मन्त्र प्रयोग से किसी को भगाना। मारण-मोहन आदि षट् कर्मों के अन्तर्गत इस अभिचार कर्म की गणना है। इसकी देवी दुर्गा है, तिथि कृष्णचतुर्दशी तथा अष्टमी भी है। दिन शनिवार है। जप करने वाले को बालों का सूत्र बनाकर घोड़े के दाँतों से बनी हुई माला इसमें पिरोनी चाहिए और जप के समय उसे धारण करना चाहिए। फल इसका उच्चाटन है अर्थत् शत्रु को अपने देश तथा स्थान से भगा देना। विशेष विवरण के लिए देखिए 'शारदातन्त्र'।
उच्छिष्ट
भुक्त भोजन का बचा बुआ भाग। इसे फिर खाना तामसिक भोजन के प्रकार में आता है और इसको त्याज्य बताया गया है।
भोजन करने के बाद बिना हाथ-मुँह धोया हुआ व्यक्ति कहीं न जाय (न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्--मनु।)
उच्छिष्ट-गणपति
शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्यों के छः भेद कहे गये हैं जो गणपति के विभिन्न रूपों तथा गुणों, की अर्चा किया करते थे। ये छः रूप हैं : महागणपति, हरिद्रागणपति, उच्छिष्टगणपति, नवनीतगणपति, स्वर्णगणपति एवं सन्तानगणपति। उच्छिष्ट गाणपत्यों का एक वर्ग हेरम्ब गणपति की उपासना किया करता था।
उच्चैः श्रवा
इसके कई अर्थ हैं, यथा-- जिसका यश ऊँचा हो, जिसके कान ऊँचे हों अथवा जो ऊँचा सुनता हो। मुख्य अर्थ इन्द्र का घोड़ा है। यह श्वेत वर्ण का है। पुराणों में इसकी गिनती उन चौदह रत्नों में है, जो समुद्रमन्थन के पश्चात् क्षीरसागर से निकले थे। अमृत से इसका पोषण होता है। यह अश्वों का राजा है। इसीलिए श्वेत वर्ण के अश्व महत्त्वपूर्ण और पूजनीय माने जाते हैं।
उज्जैन
भारत का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, जिसका सम्बन्ध ज्योतिर्लिङ्गमहाकाल से है। इस नगर को उज्जयिनी अथवा अवन्तिका भी कहते हैं। यही से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी, अतः इसका नाम उज्जयिनी पड़ा। इसका प्राचीनतम नाम अवन्तिका अवन्ति नामक राजा के नाम पर था। दे० स्कन्द पुराण। इस देश को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में प्रसिद्ध महाकाल का मन्दिर यहीं है। 51 शक्तिपीठों में यहाँ भी एक पीठ है। हरसिद्धि देवी का मन्दिर ही सिद्ध पीठ है। महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था। उज्जयिनी महाराज विक्रमादित्य की राजधानी थी। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है। यहाँ बारह वर्ष में एक बार कुम्भ मेला लगता है। इसकी गणना सात पवित्र पुरियों में है :
रूप गोस्वामी कृत अलङ्कारशास्त्र का एक प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ। रूप गोस्वामी महाप्रभु चैतन्य के शिष्य थे। अलङ्कारशास्त्र में प्रायः सामान्य पार्थिव प्रेम का ही चित्रण पाया जाता है। रूप गोस्वामी ने 'उज्ज्वलनीलमणि' में भगवद्-माधुर्य और रति (निष्काम प्रेम) का ही निरूपण किया है। वास्तव में उनके 'भक्तिरसामृतसिन्धु' के सिद्धान्तों का ही इसमें प्रदर्शन है। इस ग्रन्थ में साध्यभक्ति के भावों में तीन और जोड़े गये हैं -- मान, अनुराग और महाभाव।
उज्ज्वल रस
साहित्य में श्रृङ्गार का वर्ण श्याम कहा गया है। किन्तु भक्तिशास्त्र का शृंगार उज्ज्वला है। रूप गोस्वामी द्वारा रचित 'उज्ज्वलनीलमणि' में इस शब्द का प्रयोग अलौकिक रागानुगा भक्ति के लिए हुआ है, जिसमें श्रृंङ्गार रस का पूर्ण अन्तर्भाव है। वास्तव में माधुर्य भक्तिवादी लोग भक्ति को ही रस मानते हैं, जो लौकिक शृंगार से भिन्न है, क्योंकि इसके अवलम्बन स्वयं भगवान् हैं। इसलिए लौकिक राग से मुक्त होने के कारण इसका वर्ण उज्ज्वल है।
उञ्छ
खेत से अन्न उठा लेने के पश्चात् शेष अन्न के दाने चुनने को उञ्छ कहा जाता है। गेहूँ, धान आदि की खेत में गिरी मञ्जरियाँ चुनने को 'शिल' कहते हैं और एक-एक दाना चुनने को 'उञ्छ'। उञ्छ-शिल या शिलोञ्छ वृत्ति शब्द प्रायः एक साथ प्रयोग में आते हैं। उञ्छ-वृत्ति ब्राह्मणों के लिए श्रेष्ठ कही गयी है। सिद्धान्त यह है कि जो बिना माँगे मिलता है वह 'अमृत' है और जो माँगने से मिलता है वह 'मृत' है। ब्राह्मण को अमृत पर ही निर्वाह करना चाहिए।
उत्कोच
शाब्दिक अर्थ 'जो शुभ का नाश करता है' (उत्+ कुच् +क)। इसके लिए घूस शब्द प्रसिद्ध है। इसके पर्याय हैं : (1) प्राभृत, (2) ढौकन, (3) लम्बा, (4) कोशलिक, (5) आमिष, (6) उपाचार, (7) प्रदा, (8) आनन्दा, (9) हार, (10) ग्राह्य, (11) अयन (12) उपदानक और (13) अपप्रदान।
याज्ञवल्क्यस्मृति (2।338) में कथन है :
उत्कोचजीविनो द्रव्यहीनान् कृत्वा विवासयेत्।
[घूस लेने वालों को धन छीनकर देश से निर्वासित कर देना चाहिए।]
उत्तराभाद्रपदा
अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत इक्कीसवाँ नक्षत्र; प्रौष्ठपदा। इसका रूप सूर्पाकार चार ताराओं से युक्त है। इसका अधिदेवता अहिर्बुध्न है।