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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आगम
परम्परानुसार शिवप्रणीत तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है-- आगम, यामल और मुख्य तन्त्र। वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं। महानिर्वाणतन्त्र में महादेव ने कहा है :
कलिकल्मषदीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरि। मेध्यामेध्यविचाराणां न शुद्धिः श्रौतकर्मणा।। न संहिताभिः स्मृतिभिरिष्टसिद्धिर्नृणां भवेत्। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सत्यं ह्यथोच्यते।। विना ह्यागममार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये। श्रुतिस्मृतिपुराणादौ मयैवोक्तं पुरा शिवे। आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत् सुधीः।।
[कलि के दोष से दीन ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य को पवित्र-अपवित्र का विचार न रहेगा। इसलिए वेदविहित कर्म द्वारा वे किस तरह सिद्धि लाभ करेंगे? ऐसी अवस्था में स्मृति-संहितादि के द्वारा भी मानवों की इष्टसिद्धि नहीं होगी। मैं सत्य कहता हूँ, कलियुग में आगम मार्ग के अतिरिक्त कोई गति नहीं है। मैंने वेद-स्मृति-पुराणादि में कहा है कि कलियुग में साधक तन्त्रोक्त विधान द्वारा ही देवों की पूजा करेंगे।]
आगमों की रचना कब हुई, यह निर्णय करना कठिन है। अनुमान किया जाता है कि वेदों की दुरूहता और मंत्रों के कीलित होने से महाभारत काल से लेकर कलि के आरम्भ तक अनेक आगमों का निर्माण हुआ होगा। आगम अति प्राचीन एवं अति नवीन दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
आगमों से ही शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आचार, विचार, शील, विशेषता और विस्तार का पता लगता है। पुराणों में इन सम्प्रदायों का सूत्र रूप से कहीं-कहीं वर्णन हुआ है, परन्तु आगमों में इनका विस्तार से वर्णन है। आजकल जितनें सम्प्रदाय हैं प्रायः सभी आगम ग्रन्थों पर अवलम्बित हैं।
मध्यकालीन शैवों को दो मोटे विभागों में बाँटा जा सकता है-- पाशुपत एवं आगमिक। आगमिक शैवों की चार शाखाएँ हैं, जो बहुत कुछ मिलती-जुलती और आगमों को स्वीकार करती हैं। वे हैं-- (1) शैव सिद्धान्त की संस्कृत शाखा, (2) तमिल शैव, (3) कश्मीर शैव और (4) वीर शैव। तमिल एवं वीर शैव अपने को माहेश्वर कहते हैं, पाशुपत नहीं, यद्यपि उनका सिद्धान्त महाभारत में वर्णित पाशुपत सिद्धान्तानुकूल है।
आगमों की रचना शैवमत के इतिहास की बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। आगम अट्ठाईस हैं जो दो भागों में विभक्त हैं। इनका क्रम निम्नांकित है :
(1) शैविक--कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान् और सप्रभ (सुप्रभेद)।
(2) रौद्रिक-- विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चन्द्रहास (चन्द्रज्ञान), मुख्य युगबिन्दु (मुखबिम्ब), उद्गीता (प्रोद्गीता), ललित, सिद्ध, सन्तान, नारसिंह (सवोक्त या सवोत्तर), परमेश्वर, किरण और पर (वातुल)।
प्रत्येक आगम के अनेक उपागम हैं, जिनकी संख्या 198 तक पहुँचती है।
प्राचीनतम आगमों की तिथि का ठीक पता नहीं चलता, किन्तु मध्यकालीन कुछ आगमों की तिथियों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। तमिल कवि तिरमूलर (800 ई०), सुन्दर्र (लगभग 800 ई०) तथा माणिक्क वाचकर (900 ई० के लगभग) ने आगमों को उद्धृत किया है। श्री जगदीशचन्द्र चटर्जी का कथन है कि शिवसूत्रों की रचना कश्मीर में वसुगुप्त द्वारा 850 ई० के लगभग हुई, जिनका उद्देश्य अद्वैत दर्शन के स्थान पर आगमों की द्वैतशिक्षा की स्थापना करना था। इस कथन की पुष्टि मतङ्ग (परमेश्वर-आगम का एक उपागम) एवं स्वायम्भुव द्वारा होती है। नवीं शताब्दी के अन्त के कश्मीरी लेखक सोमानन्द एवं क्षेमराज के अनेक उद्धरणों से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। किरण आगम की प्राचीनतम पाण्डुलिपि 924 ई० की है।
आगमों के प्रचलन से शैवों में शाक्त विचारों का उद्भव हुआ है एवं उन्हीं के प्रभाव से उनकी मन्दिर-निर्माण, मूर्तिनिर्माण तथा धार्मिक क्रिया सम्बन्धी नियमावली भी तैयार हुई। मृगेन्द्र आगम (जो कामिक आगम का प्रथम अध्याय है) के प्रथम श्लोक में ही सबका निचोड़ रख दिया गया है : `शिव अनादि हैं, अवगुणों से मुक्त हैं, सर्वज्ञ हैं; वे अनन्त आत्माओं के बन्धनजाल काटने वाले हैं। वे क्रमशः एवं एकाएक दोनों प्रकार से सृष्टि कर सकते है; उनके पास इस कार्य के लिए एक अमोघ साधन है `शक्ति`, जो चेतन है एवं स्वयं शिव का शरीर है; उनका शरीर सम्पूर्ण `शक्ति` है।` .....इत्यादि।
सनातनी हिन्दुओं के तन्त्र जिस प्रकार शिवोक्त हैं उसी प्रकार बौद्धों के तन्त्र या आगम बुद्ध द्वारा वर्णित हैं। बौद्धों के तन्त्र भी संस्कृत भाषा में रचे गये हैं। क्या सनातनी और क्या बौद्ध दोनों ही सम्प्रदायों में तन्त्र अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है। माना जाता है कि यथार्थतः दीक्षित एवं अभिषिक्त के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। कुलार्णवतन्त्र में लिखा है कि धन देना, स्त्री देना, अपने प्राण तक देना पर यह गुह्य शास्त्र अन्य किसी अदीक्षित के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए।
शैव आगमों के समान वैष्णव आगम भी अनेक हैं, जिनको 'संहिता' भी कहते हैं। इनमें नारदपंचरात्र अधिक प्रसिद्ध है।

आगमप्रकाश
गुजराती भाषा में विरचित 'आगमप्रकाश' तान्त्रिक ग्रन्थ है। इसमें लिखा है कि हिन्दुओं के राज्य काल में वङ्ग के तान्त्रिकों ने गुजरात के डभोई, पावागढ़, अहमदाबाद, पाटन आदि स्थानों में आकर कालिकामूर्ति की स्थापना की। बहुत से हिन्दु राजाओं ने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी, (आ० प्र० 12)। आधुनिक युग में प्रचलित मन्त्रगुरु की प्रथा वास्तव में तान्त्रिकों के प्राधान्य काल से ही आरम्भ हुई।

आगमप्रामाण्य
श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामुनाचार्य द्वारा विरचित यह ग्रन्थ वैष्णव आगम अथवा संहिताओं के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। इसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी है।

आगस्त्य
ऐतरेय (3.1.1) एवं शाङ्खायन आरण्यक (7.2) में उल्लिखित यह एक आचार्य का नाम है।

आग्नेयक
शैव-आगमों में एक रौद्रिक आगम है।

आग्नेय व्रत
इस व्रत में केवल एक बार किसी भी नवमी के दिन पुष्पों से भगवती विन्ध्यवासिनी का पूजन (पाँच उपचारों के साथ) होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 958-59 (भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत)।

आङ्गिरस
यह अङ्गिरस्-परिवार की उपाधि है, जिसे बहुत से आचार्यों ने ग्रहण किया था। इस उपाधि के धारण करने वाले कुछ आचार्यों के नाम है, कृष्ण, आजीगर्ति, च्यवन, अयास्य, सुधन्वा इत्यादि।

आङ्गिरस कल्पसूत्र
अथर्ववेद का एक वेदांग। इसमें अभिचारकर्मकाल में कर्त्ता और कारयिता सदस्यों की आत्मरक्षा करने की विधि बतायी गयी है। उसके पश्चात् अभिचार के उपयुक्त देशकाल, मंडप रचना, साधक के दीक्षादि धर्म, समिधा और आज्यादि के संरक्षण का निरूपण है। फिर अभिचार-कर्मसमूह तथा प्राकृताभिचार-निवारण और अन्यान्य कर्मों का उल्लेख हैं।

आङ्गिरसस्मृति
पं० जीवानन्द द्वारा प्रकाशित स्मृति-संग्रह (भाग 1, पृ० 557-560) में 72 श्लोकों की यह एक संक्षिप्त स्मृति संगृहीत है। इसमें चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्त्तव्यों, प्रायश्चित्तविधि आदि का निरूपण है। अन्त्यजों के हाथ से भोजन और पेय ग्रहण करने, गौ को मारने और आघात पहुँचाने आदि के विस्तृत प्रायश्चितों का विधान और नीलवस्त्र-धारण के नियम भी इसमें पाये जाते हैं। स्त्रीधन का अपहरण इसके मत से निषिद्ध है।
याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन धर्मशास्त्रकारों के नाम दिये गये हैं, उनमें अङ्गिरा भी हैं। उसके टीकाकार विश्वरूप ने कई स्थलों पर अङ्गिरा का मत उद्धृत किया है। यथा, अङ्गिरा के अनुसार परिषद् के सदस्यों की संख्या 121 होनी चाहिए (या० स्मृ० 1.9)। इसी प्रकार अङ्गिरा के मत में शास्त्र के विरुद्ध 'आत्मतुष्टि' का प्रमाण अमान्य है। (या० स्मृ० 1.50)। याज्ञवल्क्यस्मृति के दूसरे टीकाकार अपरार्क न अङ्गिरा के अनेक वचनों को उद्धृत किया है। मनु के टीकाकार मेधातिथि ने सतीप्रथा पर अङ्गिरा का अवतरण देकर उसका विरोध किया है (म० स्मृ० 5.151)। मिताक्षरा आदि अन्य टीकाओं और निबन्ध ग्रन्थों में अङ्गिरा के अवतरण पाये जाते हैं। लगता है कि कभी धर्मशास्त्र का आङ्गिरस सम्प्रदाय बहुप्रचलित था जो धीरे धीरे लुप्त होता गया।

आचार
शिष्ट व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित एवं बहुमान्य रीति-रिवाजों को 'आचार' कहते हैं। स्मृति या विधि सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों में आचार का महत्त्व भली भाँति दर्शाया गया है। मनुस्मृति (1.109) में कहा गया है कि आचार, आत्म अनुभूतिजन्य एक प्रकार की विधि है एवं द्विजों को इसका पालन अवश्य करना चाहिए। धर्म के स्रोतों में श्रुति और स्मृति के पश्चात् आचार का तीसरा स्थान है। कुछ विद्वान् तो उसको प्रथम स्थान देते हैं; क्योंकि उनके विचार में धर्म आचार से ही उत्पन्न होता है---'आचारप्रभवो धर्मः'। इस प्रकार के लोकसंग्राहक धर्म को तीन भागों में बाँटा गया है-- 'आचार', 'व्यवहार' और 'प्रायश्चित'। (याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रकरण-विभाजन इन्हीं तीन रूपों में हैं।) याज्ञवल्क्य ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किया है: (1) संस्कार (2) वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम (3) विवाह एवं पत्नी के कर्त्तव्य (4) चार वर्ण एवं वर्णसंकर (5) ब्राह्मण गृहपति के कर्त्तव्य (6) विद्यार्थी-जीवन समाप्ति के बाद कुछ पालनीय नियम (7) विधिसंमत भोजन एवं निषिद्ध भोजन के नियम (8) वस्तुओं की धार्मिक पवित्रता (9) श्राद्ध (10) गणपति की पूजा (11) ग्रहों की शान्ति के नियम एवं (12) राजा के कर्त्तव्य आदि।
स्मृतियों में आचार के तीन विभाग किये गये हैं : (1) देशाचार (2) जात्याचार और (3) कुलाचार। दे० 'सदाचार'। देश विदेश में जो आचार प्रचलित होते हैं उनको देशाचार कहते हैं, जैसे दक्षिण में मातुलकन्या से विवाह। इसी प्रकार जातिविशेष में जो आचार प्रचलित होते हैं, उन्हें जात्याचार कहा जाता है, जैसे कुछ जातियों में सगोत्र विवाह। कुल विशेष में प्रचलित आचार को कुलाचार कहा जाता है। धर्मशास्त्र में इस बात का राजा को आदेश दिया गया है कि वह आचारों को मान्यता प्रदान करे। ऐसा न करने से प्रजा क्षुब्ध होती है।


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