वङ्ग प्रदेशवासी रघुनन्दन भट्टाचार्य कृत 'अष्टाविंशतितत्त्व' सोलहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है, जिसको प्राचीनतावादी हिन्दू बड़े ही आदर की दृष्टि से देखते हैं। इस ग्रन्थ में हिन्दुओं के धार्मिक कर्त्तव्यों का विशद वर्णन किया गया है।
जो स्नान से पापों को दूर करती है [अस्+इन्]। नदी विशेष। यह काशी की दक्षिण दिशा में स्थित बरसाती नदी है। जहाँ गङ्गा और असि का संगम होता है वह अस्सीघाट कहलाता है :
[असि और वरणा को नगरी की सीमा पर रख दिया गया, उनका सङ्गम प्राप्त करके काशिका उस समय से वाराणसी नाम से विख्यात है।]
असित
प्राचीन वेदान्ताचार्यों में एक, जो गीता के अनुसार व्यासजी के समकक्ष माने गये हैं : "असितो देवलो व्यासः" (गीता 10, 13)।
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असितमृग
ऐतरेय ब्राह्मण में इसे कश्यप परिवार की उपाधि बताया गया है। ये जनमेजय के एक यज्ञ में सम्मिलित नहीं किये गये थे, किन्तु राजा ने जिस पुरोहित को यज्ञ करने के लिए नियुक्त किया, उस भूतवीर से असितमृग ने यज्ञ की परिचालना ले ली थी। जैमिनीय तथा षड्विंश ब्राह्मणों में असितमृगों को कश्यपों का पुत्र कहा गया है और उनमें से एक को 'कुसुरबिन्दु औद्दालकि' संज्ञा दी गयी है।
असिधाराव्रत
तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना। इसमें व्रतकर्त्ता को आश्विन शुक्ल पूर्णिमा से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा कार्तिकी पूर्णिमा तक अथवा चार मास पर्यन्त, अथवा एक वर्ष पर्यन्त, अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमिशयन करना, गृह से बाहर स्नान, केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा हरि के ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाय। यह क्रम दीर्घ काल तक चले। बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.218, 1.25।
असिधाराव्रत
शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की धार पर चलना। कालिदास ने रघुवंश (77.13) में रामवनवास के समय भरत द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना बतलाया है :
इयन्ति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम्।' युवा युवत्या सार्धं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत्। अन्तर्विविक्तसंगः स्यादसिधाराव्रतं स्मृतम्।।
[युवती स्त्री के साथ एकान्त में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना असिधाराव्रत कहा गया है।-- मल्लिनाथ]
असिपत्रवन
असि (तलवार) के समान जिसके तीक्ष्ण पत्ते हैं, ऐसा वन- एक नरक, जहाँ पर तीक्ष्ण पत्तों के द्वारा पापियों के शरीर का विदारण किया जाता है (मनु)। जो इस लोक में विना विपत्ति के ही अपने मार्ग से विचलित हो जाता है तथा पाखण्डी है उसे यमदूत असिपत्रवन में प्रविष्ट करके कोड़ों से मारते हैं। वह जीव इधर-उधर दौड़ता हुआ दोनों ओर की धारों से तालवन के खङ्गसदृश पत्तों से सब अंगों में छिद जाने के कारण `हा मैं मारा गया` इस प्रकार शब्द करता हुआ मूर्च्छित होकर पग पग पर गिरता है और अपने धर्म से पतित होकर पाखंड करने का फल भोगता है। दे० भागवत पुराण। मार्कण्डेय पुराण में भी इसका वर्णन पाया जाता है :
असिपत्रवनं नाम नरकं श्रृणु चापरम्। योजनानां सहस्रं वै ज्वलदग्न्यास्तृतावनि।। तत्पसूर्यकरैश्चण्डैः कल्पकालाग्नि दारुणैः। प्रतपन्ति सदा तत्र प्राणिनो नरकौकसः।। तन्मध्ये च वनं शीतं स्निग्धपत्रं विभाव्यते। पत्राणि यत्र खङ्गानि फलानि द्विजसत्तम।।
[हे ब्राह्मण! दूसरा असिपत्र नाम का नरक सुनो। वहाँ एक हजार योजन तक विस्तृत पृथ्वी पर आग जलती है, ऊपर भयङ्कर सूर्य की किरणों से तथा नीचे प्रलयकालीन अग्नि से प्राणी तपाया जाता है, उसके मध्य भाग में चिकने पत्तों वाला शीतवन है, जिसके पत्ते एवं फल खङ्ग के समान हैं।]