्ष 8. मुनि से अप्सरागण 9. क्रोधवशा से सर्प 10. सुरभि से गौ और महिष 11. सरमा से श्वापद (हिंस्र पशु) 12. ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि 13. तिमि से यादोगण (जलजन्तु) 14. विनता से गरुड और अरुण 15. कद्रू से नाग 16. पतङ्गी से पतङ्ग 17. यामिनी से शलभ।
दे० भागवत पुराण। मार्कण्डेय पुराण (104.3) के अनुसार कश्यप की तेरह भार्याएँ थीं। उनके नाम हैं-- 1. दिति, 2. अदिति, 3. दनु, 4. विनता, 5. खसा, 6. कद्रु, 7. मुनि, 8. क्रोधा, 9. रिष्टा, 10. इरा, 11. ताम्रा, 12. इला और 13. प्रधा। इन्हीं से सब सृष्टि हुई।
कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई।
काँगड़ा
हिमाचल प्रदेश का एक शक्तिपीठ, जो पठानकोट से 59 मील पर काँगड़ा और उससे एक मील आगे काँगड़ामन्दिर स्टेशन के समीप है। रास्ता मोटरबस और पैदल दोनों है। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएँ हैं। यहाँ पर ज्वालामुखी या ज्वालाजी के नाम से दुर्गा महामाया का मन्दिर है। दोनों नवरात्रों में मेला लगता है। प्राकृतिक अग्निज्वालाओं के रूप में देवीजी दर्शन देती हैं।