आचार्य मध्व ने 'उपाधिखण्डन' ग्रन्थ में सिद्ध किया है कि ईश्वर और आत्मा का भेद पारमार्थिक है। औपाधिक भेदवाद श्रुतिविरुद्ध और युक्तिहीन है। जयतीर्थाचार्य ने 'उपाधिखण्डन' की टीका लिखी है। इस ग्रन्थ में द्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।
उपाय
कार्यसिद्धि का साधन। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के अनुसार उपाय चार हैं-- साम, दान, भेद और दण्ड।
राजनय में इन्हीं उपायों का प्रयोग किया जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार युद्ध के परिणाम जय और पराजय दोनों ही अनित्य हैं। अतः युद्ध का आश्रय कम से कम लेना चाहिए। जब प्रथम तीन उपाय-साम, दान और भेद असफल हो जायँ तभी दण्ड अथवा युद्ध का अवलम्बन करना चाहिए। इन उपायों का साधारणतः क्रमशः प्रयोग करना चाहिए। परन्तु विशेष परिस्थिति मे चारों का साथ-साथ प्रयोग हो सकता है।
उपायपद्धति
शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र और उसकी अनुक्रमणी भी कात्यायन की रचना के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रातिशाख्यसूत्र में शाकटायन, शाकल्य, गार्ग्य, कश्यप, दाल्भ्य जातुकर्ण्य, शौनक और औपशिवि के नाम भी पाये जाते हैं। इस अनुक्रमणी की एक 'उपायपद्धति' नामक व्याख्या श्रीहल की बनायी हुई है।
उपासक
पूजक; जो सेवा करता है; उपासना करनेवाला; पूज्य के समीप बैठकर उसका चिन्तन करने वाला। द्विजों का सेवक होने के कारण शूद्र को भी उपासक कहा गया है। साधारणतः किसी भी प्रकार की उपासना (ध्येय के निकट आसन) करने वाले को उपासक कहा जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्ध के गृहस्थ अनुयायी को उपासक कहा जाता है।
उपासन
गोरखनाथी मत के योगियों में हठयोग की प्रणाली अधिक प्रचलित है। इसके अनुसार शरीर की कुछ कायिक परिशुद्धि एवं निश्चित किये गये शारीरिक व्यायामों द्वारा 'समाधि' अर्थात् मस्तिष्क की सर्वोत्कृष्ट एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं शारीरिक व्यायामों को 'आसन' कहते हैं। पश्चात्कालीन योगी जबकि 'आसन' पर विश्वास करते थे, प्राचीन योगी 'उपासन' पर विश्वास करते थे। 'उपासन' उपासना का ही पर्याय है। इनका अर्थ है 'अपने आराध्य अथवा ध्येय के सान्निध्य में बैठना।' इसके लिए भावात्मक अनुभूति मात्र आवश्यक है; किसी शारीरिक अथवा बौद्धिक प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है।
उपासना
(1) वेद का अधिकांश भाग कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड है, शेष ज्ञानकाण्ड है। कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के लिए है। उपासना और कर्म दोनों काण्ड मध्यम के लिए। कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों काण्ड उत्तम के लिए हैं। पर उत्तम अधिकारी कर्म और उपासना को निष्काम भाव से करता है। उपासना व्यक्ति का ब्रह्म के साथ व्यक्तिगत सान्निध्य है। अतः व्यक्तिगत योग्यता और अधिकार भेद से इसके अनेक मार्ग प्रचलित हैं। सभी उपासनापद्धतियों में कुछ बातें सामान्य रूप से सर्वनिष्ठ हैं, जैसे अपने उपास्य का भावात्मक बोध, उपास्य के सान्निध्य में जाने की उत्कण्ठा, सान्निध्य-भावना से आनन्द की अनुभति, अपने कल्याण के सम्बन्ध में आश्वासन। गीता (9.22) में भगवान् कृष्ण ने कहा है :
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
[जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य उपासना में रत पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।]
(2) ईश्वर अथवा किसी अन्य देवता की सेवा का नाम भी उपासना है। उसके पर्याय हैं--(1) वरिवस्या, (2) सुश्रूषा, (3) परिचर्या और (4) उपासन। देवी भागवत में शक्ति-उपासना की प्रशंसा में कहा गया है :
न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कस्यचित्। न विष्णुदीक्षा नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च।। गायत्र्युपासना नित्या सर्वदेवैः समीरिता। यया बिना त्वधः पातो ब्राह्णस्यास्ति सर्वथा।।
[विष्णु की नित्य उपासना करना वेदों में कहीं नहीं कहा गया। न विष्णु की दीक्षा और न शिव की दीक्षा ही नित्य है। किन्तु गायत्री की नित्य उपासना सब वेदों में कही गयी है, जिसके बिना ब्राह्मण का अधःपतन हो सकता है।]
उपासनाकाण्ड
वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत हैं कि चारों वेदों में समुच्चय रूप से प्रधानतः तीन विषयों का प्रतिपादन है--(1) कर्मकाण्ड, (2) ज्ञानकाण्ड एवं (3) उपासनाकाण्ड। उपासनाकाण्ड ईश्वर-आराधना से सम्बन्ध रखता है, जिससे मनुष्य ऐहिक, पारलौकिक और पारमार्थिक अभीष्टों का सम्पादन कर सकता है।
ऋग्वेद के सूक्तों में विशेष रूप से स्तुतियों की अधिकता है। ये स्तुतियाँ विविध देवताओं की है। जो लोग देवताओं की अनेकता नहीं मानता वे इन सह नामों (देवनामों) का अर्थ परब्रह्म परमात्मा का वाचक लगाते हैं। जो लोग अनेक देवता मानते हैं वे भी इन सब स्तुतियों को परमात्मापरक मानते हैं और कहते हैं कि ये सभी देवता और समस्त सृष्टि परमात्मा की विभूति है। इसलिए वे वरुण को जल के देवता, अग्नि को तेज के देवता, द्यौः को आकाश के देवता इत्यादि रूप से विश्व की शक्तियों के अधिपति परमात्मा की विभूति ही मानते हैं। जहाँ पृथिवी की स्तुति है, वहाँ पृथिवी के ही गुणों का वर्णन है। पृथिवी परमात्मा की सृष्टि और उसी की विभूति है। पृथिवी की स्तुति के व्याज से परमात्मा की ही स्तुति की जाती है। ये स्तुतियाँ तथा उसके सम्बन्ध की प्रार्थनाएँ उपासनाकाण्ड के अन्तर्गत हैं।
उपेन्द्र
वामन (विष्णु), इन्द्र के छोटे भाई। 'इन्द्र के पश्चात् उत्पन्न होने वाला।' कश्यप ऋषि एवं अदिति माता से वामन रूप में इन्द्र के अनन्तर उत्पन्न होने के कारण विष्णु का नाम उपेन्द्र पड़ा।
उपेन्द्रस्तोत्र
इसे कुछ विद्वान् तमिल देश में रचा गया मानते हैं, परन्तु समझा जाता है कि 'उपेन्द्रस्तोत्र' उत्तर की ही रचना है। किन्तु इसके रचयिता के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
उपोषण
उपवास; आहारत्याग। तिथितत्त्व में लिखा है :
उपोषणं नवम्याञ्च दशम्याञ्चैव पारणम्।
[नवमी के दिन उपवास और दशमी के दिन पारण करना चाहिए।] दे० 'उपवास'।