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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

इरावती
भारत की देवनदियों में इसकी गणना है :
विपाशा च शतुद्रुश्च चन्द्रभागा सरस्वती। इरावती वितस्ता च सिन्धुर्देवनदी तथा।। (महाभारत)
[विपाशा (व्यास), शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा (चिनाव), सरस्वती (सरसुती), इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम) तथा सिन्धु (अपने नाम से अब भी प्रसिद्ध) ये देवनदियाँ हैं।]

इल
दे० 'उमावन'।

इला
पौराणिक कथा के अनुसार इला मूलतः मनु का पुत्र इल था। इल भूल से इलावर्त में भ्रमण करते हुए शिवजी के काम्यकवन में चला गया। शिवजी ने शाप दिया था कि जो पुरुष काम्यकवन में आयेगा वह स्त्री हो जायगा। अतः इल स्त्री इला में परिवर्तित हो गया। इला का विवाह सोम (चन्द्रमा) के पुत्र बुध से हुआ। इस सम्बन्ध से पुरूरवा का जन्म हुआ, जो ऐल कहलाया। इससे ऐल अथवा चन्द्रवंश की परम्परा आरम्भ हुई, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (वर्तमान झूसी, अरैल, प्रयाग) थी। विष्णु की कृपा से इला पुनः पुरुष हो गयी जिसका नाम सुद्युम्न था।

इलावृत (इलावर्त)
इसका शाब्दिक अर्थ है इला के आवर्तन (परिभ्रमण) का स्थान। यह जम्बू द्वीप के नव वर्षों (देशों) के अन्तर्गत एक वर्ष है जो सुमेरु पर्वत (पामीर) को घेर कर स्थित है। इसके उत्तर में नील पर्वत, दक्षिण में निषध, पश्चिम में माल्यवान् तथा पूर्व में गन्धमादन पवर्त है (दे० भागवतपुराण)। अग्नीध्र (पञ्चाल के राजा) के प्रसिद्ध पुत्र का नाम भी इलावृत था, जिसको पिता से राज्य रिक्थ में मिला। दे० विष्णुपुराण, 2. 1.16-18।

इल्वल
सिंहिका का पुत्र एक दैत्य, जो वातापी का भाई था। यह ब्राह्मणों का विनाश करने के लिए अपने भाई वातापी को मायारूपी मेष (भेड़) बनाकर और ब्राह्मणों को भोज में निमन्त्रण देकर खिला देता था। पुनः वातापी को बुलाता था। वातापी उनका पेट फाड़कर निकल आता था। इससे सहस्रों ब्राह्मणों की मृत्यु हुई। अगस्त्य ऋषि को अपने पितरों की इस दशा से बहुत कष्ट हुआ। वे उस दिशा को गये (दे० 'अगस्ति')। इल्वल ने उनको भी निमन्त्रण दिया और वातापी को मेष बनाकर उसका मांस उनको खिलाया। उसके बाद उसने वातापी को पुकारा। किन्तु अगस्त्य के पेट से केवल अपना वायु निकला। उन्होंने हँसते हुए कहा कि वातापी तो जीर्ण (पक्व) हो गया; अब निकल नहीं सकता। दे० महाभारत, वनपर्व, अगस्त्योपाख्यान, 96 अध्याय।

इष्ट
वेदी या मण्डप के अन्दर करने लायक धार्मिक कर्म; होम यज्ञ; अभीष्ट देवता, आराधित देवता; किसी घटना का घड़ी-पलों में निर्धारित समय। दे० 'यज्ञ'

इष्टजात्यवाप्ति
विष्णुधर्मोत्तर (3.200.1-5) के अनुसार इस व्रत का अनुष्ठान चैत्र तथा कार्तिक के प्रारम्भ में करना चाहिए, ऋग्वेद के दशम मण्डल के 90.1-16 मन्त्रों से हरि का षोडशोपचार के साथ पूजन होना चाहिए। व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है।

इष्टसिद्धि
इस नाम के दो ग्रन्थों का पता चलता है। प्रथम सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र कृत है, जिसको उन्होंने संन्यास लेने के पश्चात् लिखा और जिसमें शाङ्कर मत का ही समर्थन है। द्वितीय, अविमुक्तात्मा द्वारा कृत है, जिसमें शब्दाद्वैत मत का उल्लेख मिलता है।

इष्टापूर्त
धार्मिक कर्मों के दो प्रमुख विभाग हैं--(1) इष्ट और (2) पूर्त। इष्ट का सम्बन्ध यज्ञादि कृत्यों से हैं, जिनका फल अदृष्ट है। पूर्त का सम्बन्ध लोकोपकारी कार्यों से है, जिनका फल दृष्ट है। मलमासतत्त्व में उद्धृत जातूकर्ण्य का कथन है :
अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानाञ्चानुपालनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवञ्च इष्टमित्यभिधीयते।। वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामः पूर्तमित्यभिधीयते।।
[अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदों के आदेशों का पालन, आतिथ्य, वैश्‍वदेव (आदि) इष्ट कहलाते हैं। वापी, कूप, तडाग, धर्मशाला, पाठशाला, देवालयों का निर्माण, अन्न का दान, आराम (बाटिका आदि का लगवाना) को पूर्त कहा जाता है।]

इष्टिका
आजकल की 'ईंट'। वास्तव में यह यज्ञ (इष्टि) वेदी के चयन (चुनाव) में काम आती थी, अतः इसका नाम इष्टिका पड़ गया। बाद में इससे गृहनिर्माण भी होने लगा। चाणक्य ने इष्टिकानिर्मित भवन का गुण इस प्रकार बतलाया है :
कूपोदकं वटच्छाया श्यामा स्त्री इष्टिकालयम्। शीतकाले भवेदुष्णमुष्णकाले तु शीतलम्।।
ईंटों से निर्मित स्थान में पितृकर्म का निषेध है। श्राद्धतत्‍त्व में उद्धृत शङ्खलिखित। इष्टिका (ईंट) द्वारा देवालयों के निर्माण का महाफल बतलाया गया है :
मृन्मयात्कोटिगुणितं फलं स्याद् दारुभिः कृते। कोटिकोटिगुणं पुण्यं फलं स्यादिष्टिकामये।। द्विपरार्ध गुणं पुण्यं शैलजे तु विदुर्बुधाः।। (प्रतिष्ठातत्त्व)


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