चैत्र शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ कर वर्ष को चार-चार महीनों के तीन भागों में विभाजित करके पूरे वर्ष इस व्रत का आचरण करना चाहिए। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध का वर्ष के प्रत्येक भाग में क्रमशः पूजन होना चाहिए। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.142, 1-7।
आश्रमोपनिषद्
एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें संन्यासी की पूर्वावस्था का विशद वर्णन है। इससे संन्यासी की सांसारिक जीवन से विदाई, उसकी वेशभूषा, दूसरी आश्वकताएँ, भोजन, निवास, एवं कार्यादि पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है। संन्यास सम्बन्धी उपनिषदों, यथा ब्रह्म संन्यास, आरुणेय, कंठश्रुति, परमहंस तथा जाबाल में भी ऐसा ही पूर्ण विवरण प्राप्त होता है।
आश्वलायनगृह्यसूत्र
ऋग्वेद के गृह्यसूत्रों में एक। इसकी रचना करने वाले ऋषि अश्वल अथवा आश्वलायन थे। इसमें गृह्यसंस्कारों, ऋतु यज्ञों तथा उत्सवों का सविस्तार वर्णन है।
आश्वलायनगृह्यपरिशिष्ट
आश्वलायन द्वारा रचित ऋग्वेद के अनुपूरक कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखनेवाला यह परिशिष्ट ग्रन्थ है।
आश्वलायनश्रौतसूत्र
सूत्रों की रचना कर्मकाण्ड विषयक है। इन्हें कल्पसूत्र भी कहते हैं। ऋग्वेद के श्रौतसूत्रों में सबसे पहला 'आश्वलायनसूत्र' समझा जाता है। यह बारह अध्यायों में है। ऐतरेय ब्राह्मण के साथ आश्वलायन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। अश्वल ऋषि विदेहराज जनक के ऋत्विजों में 'होता' थे। किसी किसी का कहना कि ये ही इन सूत्रों के प्रवर्तक थे, इसीलिए इनका आश्वलायन नाम पड़ा। कुछ लोग आश्वलायन को पाणिनि का समकालीन बतलाते हैं। भारतीय विद्वान् इस दूसरी कल्पना को नहीं मानते। ऐतरेय आरण्यक के चौथे काण्ड के प्रणेता का नाम आश्वलायन है। आश्वलायन के गुरु 'प्रातिशाख्यसूत्र' के रचयिता शौनक कहे जाते हैं।
आश्विनकृत्य
आश्विन मास में अनेक व्रत तथा उत्सव होते हैं, जिनमें से मुख्य कृत्यों का उल्लेख यथास्थान किया जायगा। यहाँ कुछ का ही उल्लेख होगा। विष्णुधर्मसूत्र (90.24.25) में स्पष्ट कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति इस मास में प्रतिदिन घृत का दान करे तो वह न केवल अश्विनी को सन्तुष्ट करेगा अपितु सौन्दर्य भी प्राप्त करेगा। ब्राह्मणों को गोदुग्ध अथवा गोदुग्ध से बनी अन्य वस्तुओं सहित भोजन कराने से उसे राज्य की प्राप्ति होगी। इसी मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को पौत्र द्वारा, जिसके पिता जीवित हों, अपने पितामह तथा पितामही के श्राद्ध का विधान है। उसी दिन नवरात्र प्रारम्भ होता है। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सती (भगवती पार्वती) का पूजन करना चाहिए। अर्घ्य, मधुपर्क, पुष्प इत्यादि वस्तुओं द्वारा धार्मिक, पतिव्रता तथा सधवा स्त्रियों के प्रति क्रमशः जिनमें माता-बहिन तथा अन्य पूज्य सभी स्त्रियाँ आ जाती हैं, सम्मान प्रदर्शित किया जाना चाहिए। पञ्चमी के दिन कुश के बनाये हुए नाग तथा इन्द्राणी का पूजन करना चाहिए। शुक्ल पक्ष की किसी शुभ तिथि तथा कल्याणकारी नक्षत्र और मुहूर्त में सुधान्य से परिपूरित क्षेत्र में जाकर संगीत तथा नृत्य का विधान है। वहीं पर हवन इत्यादि करके नव धान्य का दही के साथ सेवन करना चाहिए। नवीन अंगूर भी खाने का विधान है।
शुक्ल पक्ष में जिस समय स्वाति नक्षत्र हो उस दिन सूर्य तथा घोड़े की पूजा की जाय, क्योंकि इसी दिन उच्चैःश्रवा सूर्य को ढोकर ले गया था। शुक्ल पक्ष में उस दिन जिसमें मूल नक्षत्र हो, सरस्वती का आवाहन करके, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में ग्रन्थों में उसकी स्थापना करके, उत्तराषाढ़ में नैवेद्यादि की भेंटकर, श्रवण में उसका विसर्जन कर दिया जाय। उस दिन अनध्याय रहें; लिखना पढ़ना, अध्यापनादि सब वर्जित है। तमिल नाडु में आश्विन शुक्ल नवमी के दिन ग्रन्थों में सरस्वती की स्थापना करके पूजा की जाती है। तुला मास (आश्विन मास) कावेरी में स्नान करने के लिए बड़ा पवित्र माना गया है। अमावस्या के दिन भी कावेरी नदी में एक विशेष स्नान का आयोजन किया जाता है। दे० निर्णयसिन्धु, पुरुषार्थचिन्तामणि, स्मृतिकौस्तुभ आदि।
आषाढ़कृत्य
आषाढ़ मास के धार्मिक कृत्यों तथा प्रसिद्ध व्रतों का उल्लेख यथास्थान किया गया है। यहाँ कुछ छोटे व्रतों का उल्लेख किया जायागा। मास के अन्तर्गत एकभक्त व्रत तथा खड़ाऊँ, छाता, नमक तथा आवलों का ब्राह्मण को दान करना चाहिए। इस दान से वामन भगवान् की निश्चय ही कृपादृष्टि होगी। यह कार्य या तो आषाढ़ मास के प्रथम दिन हो अथवा सुविधानुसार किसी भी दिन। आषाढ़ द्वितीया को यदि पुष्य नक्षत्र हो तो कृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा का रथोत्सव निकाला जाय। शुक्ल पक्ष की सप्तमी को वैवस्वत सूर्य की पूजा होनी चाहिए, जो पूर्वाषाढ़ को प्रकट हुआ था। अष्टमी के दिन महिषासुरमर्दिनी भगवती दुर्गा को हरिद्रा, कपूर तथा चन्दन से युक्त जल में स्नान कराना चाहिए। तदनन्तर कुमारी कन्याओं और ब्राह्मणों को सुस्वादु मधुर भोजन कराया जाय। तत्पश्चात् द्वीप जलाना चाहिए। दशमी के दिन वरलक्ष्मी व्रत तमिलनाडु में अत्यन्त प्रसिद्ध है। एकादशी तथा द्वादशी के दिन भी उपवास, पूजन आदि का विधान है। आषाढ़ी पूर्णिमा का चन्द्रमा बड़ा पवित्र है। अतएव उस दिन दानपुण्य अवश्य होना चाहिए। यदि संयोग से पूर्णिमा के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र हो तो दस विश्वेदेवों का पूजन किया जाना चाहिए। पूर्णिमा के दिन खाद्य का दान करने से कभी न भ्रान्ति होने वाला विवेक तथा बुद्धि प्राप्ति होती है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण।
आसन
(1) आसन शब्द का अर्थ बैठना अथवा शरीर की एक विशेष प्रकार की स्थिति। हस्त-चरण आदि के विशेष संस्थान से इसका रूप बनता है। 'अष्टांङ्गयोग' का यह तीसरा अङ्ग है। पतञ्जलि के अनुसार आसन की परिभाषा है 'स्थिरसुखमासनम्' अर्थात् जिस शारीरिक स्थिति से स्थिर सुख मिले। परन्तु आगे चलकर आसनों का बड़ा विकास हुआ और इनकी संख्या 84 तक पहुँच गयी। इनमें दो अधिक प्रयुक्त हैं: 'एकं सिद्धासनं नाम द्वितीयं कमलासनम्'। ध्यान की एकग्रता के लिए आसन तथा प्राणायम साधन मात्र हैं, किन्तु क्रमशः इनका महत्व बढ़ता गया और ये प्रदर्शन के उपकरण बन गये।
तन्त्रसार में निम्नांकित पाँच आसन प्रसिद्ध हैं :, पद्मासनं स्वस्तिकाख्यं भद्र वज्रासनं तथा। वीरासनमिति प्रोक्तं क्रमादासनपञ्चकम्।।
पद्मासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन, वज्रासन तथा वीरासन ये क्रमशः पाँच आसन कहे जाते हैं।]
(2) गोरखनाथी सम्प्रदाय, जो एक नयी प्रणाली के योग का उत्थान था, भारत के कुछ भागों में प्रचलित हुआ। किन्तु यह प्राचीन योगप्रणाली से मिल नहीं सका। इसे हठयोग कहते हैं तथा इसका सबसे महत्वपूर्ण अङ्ग है--शरीर की कुछ क्रियाओं द्वारा शुद्धि, कुछ शारीरिक व्यायाम तथा मस्तिष्क का महत् केन्द्रीकरण (समाधि)। इनमें बहुसंख्यक शारीरिक आसनों का प्रयोग कराया जाता है।
(3) उपवेशन के आधार पीठादि को भी आसन कहा जाता है। यह सोलह प्रकार के पूजा-उपचारों में से है। कालिकापुराण (अ० 67) में इन आसनों का विधान और विस्तृत वर्णन पाया जाता है :
उपचारान् प्रवक्ष्यामि श्रृणु षोडश भैरव। यैः सम्यक् तुष्यते देवी देवोऽप्यन्यो हि भक्तितः।। आसनं प्रथमं दद्यात् पौष्पं दारुजमेव वा। वास्त्रं वा चार्मणं कोशं मण्डलस्योत्तरे सृजेत्।।
[हे भैरव, सुनो। मैं सोलह उपचारों का वर्णन कर रहा हूँ जिससे देवी तथा अन्य देव प्रसन्न होते हैं। इनमें आसन प्रथम है जिसका अर्पण करना चाहिए। आसन कई प्रकार के होते हैं, जैसे पौष्प (पुष्प का बना हुआ), दारुज (काष्ठ का बना हुआ), वस्त्र (वस्त्र का बना हुआ), चार्मण (चमड़े, यथा अजिन आदि का बना हुआ), कौश (कुशनिर्मित)। इन आसनों को मण्डल के उत्तर में बनाना (रखना) चाहिए।]
आसुर
(1) असुरभाव संयुक्त अथवा असुर से सम्बन्ध रखनेवाला। ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाहों में से भी एक का नाम आसुर है। मनुस्मृति (3.31) में इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः। कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते।।
[कन्या की जातिवालों (माता, पिता, भाई, बन्धु आदि) को अथवा स्वयं कन्या को ही धन देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याप्रदान (विवाह) करना आसुर (धर्म) कहलाता है।]
इस प्रकार के विवाह को भी धर्मसंमत कहा गया है, क्योंकि यह पैशाच विवाह की पाशविकता, राक्षस विवाह की हिंसा और गान्धर्व विवाह की कामुकता से मुक्त है। परन्तु फिर भी यह अप्रशस्त कहा गया है। कन्यादान एक प्रकार का यज्ञ माना गया है, जिसमें कन्या का पिता अथवा उसका अभिभावक ही यजमान है। उसके द्वारा किसी प्रकार का भी प्रतिग्रह निन्दनीय है। इसलिए जब कन्यादान का यज्ञ के रूप में महत्त्व बढ़ा तो आसुर विवाह कन्याविक्रय के समान दूषित समझा जाने लगा। अन्य अप्रशस्त विवाहों की तरह केवल गणना के लिए इसका उल्लेख होता है। दे० 'विवाह'।
(2) श्रीमद्भगवद्गीता (अ० 16) में समस्त जीवधारी (भूतसर्ग) दो भागों में विभक्त हैं। वे हैं दैव और आसुर। आसुर का वर्णन इस प्रकार किया गया है :
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च। दैवो विस्तरशः प्रोक्तः आसुरं पार्थ मे श्रृणु।। प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च जना न विदुरासुराः। न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम्। अपस्परसम्भूतं किमन्त्यत्कामहेतुकम्।। एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्यबुद्धयः। प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।। आदि
आसुरि
बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रथम दो वंशों (आचार्यों की तालिका) में भरद्वाज के शिष्य एवं औपड्घनि के आचार्य रूप में इनका उल्लेख है, किन्तु तीसरे में याज्ञवल्क्य के शिष्य तथा आसुरायण के आचार्य रूप में उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के प्रथम चार अध्यायों में य़ाज्ञिक अधिकारी एवं सत्य पर अटल रहने वाले पुरुषों का उल्लेख हुआ है, जिनमें इनकी गणना है।
सांख्यशास्त्र के आचार्य, कपिल के शिष्य भी आसुरि हुए हैं :
पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम्। प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्।। (भागवत, 1.3.10)