logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

असुनीति
असु= प्राण या जीवन की नीति =मार्गदर्शक उक्ति। ऋग्वेद (10.59.56) में असुनीति को मनुष्य की मृत्यु पर आत्मा की पथप्रदर्शक माना गया है। असुनीति की स्तुतियों से स्पष्टतया प्रकट होता है कि वे या तो इस लोक में शारीरिक स्वास्थ्य कामनार्थ अथवा स्वर्ग में शरीर एवं इसके दूसरे सुखों की प्राप्ति के लिए की गयी हैं।

असुर
असु =प्राण, र= वाला (प्राणवान् अथवा शक्तिमान्)। बाद में धीरे-धीरे यह भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिससे उनके रहस्यमय गुणों का पता लगता है। किन्तु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। असुर देवों के बड़े भ्राता हैं एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं। असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और प्रायः विजयी होते रहे। उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें दुष्ट दैत्य कहा गया है, किन्तु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भृगुपुत्र शुक्र थे जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।
महाभारत एवं प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं। कथासरित्सागर की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेमपूर्ण कथा में किसी असुर का वर्ण नायक के साथ हुआ है। संस्कृत के धार्मिक ग्रन्थों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अन्तर नहीं दिखाया गया है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था मैं 'दैत्य एवं दानव' असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे। दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव 'दनु' पुत्र थे।
देवताओं के प्रतिद्वन्द्वी रूप में 'असुर' का अर्थ होगा--जो सुर नहीं है (विरोध में नञ्-तत्पुरुष); अथवा जिसके पास सुरा नहीं है; जो प्रकाशित करता है (सूर्य, उरन् प्रत्यय। सुरविरोधी। उनके पर्याय हैं :
(1) दैत्य, (2) दैतेय, (3) दनुज, (4) इन्द्रारि, (5) दानव, (6) शुक्रशिष्य, (7) दितिसुत, (8) पूर्वदेव, (9) सुरद्विट्, (10) देवरिपु, (11) देवारि।
रामायण में असुर की उत्पत्ति और प्रकार से बतायी गयी है :
सुराप्रतिग्रहाद् देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः। अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृताः।।
[सुरा= मादक तत्त्व का उपयोग करने के कारण देवता लोग सुर कहलाये, किन्तु ऐसा न करने से दैतेय लोग असुर कहलाये।]

असुविद्या
शाङ्खायन एवं आश्वलायन श्रौत-सूत्रों में असुरविद्या को शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्त 'माया' के अर्थ में लिया गया है। इसका प्रचलित अर्थ 'जादूगरी' है। परन्तु आश्चर्यजनक सभी भौतिक विद्याओं का समावेश इसमें हो सकता है। आसुरी (शुद्ध भौतिक) प्रवृत्ति से उत्पन्न सभी ज्ञान-विज्ञान असुरविद्या हैं। इसमें सुरविद्या अथवा दैवी विद्या (आध्यात्मिकता) को स्थान नहीं है।

अस्थिकुण्ड
हड्डियों से भरा एक नरक। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय 27) में कहा गया है :
पितृणां यो विष्णुपदे पिण्डं नैव ददाति च। स च तिष्ठत्यस्थिकुण्डे स्वलोमाब्दं महेश्वरि।।
[हे पार्वति, जो विष्णुपद (गया) में पिता-प्रपितामहों को पिण्ड नहीं देता है वह व्यक्ति अपने रोमों के बराबर वर्षों तक अस्थिकुण्ड नामक नरक में रहता है।]

अस्थिधन्वा
हड्डियों से बना धनुष धारण करने वाला, शंकर। महर्षि दधीचि की हड्डियों से तीन धनुष बने, उनमें से शिव के लिए निर्मित धनुष का नाम 'पिनाक' था।

अस्थिमाली
हड्डियों (मुण्डों) की माला पहनने वाला। शंकर। दे० शिवशतक।

अस्पृहा
इच्छा या लालसा न होना, वितृष्णा। एकादशीतत्त्व में कथन है :
यथोत्पन्नेन सन्तोषः कर्तव्योऽत्यल्पवस्तुना। परस्याचिन्तयित्वार्थ सास्पृहा परिकीर्तिता।।
[मनुष्य को अत्यन्त स्वल्प वस्तु से संन्तोष कर लेना चाहिए। दूसरे के धन की कामना नहीं करनी चाहिए। उसे (इस स्थिति को) अस्पृहा कहा गया है।]

अस्वाध्याय
जिस काल में वेदाध्ययन नहीं होता। विधिपूर्वक वेद-अध्ययन न होना। अध्ययन के लिए निषिद्ध दिन। यथा, ग्रहणों का दिन। धर्मसूत्रों और स्मृतियों में अस्वाध्याय (अनध्याय) की लम्बी सूचियाँ दी हुई हैं। तदनुसार यदि सूर्य ग्रस्त दशा में अस्त हो जाय तो तीन दिन अनध्याय, अन्यथा एक दिन। सन्ध्या को मेघ गर्जन में एक दिन। माघ महीने से लेकर चार महीनों तक केवल मेघ गर्जन के दिन में। भूकम्प होने पर एक दिन। उल्कापात में एक दिन। महा-उल्कापात होने पर अकालिक अनध्याय। एक वेद समाप्ति के पश्चात् एक दिन। आरण्‍यक भाग की समाप्ति के पश्‍चात् एक दिन। पाँच वर्षों तक अध्ययन के बाद पाँच दिन। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, श्रावण शुक्ल प्रतिपदा तथा आग्रहायण शुक्ल प्रतिपाद को एक दिन। ये प्रतिपदाएँ नित्य हैं। अन्य प्रतिपदाओं में इच्छानुसार अध्ययन किया जा सकता है। चौदह मन्वन्तर की चौदह तिथियों, चार युगों के आदि चार दिनों ('मन्वादि' तथा 'युगादि' तिथि) तथा माघ के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन। चैत्र कृष्णपक्ष की द्वितीया को केवल एक दिन। कार्तिक के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन। अगहन महीने के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन। फाल्गुन महीने के दोनों पक्ष की द्वितीया को दो दिन अनध्याय होता है। सभी उत्‍सव दिनों में और अक्षय तृतीया को भी अस्वाध्याय होता है।

अस्वामिक
जिसका उत्तराधिकारी कोई न हो। स्वामिरहित वस्तु। अकर्तृक। यम ने कहा है :
अटव्यः पर्वताः पुण्या नद्यस्तीर्थानि यानि च। सर्वाण्यस्वामिकान्याहुर्न हि तेषु परिग्रहः।।
[अटवी, पर्वत, पुण्य नदी, जो भी तीर्थ स्थान हैं इन सबको अस्वामिक कहा गया है। इनका दान नहीं किया जा सकता।]
पुण्य' इस विशेषण से अटवी नैमिषारण्य आदि; पर्वत हिमालय आदि; नदी गङ्गा आदि; तीर्थ पुरुषोत्तम आदि; क्षेत्र वाराणसी आदि आते हैं। स्वामी (मालिक) के अभाव में इनका परिग्रह (कब्जा) नहीं किया जा सकता।

अस्वामिविक्रय
अनधिकारी के द्वारा किया गया विक्रय। अस्वामिकर्तृक विक्रय। अस्वामिविक्रय नामक व्यवहार-पद (अभियोग, मुकदमा) का लक्षण नारद ने कहा है :
निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लब्ध्वापहृत्य च। विक्रीयतेऽसमक्षं यत्स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः।।
[गिरवी रखा हुआ दूसरे का धन, गिरा हुआ प्राप्त धन, अपहरण किया हुआ धन; इस प्रकार का धन यदि उसके स्वामी के समक्ष नहीं बेचा जाता तो उसे 'अस्वामिविक्रय' कहते हैं।]


logo