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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

उपदेशसाहस्री
शङ्कराचार्य द्वारा रचित अद्वैत वेदान्त का एक प्रधान ग्रन्थ। महात्मा रामतीर्थ ने इस ग्रन्थ पर 'पदयोजनिका' नामक टीका का निर्माण किया। शङ्कराचार्य के वेदान्त सम्बन्धी सिद्धान्तों का इसमें एक सहस्र श्लोकों में संक्षिप्त सार है।

उपदेशामृत
जीव गोस्वामी (सोलहवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न) द्वारा रचित ग्रन्थों में से एक। यह ग्रन्थ इनके अचिन्त्यभेदाभेदवाद (चैतन्यमत) के अनुसार लिखा गया है। ग्रन्थकर्ता प्रसिद्ध भक्त और गौड़ीय वैष्णवाचार्य रूप और सनातन गोस्वामी के भतीजे थे। चैतन्यदैव के अन्तर्धान के बाद जीव गोस्वामी वृन्दावन चले आये और यहीं पर इनकी प्रतिभा का विकास हुआ। फलतः इन्होंने भक्तिमार्ग के अनेक ग्रन्थ प्रस्तुत कर बंगाल में वैष्णव धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को उधर भेजा था।

उपदेष्टा
उपदेश देने वाला। यह गुरुवत् पूज्य है :
तथोपदेष्टारमपि पूजयेच्च ततो गुरुम्। न पूज्यते गुरुर्यत्र नरैस्तत्राफला क्रिया।। (बृहस्पति)
[उपदेशक गुरु की वैसी ही पूजा करनी चाहिए जैसे गुरु की। जहाँ मनुष्य गुरु की पूजा नहीं करते वहाँ क्रिया विफल होती है।]

उपधर्म
हीन धर्म अथवा पाखण्ड। मनुस्मृति (2.337) में कथन है :
एष धर्मः परः साक्षाद् उपधर्मोऽन्य उच्यते।
[यह साक्षात् परम धर्म है और अन्य (इससे विरुद्ध) उपधर्म कहा गया है।]

उपधा
राजाओं द्वारा गुप्त रूप से मन्त्रियों के चरित्र की परीक्षा। प्राचीन राजशास्त्र में उपधाशुद्ध मन्त्रीगण श्रेष्ठ या विश्वस्त माने जाते थे।

उपधि
छल, धोखा, कपट :
यत्र वाप्युपधिं पश्येत् तत्सर्वं विनिवर्तयेत्।' (मनु)
[जहाँ कपटपूर्वक कोई वस्तु बेची या दी गयी हो वह सब लौटवा देनी चाहिए।]
किरात० (1,45) में भी कहा गया है :
अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि।
[विजय का इच्छुक राजा कपटपूर्वक शत्रुओं के साथ की हुई सन्धि को भङ्ग कर देता है।]

उपनय
विशेष कर्मानुष्ठान के साथ गुरु के समीप में ले जाना। यथा :
गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गुरोः। बालो वेदाय तद्योगाद बालस्योपनयं विदूः।। (स्मृति)
[वेदज्ञान के लिए गृह्यसूत्र में कहे गये कर्म के द्वारा बालक को जो गुरु के पास लाया जाता है उसे उपनय कहते हैं।]
तर्कशास्त्र में हेतु के बल से किसी निश्चय पर पहुँचना भी उपनय कहलाता है।

उपनयन
एक धार्मिक कृत्य, जिसके द्वारा बालक को आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए ले जाते हैं। इसके कई पर्याय हैं-- (1) वटूकरण, (2) उपनाय, (3) उपनय, (4) आनय आदि। संसार की सभी जातियों में बालक को जाति की सांस्कृतिक सम्पत्ति में प्रवेश कराने के लिए कोई न कोई संस्कार होता है। हिन्दुओं में इसके लिए उपनयन संस्कार है। ऐसा माना जाता है कि इससे बालक का दूसरा जन्म होता है और इसके पश्चात् वह सूक्ष्म ज्ञान और संस्कार को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। माता-पिता से जन्म शारीरिक जन्म है। आचार्यकुल (गुरुकुल) में ज्ञानमय जन्म बौद्धिक जन्म है। मनुस्मृति (2.170) में कथन है :
तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जीबन्धनचिह्नितम्। तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते।।
[मूँज की करधनी से चिह्नित बालक का जो ब्रह्म-(ज्ञान) जन्म है, उसमें उसकी माता सावित्री (गायत्री मन्त्र) और पिता आचार्य कहा जाता है।] इस संस्कार से बालक 'द्विज' (दो जन्म वाला) होता है। जो जड़ता अथवा मूढ़ता से यह संस्कार नहीं कराता वह व्रात्य अथवा वृषल है।
उपनयन का उद्देश्य है बालक के ज्ञान, शौच और आचार का विकास करना। इस सम्बन्ध में याज्ञवल्क्यस्मृति (1.15) का कथन है :
उपनीय गुरुः शिष्यं माव्याहृतिपूर्वकम्। वेदमध्यापयेदेनं शौचाचारांश्च शिक्षयेत्।।
[गुरु को महाव्याहृति (भूः भुवः स्वः) के साथ शिष्य का उपनयन करके उसको वेदाध्ययन करना तथा शौच और आचार की शिक्षा देनी चाहिए।] विभिन्न वर्ण के बालकों के उपनयनार्थ विभिन्न आयु का विधान है; ब्राह्मणबालक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रियबालक का ग्यारहवें वर्ष में, वैश्यबालक का बारहवें वर्ष में होना चाहिए। दे० पारस्कारगृह्यसूत्र, 2.2; मनुस्मृति, 2.36; याज्ञवल्क्यस्मृति, 1.11। इस अवधि के अपवाद भी पाये जाते हैं। प्रतिभाशाली बालकों का उपनयन कम आयु में भी हो सकता है। ब्रह्मवर्चस् की कामना करने वाले ब्राह्मण बालक का उपनयन पाँचवें वर्ष में हो सकता है। उपनयन की अन्तिम अवधि ब्राह्मण बालक के लिए सोलह वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए बाईस वर्ष और वैश्य बालक के लिए चौबीस वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति निर्धारित अंतिम अवधि के पश्चात् भी अनुपनीत रह जाय तो वह सावित्रीपतित, आर्यधर्म से विगर्हित, व्रात्य हो जाता है। मनु (2.39) का कथन है :
अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः।।
परन्तु व्रात्य हो जाने के पश्चात् भी आर्य समाज (शिष्ट समाज) में लौटने का रास्ता बन्द नहीं हो जाता, व्रात्यस्तोम नामक प्रायश्चित करके पुन: उपनयनपूर्वक समाज में लौटने का विधान है :
तेषां संस्कारेप्सुर्व्रात्यस्तोमेनेष्ट्वा काममधीयीत। (पारस्करगृह्यसूत्र 2.5.54)
इसके लिए आचार्य का निर्वाचन बड़े महत्त्व का है। उपनयन का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति और चरित्र का निर्माण है। यदि आचार्य ज्ञानसम्पन्न और सच्चरित्र न हो तो वह शिष्य के जीवन का निर्माण नहीं कर सकता। 'जिसको अविद्वान् आचार्य उपनीत करता है वह अन्धकार से अन्धकार में प्रवेश करता है। अतः कुलीन, विद्वान् तथा आत्मसंयमी आचार्य की कामना करनी चाहिए।' दे० 'उपनिषद्'। स्मृतियों में आचार्य के गुणों पर विशेष बल दिया गया है :
कुमारस्योपनयनं श्रुताभिजनवृत्तवान्। तपसा धूतनिःशेषपाप्‍मा कुर्याद् द्विजोत्तमः।। शौनक सत्यवाग् घृतिमान् दक्षः सर्वभूतदयापरः। आस्तिको वेदनिरतः शुचिराचार्य उच्यते।। वेदाध्ययनसम्पन्नो वृत्तिमान् विजितेन्द्रियः। दक्षोत्साही यथावृत्तजीवनेहस्तु वृत्तिमान्।। यम
संस्कार सन्पन्न करने के लिए किसी उपयुक्त समय का चुनाव किया जाता है। प्रायः उपनयन जब सूर्य उत्तरायण में (भूमध्य रेखा के उत्तर) रहता है तब किया जाता है। परन्तु वैश्य बालक का उपनयन दक्षिणायन में भी हो सकता है। विभिन्न वर्णों के लिए विभिन्न ऋतुएँ निश्चित हैं। ब्राह्मण बालक के लिए वसन्त, क्षत्रिय बालक के लिए ग्रीष्म, वैश्य बालक के लिए शरद तथा रथकार के लिए वर्षाऋतु निर्धारित हैं। ये विभिन्न ऋतुएँ विभिन्न वर्णों के स्वभाव तथा व्यवसाय की प्रतीक हैं।
संस्कार के आरम्भ में क्षौरकर्म (मुण्डन) और स्नान के पश्चात् बालक को गुरु की ओर से ब्रह्मचारी के अनुकूल परिधान दिये जाते हैं। उनमें प्रथम कौपीन है जो गुप्त अङ्गों को ढकने के लिए होता है। शरीर के सम्बन्ध में यह सामाजिक चेतना का प्रारम्भ है। मन्त्र के साथ आचार्य कौपीन तथा अन्य वस्त्र देता है। इसके साथ ही ब्रह्मचारी को मेखला प्रदान की जाती है। इसकी उपयोगिता शारीरिक स्फूर्ति और आन्त्रजाल की पुष्टि के लिए होती है।
मेखला के पश्चात् ब्रह्मचारी को यज्ञोपवीत पहनाया जाता है। यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आजकल उपनयन संस्कार का नाम ही यज्ञोपवीत संस्कार हो गया है। यज्ञ उपवीत का अर्थ है 'यज्ञ के समय पहना हुआ ऊपरी वस्त्र।' वास्तव में यह यज्ञवस्त्र ही था जो संक्षिप्त प्रतीक के रूप में तीन सूत्र मात्र रह गया है।
इसी प्रकार मृगचर्म, दण्ड आदि भी उपयुक्त मन्त्रों के साथ प्रदान किये जाते हैं।
ब्रह्मचारी को परिधान समर्पित करने के पश्चात् कई एक प्रतीकात्मक कर्म किये जाते हैं। पहला है आचार्य द्वारा अपनी भरी हुई अञ्जलि से ब्रह्मचारी की अञ्जलि में जल डालना, जो शुचिता और ज्ञान-प्रदान का प्रतीक है। दूसरा है ब्रह्मचारी द्वारा सूर्यदर्शन। यह नियम, व्रत और उपासना का प्रतीक है।
इन प्रतीकात्मक क्रियाओं के बाद आचार्य बालक को ब्रह्मचारी के रूप में स्वीकार करता है और पूछता है, `तू किसका विद्यार्थी है?` वह उत्तर देता है, `आपका।` आचार्य संशोधन करते हुए कहता है, तू इन्द्र का ब्रह्मचारी है। अग्नि तेरा आचार्य है। मैं तेरा आचार्य हूँ।
यज्ञोपवीत के समान सावित्री (गायत्री) मन्त्र भी उपनयन संस्कार का एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। यह शैक्षणिक तथा बौद्धिक जीवन का मूलमन्त्र है। सावित्री को ब्रह्मचारी की माता कहा गया है। आचार्य सावित्री-मन्त्र का उच्चारण ब्रह्मचारी के सामने करता है :
भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्।।
[यह है (अस्ति)। यह समृद्धि और प्रकाशस्वरूप है। हम सविता (समस्त सृष्टि को उत्पन्न करने वाले) देव के शुभ्र तेज को धारण करते हैं। वह हमारी बुद्धि को प्रदीप्त करे।]
सावित्री के उपदेश के पश्चात् आहवनीय अग्नि में आहुति, भिक्षाचरण, त्रिरात्र व्रत, मेधाजनन आदि व्रतों का ब्रह्मचारी के लिए विधान है। ये सभी शैक्षणिक एवं बौद्धिक महत्त्व के हैं। उपनयन संस्कार के सभी अङ्ग मिलकर एक ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे ब्रह्मचारी अनुभव करता है कि उसके जीवन में एक नवयुग का प्रादुर्भाव हो रहा है, जहाँ उसके बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास की अनन्त सम्भावना है।

उपन्यास
वाक्‍योपक्रम, परिचयात्मक वचन, आरम्भिक वस्तुवर्णन, यथा
ब्रह्मजिज्ञासोपन्यासमुखेन।' (शारीरक भाष्य)
[ब्रह्मजिज्ञासा के प्राथमिक उल्लेख द्वारा।] इसका दूसरा अर्थ 'विचार' है, जैसा कि मनु ने कहा है :
विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत।
[कहे जा रहे, सर्वजनहितकारी पवित्र विचार को सुनो।]

उपनिषद्
यह शब्द 'उप+नि+सद्+क्विप' से बना है, जिसका अर्थ है (गुरू) के निकट (रहस्यमय ज्ञान की प्राप्ति के लिए) बैठना।' अर्थात् उपनिषद् वह साहित्य है जिसमें जीवन और जगत् के रहस्यों का उद्घाटन् निरुपण तथा विवेचन है। वैदिक साहित्य के चार भाग हैं-- (1) मन्त्र अथवा संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक तथा (4) उपनिषद्। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग अथवा चरम परिणति है। मन्त्र अथवा संहिताओं में मूलतः कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और उपासना का प्रतिपादन हुआ है। इन्हीं विषयों का ब्राह्मणों और उपनिषदों में विस्तार तथा व्याख्यान हुआ है। ब्राह्मणों में कर्मकाण्ड का विस्तार एवं व्याख्यान है, आरण्यक एवं उपनिषदों में ज्ञान और उपासना का। वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग होने से उपनिषदें वेदान्त (वेद+अन्त) भी कहलाती हैं, क्योंकि वेदों के अन्तिम ध्येय ब्रह्म का उनमें निरूपण है। वेदान्तदर्शन के तीन प्रस्थान हैं-- उपनिषद् ब्रह्मसूत्र तथा गीता। इनमें उपनिषद् का प्रथम स्थान है।
प्रत्येक वेद की संहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपिनषद् भिन्न-भिन्न होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि चारों वेदों की एक सहस्र एक सौ अस्सी उपनिषदें हैं--परन्तु इस समय सभी उपलब्ध नहीं हैं। प्रमुख बारह उपनिषदें --(1) ईश्वास्य, (2) केन, (3) कठ, (4) प्रश्न, (5) मुण्डक, (6) माण्डूक्य, (7) तैत्तिरीय, (8) ऐतरय, (8) छान्दोग्य, (10) बृहदारण्यक, (11) कौषीतकि और (12) श्वेताश्वतर। इन पर आचार्य शङ्कर के प्रामाणिक भाष्य हैं। अन्य आचार्यों--रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभ आदि ने भी अपने-अपने सामप्रदायिक भाष्य इन पर लिखे हैं। सभी सम्प्रदाय अपने मत का मूल उपनिषदों में ही ढूँढ़ते हैं। अतः अपने सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा के लिए प्रत्येक आचार्य को उपनिषदों पर भाष्य लिखना आवश्यक हो गया था। मुख्य उपनिषदों का परिचय नीचे दिया जा रहा है :
1. ईशावास्य-- इस उपनिषद् का यह नाम इसलिए है कि इसका प्रथम मन्त्र 'ईशावास्यमिदं सर्वम्....' से प्रारम्भ होता है। यह यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। इसमें सब मिलाकर केवल अठारह मन्त्र हैं। परन्तु संक्षेप से इनमें उपनिषदों के सभी विषोयों का बहुत प्रभावशाली ढंग से निरूपण हुआ है। अतः यह बहुत लोकप्रिय है।
2. केनोपनिषद्-- इसके नामकरण का कारण यह है कि इसका प्रारम्भ 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' वाक्य से होता है। यह सामवेद की जैमिनीय शाखा के ब्राह्मणग्रन्थ का नवम अध्याय है। इसकों 'ब्राह्मणोपनिषद्' भी कहते हैं। इसका प्रतिपाद्य विषय ब्रह्मतत्त्व है। इसके अनुसार जो ब्रह्मतत्त्व जान लेता है वह सभी बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
3. कठोपनिषद्-- कृष्णय़जुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत यह उपनिषद् आती है। इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं। इसका प्रारम्भ नचिकेता की कथा से होता है, जिसमें श्रेय और प्रेय का सुन्दर विवेचन है।
4. प्रश्नोपनिषद्-- अथर्ववेद की पिप्पलाद संहिता के ब्राह्मणग्रन्थ का एक अंश प्रश्नोपनिषद् कहलाता है। इसमें प्रश्नोत्तर के रूप में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण किया गया है। इसीलिए इसका यह नामकरण हुआ।
5. मुण्डकोपनिषद्-- अथर्ववेद की शौनक शाखा का एक अंश मुण्डकोपनिषद् है। इसमें तीन मुण्डक और प्रत्येक मुण्डक में दो-दो अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा ब्रह्मतत्त्व इसके विचारणीय विषय हैं।
6. माण्डूक्योपनिषद्--यह अथर्ववेद की एक संक्षिप्त उपनिषद् है। इसमें केवल बारह मन्त्र हैं। इसमें 'ओंकार' के महत्त्व का निरूपण है।
7. तैत्तिरीयोपनिषद्-- यह यजुर्वेदीय उपनिषद् है। कृष्ण-यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के ब्राह्मणग्रन्थ के अन्तिम भाग को 'तैत्तिरीय आरण्यक' कहते हैं। यह अन्तिम भाग को 'तैत्तिरीय आरण्यक' कहते हैं। यह आरण्यक दस प्रपाठकों में विभाजित है। इनमें से सात से नौ तक के प्रपाठकों को तैत्तिरीय उपनिषद् कहते हैं। उपर्युक्त तीन प्रपाठकों के क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली नाम हैं। प्रथम वल्ली में शिक्षा का माहात्म्य, दूसरी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण तथा तीसरी में वरुण द्वारा अपने पुत्र को उपदेश है।
8. ऐतरेयोपनिषद्--यह ऋग्वेदीय उपनिषद् है। ऋग्वेद के 'ऐतरेय ब्रामण' के पाँच भाग हैं जिनको पाँच आरण्यक की संज्ञा दी गयी है। इसके द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ से षष्ठ--तीन अध्यायों को ऐतरेयोपनिषद् कहते हैं। इन तीन अध्याओं में क्रमशः सृष्टि, जीवात्मा और ब्रह्मतत्त्व का निरूपण है।
9. छान्दोग्य उपनिषद्--सामवेद की कौथुमी शाखा के तीन ब्राह्मण हैं--(1)ताण्ड्य, (2) षड्विंश और (3) मन्त्र। इन्हीं के अन्तिम आठ अध्याय छान्दोग्य ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य उपनिषद् कहलाते हैं। ये आठ अध्‍याय बहुत विस्‍तृत हैं अत: यह उपनिषद् बहुत विशाल है।
10. बृहदारण्यकोपनिषद्--शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं। उन दोनों का ब्राह्मणग्रन्थ 'शतपथ' है। इसके अन्तिम छः अध्यायों को बृहदारण्यक या बृहदारण्यकोपनिषद् कहते हैं। इसका 'बृहत्' नाम अन्वर्थ है, क्योंकि आकार में यह सबसे बड़ी उपनिषद् है। इसमें भी सृष्टि और ब्रह्म का विस्तार से निरूपण किया गया है।
11. कौषीतकि उपनिषद्--- यह ऋग्वेदीय उपनिषद् है। ऋग्वेद के कौषीतकि ब्राह्मण का एक भाग आरण्यक कहा जाता है, जिसमें पन्द्रह अध्याय हैं। इनमें से तीसरे और छठे अध्याय को मिलाकर कौषीतकि उपनिषद् कही जाती है। कुषीतक नामक ऋषि ने इसका उपदेश किया था अतः इसका नाम 'कौषीतकि' पड़ा। इसका एक दूसरा नाम कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् भी है। यह भी एक बृहदाकार उपनिषद् है।
12. श्वेताश्वतरोपनिषद्-- यह कृष्ण यजुर्वेद की उपनिषद् है और इस वेद के श्वेताश्वतर ब्राह्मण का एक भाग है। इसमे छः अध्याय हैं जिनमें ब्रह्मविद्या का बहुत हृदयग्राही विवेचन पाया जाता है।
इन उपनिषदों के अतिरिक्त बहुसंख्य परवर्ती उपनिषदें हैं। एक परवर्ती उपनिषद् मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची है। इन सभी उपनिषदों का संग्रह निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से गुटका के रूप में प्रकाशित है। अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से प्रकाशित उपनिषद् संग्रह में 179 उपनिषदें हैं। बम्बई के गुजराती प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित 'उपनिषद्वाक्यमहाकोश' में 223 उपनिषद्ग्रन्थों का नामोल्लेख है। उपनिषदों को कालक्रम के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-- (1) प्राचीन उपनिषद् और (2) परवर्ती उपनिषद्। प्राचीन वैदिक शाखाओं पर आधारित हैं; परवर्ती साम्प्रदायिक हैं। मध्य युग में धार्मिक सम्प्रदायों ने अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए अनेक उपनिषदों की रचना की।
उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय उपासना और ज्ञान है। जैसा कि लिखा जा चुका है, ब्राह्मणों में संहिताओं के कर्मकाण्ड का विस्तार और व्याख्यान हुआ है। इसी प्रकार उपनिषदों में संहिताओं के उपासना और ज्ञानकाण्ड का विस्तार और विकास हुआ है। ब्राह्मण और उपनिषद् एक दूसरे के पूरक हैं। उपनिषदों (ईशावास्य और मुण्डक) में ही दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है-- (1) परा और (2) अपरा। 'परा' विद्या ब्रह्मविद्या है, जिसका उपनिषदों में मुख्य रूप से विवेचन है। परन्तु 'अपरा' विद्या के बारे में कहा गया है कि लोकयात्रा के लिए यह आवश्यक है और संहिताओं, ब्राह्मणों तथा वेदाङ्गों में इसका निरूपण हुआ है। 'परा' अथवा ब्रह्मविद्या के अन्तर्गत आत्मा, ब्रह्म, जगत्, बन्ध, मोक्ष, मोक्ष के साधन आदि का सरल, सुबोध किन्तु रहस्यमय शैली में उपनिषदें निरूपण करती हैं।


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