दक्षिणमार्गी शाक्त मत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसके ऊपर भास्करानन्दनाथ ने, जिन्हें भास्कर राय भी कहते हैं और जो अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तंजौर के राजपण्डित थे, सुन्दर टीका लिखी है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका
काश्मीर शैव मत के साहित्यिक विकास में और विशेष कर इसके दार्शनिक पक्ष में सोमानन्द के 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ का प्रमुख स्थान है। सोमानन्द के ही शिष्य उत्पलाचार्य ने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की रचना की। इस कारिका की व्याख्या सोमानन्द के एक दूसरे शिष्य अभिनवगुप्त (1000 ई०) ने की।
ईश्वरसंहिता
वैष्णव अथवा पाञ्चरात्र मत के उदय एवं विस्तारात्मक इतिहास में संहिताओं का प्रमुख स्थान है। यह अनिश्चित है कि ये कब और कहाँ लिखी गयीं। संख्या में ये 108 कही जाती हैं।
ईश्वरसंहिता तमिल (दक्षिण) देश में लिखी गयी, जब कि अधिकांश संहिताएँ उत्तर भारत में ही रची गयीं।
ईश्वरसंहिता में वैष्णवसंत शठकोप का वर्णन है।
ईश्वरी
दुर्गा देवी का पर्याय। देवीमाहात्म्य-स्तुति में कथन है :
त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य।'
[हे देवी! तुम चर-अचर सब प्राणियों की समर्थ स्वामिनी हो।]
ईश
ईश्वर, परमात्मा (उपनिषदों के अनुसार)। ब्रह्मा, विष्णु, शिव (पुराणों के अनुसार)। परवर्ती काल में 'ईश' का प्रयोग प्रायः 'शिव' के अर्थ में ही अधिक हुआ।
ईशान
शिव का एक पर्याय, यथा--
तत्रेशानं समभ्यर्च्य त्रिरात्रोपोषितो नरः।
[शिव का पूजन करके मनुष्य को तीन रात्रि तक व्रत करना चाहिए।]
ग्यारह रुद्रों के अन्तर्गत एक रुद्र।
ईशानव्रत
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तथा पूर्णिमा के दिन जब गुरुवार हो, इस व्रत का आचरण किया जाता है। पाँच वर्षों तक विष्णु भगवान् के साथ लिङ्ग के वाम भाग का पूजन तथा खखोल्क (सूर्य) के साथ दक्षिण भाग का पूजन होता है। एक वर्ष के पश्चात् एक गौ का दान, दो वर्ष के बाद दो गौओं का, तीन वर्ष के बाद तीन गौओं का, चार वर्ष के बाद चार गौओं का और पाँच वर्ष के बाद पाँच गौओं का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड 383-385; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.179-180।
ईशोपनिषद्
ईशावास्य उपनिषद् का संक्षिप्त नाम। यह 18 मन्त्रों का एक दार्शनिक सङ्कलन है। इसका सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा से है। यदुर्वेद के अन्तिम (चालीसवां) अध्याय में यह उपनिषद् संगृहीत है। इसे यजुर्वेद का उपसंहार समझना चाहिए। यह कर्मयोगवादी उपनिषद् है और इसमें कर्म और ज्ञान का समन्वय स्वीकार किया गया है। संक्षेप में हिन्दुत्व के मूलभूत सिद्धान्त इसमें आ गये हैं। इसका प्रथम मन्त्र इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है :
[सम्पूर्ण विश्व ईश (ईश्वर) से आवास्य (ओत प्रोत) है। जगत् में जो कुछ है वह चलायमान (परिवर्तनशील= नश्वर) है। इसलिए त्यागपूर्वक जागतिक पदार्थों का भोग करना चाहिए। किसी दूसरे के स्वत्व का लोभ नहीं करना चाहिए। धन-सम्पत्ति किसकी है? अर्थात् किसी की नहीं है अथवा किसी एक व्यक्ति की नहीं, अपितु ईश्वर की है।] दूसरा मन्त्र है :
कुर्वन्नेहेव कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा:। [कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करनी चाहिए। इस प्रकार (त्यागभाव से) कर्म करने से मनुष्य पर कर्म के बन्धन का लेप नहीं होता।]
ईर्ष्या
दूसरे की उन्नति में असहिष्णुता रखना। धार्मिक साधन में यह बहुत बड़ी बाधा है। इसका पर्याय है अक्षान्ति। मनुस्मृति (7.28) का कथन है :