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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आनन्दतारतम्यखण्डन
श्रीनिवासाचार्य (द्वितीय) ने मध्वाचार्य के मत में दोष दिखलाने के उद्देश्य से 'आनन्दतारतम्यखण्डन' नामक प्रबन्ध की रचना की। इसमें मध्वाचार्य प्रतिपादित द्वैत मत की आलोचना है।

आनन्दतीर्थ
प्रसिद्ध द्वैतवादी आचार्य मध्व का दूसरा नाम। इन्होंने वेदान्त के प्रस्थानत्रय (उपनिषद्-ब्रह्मसूत्र--गीता) पर तर्कपूर्ण भाष्य रचना की है। इनका जीवन-काल बारहवीं शताब्दी और उडूपी (कर्नाटक) निवास स्थान माना जाता है। वैष्णवों के चार संप्रदायों में एक 'माध्व संप्रदाय' आनन्द तीर्थ से ही प्रचारित हुआ।

आनन्दनवमी
यह व्रत फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन प्रारम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त चलता है। पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त, सप्तमी को अयाचित्, अष्टमी तथा नवमी के दिन उपवास और देवी का पूजन होना चाहिए। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर पुष्प, नैवेद्य, देवी के नाम इत्यादि का चार-चार मास के प्रत्येक भाग में परिवर्तन कर देना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड, 299-301; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.948--150 में इसका नाम 'अनन्दा' है।

आनन्दपञ्चमी
नागों को पञ्चमी तिथी अत्यन्त प्रिय है। इस तिथि को नागप्रतिमाओं का पूजन होता है। दूध में स्नान करती हुई ये प्रतिमाएँ भय से मुक्ति प्रदान करती हैं। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, जिल्द 1, पृ० 557 560।

आनन्‍दबोधाचार्य
श्री आनन्दबोध भट्टारकाचार्य बारहवीं शताब्दी में वर्तमान थे। उन्होंने अपने न्यायमकरन्द ग्रन्थ में वाचस्पति मिश्र का नामोल्लेख किया है तथा विवरणाचार्य प्रकाशात्म यति के मत का अनुवाद भी किया है। वाचस्पति मिश्र दसवीं शताब्दी में और प्रकाशात्म यति ग्यारहवीं शताब्दी में हुए थे। चित्सुखाचार्य ने, जो तेरहवीं शताब्दी में वर्तमान थे, 'न्यायमकरन्द' की व्याख्या की। इससे ज्ञात होता है कि आनन्दबोध बारहवीं शताब्दी में हुए होंगे। वे संन्यासी थे इससे अधिक उनके जीवन की कोई घटना नहीं मालूम होती। उनके तीन ग्रन्थ मिलते हैं ---1.न्यायमकरन्द, 2. प्रमाणमाला और 3. न्यायदीपावली। इन तीनों में उन्होंने अद्वैत मत का विवेचन किया है। दे० 'अद्वैतानन्द'।

आनन्द भट्ट
वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार।

आनन्दभाष्य
वेदान्त दर्शन का एक वैष्णव भाष्य, जो आचार्य स्वामी रामानन्द के सांप्रदायिक सिद्धांतों के अनुरूप सगुण ब्रह्मस्वरूप का प्रतिपादन करता है। यह उत्तम कोटि की गम्भीर तार्किक रचना है, जिससे भाष्यकार का अनुपम पाण्डित्य प्रकट होता है।

आनन्दलहरी
शंकराचार्य द्वारा विरचित महामाया दुर्गा देवी की स्तुति एक ललित शिखरिणी छन्द में रची गयी, भक्तिपूर्ण कृति है। सामान्यतया इसके निर्माता आद्य शंकराचार्य माने जाते हैं। किन्तु आलोचकगण पश्चाद्भावी शंकराचार्य पदासीन किसी अन्य महात्मा को इसका रचयिता मानते हैं। 41 पद्यात्मक आनन्दलहरी गहन सिद्धान्तपूर्ण तांत्रिक स्तोत्र सौन्दर्यलहरी का पूर्वार्ध मानी जाती है।

आनन्दलिङ्ग जङ्गम
उत्तराखण्ड के श्री केदारनाथ धाम में स्थित बहुत प्राचीन मठ। इसकी प्राचीनता का प्रमाण एक ताम्रशासन है, जो इस मठ में वर्तमान बताया जाता है। उसके अनुसार हिमवान् केदार में महाराज जनमेजय के राजत्वकाल में स्वामी आनन्दलिङ्ग जङ्गम वहाँ के मठ के अधिष्ठाता थे। उन्हीं के नाम जनमेजय ने मन्दाकिनी, क्षीरगङ्गा, मधुगङ्गा, स्वर्गद्वार गङ्गा, सरस्वती और मन्दाकिनी के बीच जितना भूक्षेत्र है, सबका दान इस उद्देश्य से किया कि ऊखीमठ के आचार्य आनन्दलिङ्ग जङ्गम के शिष्य ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से भगवान् केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें।

आनन्दवल्ली
तैत्तिरीयोपनिषज् के तीन भाग हैं। पहला भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है, दूसरे भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगुवल्ली। इन दोनों (दूसरी और तीसरी) का इकट्ठा नाम वारुणी उपनिषद् भी है। आनन्दवल्ली में ब्रह्म के आन्दतत्त्व की व्याख्या है।


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