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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

उतथ्य
महर्षि अंगिरा का पुत्र तथा देवगुरु बृहस्पति का ज्येष्ठ भ्राता, यथा
त्रयस्त्वङ्गिरसः पुत्रा लोके सर्वत्र विश्रुताः। बृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्तश्च धृतव्रतः।।
[अङ्गिरा के तीन पुत्र संसार में प्रसिद्ध हैं --(1) बृहस्पति, (2) उतथ्य और (3) व्रतधारी संवर्त्त।] महाभारत औऱ पुराणों में इनकी कथा विस्तार से कही गयी है।

उत्तम
(1) स्वायंभुव मनु के पुत्र महाराज उत्तानपाद और महारानी सुरुचि का पुत्र। उत्तानपाद की छोटी रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव था।
(2) स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत और उसकी दूसरी रानी का पुत्र भी उत्तम नामक था जो आगे चलकर तीसरे मन्वन्तर का अधिपति हुआ।

उत्तमभर्तृप्राप्तिव्रत
वसन्त ऋतु में शुक्ल पक्ष की द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। विष्णु इसका देवता है। दे० वाराह पुराण, 54.1-19।

उत्तमसाहस
एक ऊँचा अर्थदण्ड (जुर्माना)। जैसे
साशीतिपणसाहस्रो दण्ड उत्तमसाहसः।' (याज्ञवल्क्य स्मृति)
[1080 पणों का दण्ड उत्तमसाहस कहलाता है।] अन्यत्र भी कथन है :
पणानां द्वे शते सार्द्धे प्रथमः साहसः स्मतः। मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः।।
[दो सौ पचास पणों का प्रथमसाहस दण्ड, पाँच सौ पणों का मध्यमसाहस दण्ड और हजार पणों का उत्तम साहस दण्ड होता है।]

उत्तरकाशी
उत्तराखण्ड का प्रमुख तीर्थ स्थल। यहाँ अनेक प्राचीन मन्दिरों में विश्वनाथजी का मन्दिर तथा देवा सुरसंग्राम के समय छूटी हुई शक्ति (मन्दिर के सामने का त्रिशूल) दर्शनीय हैं। पास ही गोपेश्वर, परशुराम, दत्तात्रेय, भैरव, अन्नपूर्णा, रुद्रेश्वर और लक्षेश्वर के मन्दिर हैं। दक्षिण में शिव-दुर्गा मन्दिर और पूर्व में जड़भरत का मन्दिर है। इसके पूर्व में वारणावत पर्वत पर विमलेश्वर महादेव का मन्दिर है। पूर्वकाशी के समान यह भी भागीरथी गंगा के तट पर असि और धरणा नदियों के मध्य में बसी हुई है। कहा जाता है कि कलियुग में विश्वनाथजी वास्तविक रूप में यहीं निवास करते हैं।

उत्तरक्रिया
पितरों के वार्षिक श्राद्ध आदि की क्रिया, जैसे प्रेतपितृत्वमापन्ने सपिण्डीकरणादनु। क्रियन्ते याः क्रियाः पित्र्यः प्रोच्यन्ते ता नृपोत्तराः।। (विष्णुपुराण)
[सपिण्डीकरण के पश्चात् जब प्रेत पितर संज्ञा को प्राप्त हो जाता है तब उसके बाद की जानेवाली क्रिया को 'उत्तर क्रिया' कहते हैं।]

उत्तरगीता
उत्तरगीता' महाभारत का ही एक अंश माना जाता है। प्रसिद्धि है कि पाण्डवों की विजय और राज्यप्राप्ति के पश्चात् श्री कृष्ण के सत्संग का सुअवसर पाकर एक बार अर्जुन ने कहा कि भगवान्! युद्धारम्भ में आपने जो गीता-उपदेश मुझको दिया था, युद्ध की मार-काट और भाग-दौड़ के बीच उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा कर वह ज्ञानोपदेश मुझको फिर से सुना दीजिए। श्री कृष्ण बोले कि अर्जुन, उक्त उपदेश मैंने बहुत ही समाहितचित्त (योगस्थ) होकर दिव्य अनुभूति के द्वारा दिया था, अब तो मैं भी उसको आनुपूर्वी रूप में भूल गया हूँ। फिर भी यथास्मृति उसे सुनाता हूँ। इस प्रकार श्री कृष्णा का बाद में अर्जुन को दिया गया उपदेश ही 'उत्तर गीता' नाम से प्रसिद्ध है। स्वामी शंकराचार्य के परमगुरु गौडपादाचार्य की व्याख्या इसके ऊपर पायी जाती है, जिससे इस ग्रन्थ का गौरव औऱ भी बढ़ गया है।

उत्तरपक्ष
पूर्व पक्ष का विलोम। विवाद के मध्य प्रतिपक्षी के सिद्धान्तों का खण्डन करने के पश्चात् किसी विचारक का अपना जो मत होता है उसे उत्तरपक्ष कहते हैं।

उत्तराफाल्गुनी
अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत बारहवाँ नक्षत्र। इसमें पर्यङ्क के आकार के दो तार हैं। इसका अधिष्ठाता देवता अर्यमा है।

उद्धह
आकाशमण्डल के स्तरों में छाये हुए सात प्रकार के वायुओं के अन्तर्गत एक वायु। इसकी स्थिति ऊपर की ओर होती है। 'सिद्धान्तशिरोमणि' में कथन है :
आवहः प्रवहश्चैव विवहश्च समीरणः। परवहः संवहश्चैव उद्वहश्च महाबलः।। तथा परिवहः श्रीमानुत्पातभयशंसिनः। इत्येते क्षुभिताः सप्त मारुता गगनेचराः।।
[आवह, प्रवह विवह, परवह, संवह, उद्वह तथा परिवह; आकाशगामी ये सात पवन परस्पर टकराते हुए उपद्रव होने की सूचना देते हैं।


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